इलाहाबाद कल आज और....`आम` को `खास` से मिलाती `चोर-गल्ली`

संक्षेप:

  • एक रोड पर `पंचमुखी महादेव` का विशाल मंदिर है, तो दूसरी तरफ `भोलेगिरी का मंदिर` है। यह चोर गल्ली ही तो है, जो दोनों सड़कों को जोड़ती है।
  • ऐसे ही राजा मांडा के क्षेत्र में कभी `जद्दन बाई` रहा करती थीं। उनकी बेटी का नाम `नरगिस` था। जो बाद में सुनील दत्त से विवाह के बाद नरगिस दत्त हो गयीं थीं।
  • हर घर का कमरा धीरे-धीरे खोदा जाता रहा। खजाने की खोज सालों साल चलती रही, पर खजाना गायब होता रहा और नहीं मिला तो नहीं मिला।

--वीरेन्द्र मिश्र

`चोर गल्ली` आखिर इस छोटी सड़क का नाम क्यों पड़ गया- `चोर गली`। कटघर रोड के एक तरफ है, तो दूसरी तरफ बलुआ घाट रोड है, जो डॉ. घोष - मॉर्डन स्कूल से सीधे हटिया-बहादुर गंज मानसरोवर - मोती महल के सामने मोहत्सिम गंज से टकराती है।

ऐसे ही कटघर रोड भी हटिया से घूमकर उसमें ही मिल जाती है।

कैसा अद्भुत संयोग माना जाएगा कि एक रोड पर `पंचमुखी महादेव` का विशाल मंदिर है, तो दूसरी तरफ `भोलेगिरी का मंदिर` है। यह चोर गल्ली ही तो है, जो दोनों सड़कों को जोड़ती है, आम को खास से मिलाकर एक कर देती रही है।

कभी राजा-महाराजाओं की कोठी से ये गल्ली जुड़ी थी। काशी नरेश, राजा डहिया, राजा मांडा और राजा शंकरगढ़ की रिहायिश भी यहां होती थी। लिहाजा आम जनमानस की आवा-जाही चोरी छिपे ही कुंज गल्ली से गुजरते हुए होती थी और संकरी गली तो यह थी ही। यही कारण रहा कि यह गल्ली `चोर गल्ली` के नाम से स्थापित होती गयी। पीढ़ियों ने इस पूरे क्षेत्र को आज रिहायिश बना डाला है। परन्तु `चोर गल्ली` अब भी है, किन्तु नाम भर की रह गयी है।

`चोर गल्ली` पहले बहुत पतली गल्ली थी, जहां से निकलकर जाना भयावह लगता था। परन्तु परिस्थितियों के चलते चोरी-छिपे ही लोग इस गल्ली से तब गुजरते थे। आज तो बस सिर्फ नाम भी शेष रह गया है।

पंचमुखी बगिया के पास जहां विशाल अखाड़ा था। वहीं पूरब दिशा में राजा शंकरगढ़ की रियासत की बगिया भी थी। इस चोर गल्ली से और इन दोनों बगिया गुजर कर ही दूसरी सड़क पर पहुंचना होता था। और ठीक सामने कटघर रोड पर `राजा डहिया` की कोठी थी। जहां राज मांडा की पहचान भी थी। देश के प्रधानमंत्री रह चुके विश्वनाथ प्रताप सिंह का पुराना घर भी वहीं था। जहां जस्टिस सी.एस.पी. सिंह और हरबक्श सिंह भी कभी रहा करते थे। आज तो कोठी भर रह गयी है।

`अम्मा जी` ठेठ इलाहाबादी बोली (अवधी) बोलतीं, तो पूरा घर उनका तब अनुसरण करता था। यहीं नहीं रानी साहिबा भी अवधी ही बोला करती थीं। यही वो जगह रही है, जहां से राजा मांडा, विश्वनाथ प्रताप सिंह पहला चुनाव जीते, फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे और यहीं से चुनाव जीतकर देश के प्रधानमंत्री बने। तब कैंट रोड की कोठी में पहुंच गये थे। हालांकि तब उनके चुनाव में एन.टी.रामाराव और चौधरी देवीलाल की टीम भी चुनाव प्रचार में जुटी थी। बड़ा ही ऐतिहासिक चुनाव था।

ऐसे ही राजा मांडा के क्षेत्र में कभी `जद्दन बाई` रहा करती थीं। उनकी बेटी का नाम `नरगिस` था। जो बाद में सुनील दत्त से विवाह के बाद नरगिस दत्त हो गयीं थीं। वक्त ने करवट ली और नरगिस दत्त का निधन `कैंसर` से हो गया। लम्बा अन्तराल बीत गया। आज नरगिस दत्त के पुत्र संजय दत्त फिल्म जगत में स्थापित पहचान में हैं।

गांधीगिरी की अभिनय की लोकप्रियता ने उन्हें स्थापित करा दिया है। यानी फिल्म अभिनेता संजय दत्त की मांडा क्षेत्र ननिहाल भी रही है। वह भी बचपन में अपनी मां के साथ कई बार वहां जा चुके हैं।

राजा डहिया की कोठी के सामने ही राजा शंकरगढ़ की जो रियासत थी- कोठी थी, उनकी अलग पहचान रही।

शंकरगढ़ से लालापुर भट्टपुरा इमिलियन देवी तक का पूरा क्षेत्र उन्हीं की रियासत की होती थी। जहां के ज़मींदार लालता प्रसाद उपाध्याय और `कम्पनी आजी` की कभी तूती बोलती थी। `सुपाड़ी बाग-मनकामेश्वर` कभी कथानक बन गया था, परन्तु आज सब कुछ सिर्फ बीते दिनों की बातें रह गयीं हैं।

आज जो वक्त कहीं अधिक बदल गया है। राजा राव कमलाकर सिंह की संतति पढ़ लिखकर अपनी अलग पहचान बना चुकी है। परन्तु अपनी परम्परा को उसने भुलाया नहीं। शंकरगढ़ रियासत की मोह से अलग जन सेवा में ये विशाल बाबा भोलेगिरी का मंदिर उनकी परम्परा को जीवन्त आगे बढ़ा रहा है।

अब ज़रा बलुआ घाट वाली रोड पर चलते हैं। जहां पंचमुखी महादेव के मंदिर का द्वार है। उसके सामने की गल्ली में ही पण्डित बसन्त लाल शर्मा क्रांतिकारी रहा करते थे। कहते हैं `चन्द्रशेखर आजाद` से उनकी काफी निकटता थी और कई बार आजाद जी भी उस घर में निधड़क आते-जाते रहे हैं।

बसन्त लाल शर्मा की सन्तति भइया जी सुप्रसिद्ध वायलिन वादक हैं। जीवन का उत्तरार्ध जी रहे हैं। हालांकि उनके बाद की पीढ़ियां नये समाज में स्वयं को स्थापित कराने की जद्दोजहद में सक्रिय हैं। राजा डहिया की कोठी की रौनक और पहचान भी अब बदल गयी है। पलायन ने समय की दहलीज पर नई पीढ़ी को आगे बढ़ा दिया है। लिहाजा पुरातन अब यहां शेष नहीं है। नया भी कुछ ऐसा नहीं जिसकी चर्चा हो।

ठहरिये! यहां से आईये और आगे बढ़ते हैं। हटिया की ओर, थोड़ा पहले ही दाहिने जानिब में कभी यहां विदुर जीवन जीने वाले साहित्य अनुरागी फिल्म अभिनेत्री वहीदा रहमान की कलात्मक अभिव्यकित के मुरीद और हास्य अभिनेता जॉनी वॉकर के परम मित्र ओ.पी.भार्गव रहते थे। उनको तो अजीब जुनून था।

एक बार किसी ने उनको समझा दिया कि जिस ज़मीन पर उनका घर बना है, वहां बहुत बड़ा खजाना गड़ा है। बस! फिर क्या था, हर घर का कमरा धीरे-धीरे खोदा जाता रहा। खजाने की खोज सालों साल चलती रही, पर खजाना गायब होता रहा और नहीं मिला तो नहीं मिला। बेचारे बूढ़े हो गये। न जाने कैसी उनकी हसरत थी और ना जाने उनकी कैसी परिकल्पनाएं थीं, परन्तु फिल्म जगत की सभी विभूतियां उनसे मिलकर ज़रूर दम भरती थीं।

उनके मित्रों में इलाहाबाद के साहित्यकार, कवियों की टोलियां भी थीं। उनके घर में सभी का अक्सर खूब जमावड़ा रहता। उमाकान्त मालवीय, कैलाश गौतम, फिल्म निर्माता स्वतंत्र सिंह (जौनपुर वाले) गीतकार अन्जान और रमन पाण्डेय जैसी तमाम हस्तियां इलाहाबाद आने पर उनसे मिले बिना नहीं जाती थीं। उनके पास `बेबी ऑस्टीन` की सवारी पूरे इलाहाबाद शहर की रौनक थी, जिसकी एक चर्चा आर.डी.बर्मन जी के साथ पहले भी की जा चुकी है।

ओ.पी. भार्गव और लल्लू संजीवन, विजय शर्मा (अभिनेता) अक्सर उसी गाड़ी पर सवारी कर ऑल इंडिया रेडियो पहुंचते थे।

वहीं एक दिन ए.जी. ऑफिस वाले केशव प्रसाद मिश्र मिल गये। उन दिनों उनका लिखा उपन्यास `कोहबर की शर्त` खूब पढ़ा जा रहा था। उसकी चर्चा थी। भार्गव जी की पहल से उस पर फिल्म बनाने का निर्णय हुआ। पूरा उपन्यास तारा चंद्र बड़जात्या जी के पास पहुंचा और `कोहबर की शर्त` अब `नदिया के पार` नाम से फिल्म के रूप में बदल गया था। उनके पुत्र महाबीर बड़जात्या ने फिल्म बनाने का निर्णय किया था। `नदिया के पार` जिसमें साधना और सचिन मुख्य कलाकार रहे। `गुंजा` का चरित्र तो खूब लोकप्रिय हुआ था। उसके निर्देशकर गोविंद मुनीश थे।

तमाम प्रयासों का नतीजा तब यह निकला कि जब `नदिया के पार` बनकर तैयार हुई, तो `प्रीमियर` पहली बार इलाहाबाद में ही हुआ था और पूरी फिल्म टीम वहां पहुंची थी। फिल्म का प्रीमियर बाई का बाग स्थित उत्तम सिनेमा के `काजल सिनेमा` (नये सिनेमा घर) में किया गया था। पूरे शहर में धूम मची थी। ओ.पी. भार्गव इलाहाबाद की विभूतियों, केशवचन्द वर्मा, नरेश मिश्र, जीवन लाल गुप्ता, हीरा चड्ढा और अन्य बहुत से कलाकारों का जमावड़ा आम था और आम के बीच खास थी, तो सिर्फ `बेबी ऑस्टिन 454` की सवारी, जिसके वाहक थे ओ.पी. भार्गव। जो अपने आप में बेमिसाल रहे। इलाहाबाद के लिए यादगार ही नहीं चहेते भी बने रहे थे। मेरे विशेष अनुरोध पर तब महाबीर बड़जात्या और फिल्म के निर्देशक गोविंद मुनीश भी भार्गव जी के घर पर पधारे थे और केशव प्रसाद मिश्र की `कोहबर की शर्त` की जमकर चर्चा हुई थी, जिसमें रमन पाण्डेय और कैलाश गौतम भी शामिल हुए थे।

आज बदलाव है। अब उनके परिवार की पीढ़ियां वक्त के साथ चल रही हैं, किन्तु उनका खुलवाया `व्हाइट ड्राई क्लीनर्स` आज भी यथावत वहीं पर है।

आगे बढ़िये। यहीं सराय आकिल वाले जालिम सिंह का `अहाता` महाबीरन लेन से लगा है, जो मुंशी राम प्रसाद की बगिया को चौहद्दी के साथ भी जुड़ा रहा है।

थोड़ा और आगे बढ़ते ही बलापुर वासी ज़मीदार जगदीश प्रसाद सिंह (मास्टर साहब) वहीं रहते रहे, जिन्होंने अपने जीवन काल में हजारों भारत स्काउट गाइड को राष्ट्रपित सम्मान पाने के योग्य बनाया और दिलवाया।

अग्रवाल कॉलेज में वह अंग्रेजी के प्राध्यापक भी रहे और स्काउंटिंग को शीर्ष तक पहुंचाने में उनके योगदान का कोई सानी नहीं रहा।

चाहे कुम्भ मेले में सेवा करना रहा हो अथवा बांग्लादेश युद्ध के दौरान आये इरादतगंज में बसे `रिफ्यूजी` को शरण लेने के बाद उनकी सेवा करना। उन्होंने तब खूब खुलकर काम सम्पन्न कराए थे। शहर के हर क्षेत्र में उनकी सक्रियता के योगदान की चर्चा होती रहती थी। रेलवे स्टेशन पर भारतीय सेना की वापसी पर उनकी आव भगत में वह आगे रहते रहे।

यही नहीं `सिविल डिफेंस` को सक्रिय बनाने में भी उनका योगदान श्रेष्ठ माना जाता रहा। कितने ही स्काउट-गाइड की `जम्बूरी` में मौका देना कोई उनसे सीखे।

आज आठ दशक पार करने के बाद भी उनकी सक्रियता में कहीं ठहराव नहीं आया है। वहीं पुराना जोश अभी भी उनमें दिखता है।

वक्त कितनी तेज़ी से बदलता है। उनका छोटा पुत्र सिद्धार्थ श्रीवास्तव आज ऑल इंडिया रेडियो में नियमित समाचार वाचन कर रहा है। आज की यात्रा यहीं तक। और भी बहुत कुछ है आगे की कड़ियों में।

शेष फिर.....

(अगले अंक में आप पढ़ेंगे मित्र प्रकाशन से `सरयू-पारिण` क्षेत्र तक की कुछ अनकही-अनसुनी कहानी)

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