इलाहाबाद कल आज और...‘अक्षयवट’ की जड़ों से कसमसाता-घबराता सम्राट अकबर का किला

  • Hasnain
  • Monday | 27th November, 2017
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संक्षेप:

  • चीनी यात्री फाह्यान और ह्वेन सांग दोनों त्रिवेणी संगम तट पर पहुंचे थे।
  • माना जाता है कि इलाहाबाद का इतिहास महात्मा बुद्ध के प्रयाग पहुंचने के बाद ही लिखा मिलता है।
  • बरगद के विशाल वृक्ष को अकबर ने अपने किले के भीतर कैद करा दिया था।

--वीरेन्द्र मिश्र

कितनी अद्भुत बात मानी जायेगी कि चीनी यात्री चाहे - फाह्यान रहा हो अथवा ह्वेन सांग दोनों बौद्ध अनुयायी थे। लिहाजा त्रिवेणी संगम तट पर पहुंचे थे। माना जाता है कि इलाहाबाद का इतिहास महात्मा बुद्ध के प्रयाग पहुंचने के बाद ही लिखा मिलता है। मान्यता है ईसा पूर्व 450 में महात्मा गौतम बुद्ध यहां पधारे थे और यहीं से कौशाम्बी पहुंच कर वहीं पीपल वृक्ष के नीचे यमुना तट पर कौशाम्बी किले के पास प्रवास किया था। उनके चरण रज ढूंढते चीनी बौद्ध यात्री भी पहुंचे थे।

फाह्यान

ह्वेन सांग

क्या आप जानते हैं कि तीर्थराज प्रयाग कभी महाराजा कौशंब की नगरी कौशाम्बी के अधीन था। जो आज भी इलाहाबाद शहर से पश्चिम दिशा में लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित है। यह नगरी यमुना किनारे है और जब चीनी यात्री ह्वेन सांग भारत आया, तो वह कन्नौज के महाराजा हर्षवर्धन के साथ माघ मेले में संगम किनारे भी पहुंचा था। कहा जाता है सन् 644 में महाराजा हर्षवर्धन ने अपने 5 वर्ष के संचित धन को यहां संगम किनारे अर्धकुम्भ के अवसर पर गरीबों, दुखियारों और संगम के तीर्थ पुरोहितों को दान कर दिया था। उसके दानकर पुण्य लाभ कमाने की इस परम्परा को देखने के लिए तब दूर-दूर से लोग आते थे। पूरी कुम्भ नगरी अध्यात्म, वैराग्य और दानशाला की नगरी बन जाती थी। जिस तरह से कल्पवासी यहां पूरे एक माह तक खुले आसमान के नीचे ‘सेजिया’ दान करते हैं और अपने समाज तथा जनमानस के बीच दान करते हुए दानी की कृपा अनुकंपा देखने वालों की भीड़ लग जाती है। तीर्थ पुरोहित सेजिया दान के प्यासे यहां बालू-रेती पर नित धमा-चौकड़ी मचाते रहते हैं।

महाराजा हर्षवर्धन

पहली बात तो ये है कि उत्तर प्रदेश शासन ने प्रयाग कुम्भ के 6 वर्ष में पड़ने वाले अर्धकुम्भ को अब ‘कुम्भ’ का नाम दे दिया है, तो 12 वर्ष में पड़ने वाले ‘कुम्भ’ को ‘महाकुम्भ’ के नाम से स्थापित करा दिया है। तो आने वाले वर्ष 2019 में इलाहाबाद में ‘कुम्भ’ पूरे विश्व के आंखों की इकाई बनकर तमाम संभावनाओं को जो साकार होने वाली है, उन्हें देख सकेगा। कहा जा सकता है तीर्थराज प्रयाग को अब ‘कुम्भ नगरी’ के नाम से भी जाना जा सकेगा। युवा पीढ़ी निश्चित ही ‘कुम्भ’  का साक्षी बनेगा।

कुम्भ नगरी

इलाहाबाद को हो सकता है तब तक ‘तीर्थराज प्रयाग’ की संज्ञा से भी संबोधन प्राप्त हो जाये।

तीर्थराज प्रयाग

इस ‘कुम्भ’ की पहचान पूरे विश्व परिधि में ‘वर्ल्ड फैमिली’ यानी विश्व परिवार (कुटुम्ब) के रूप में जानी जाती है। युगों-युगों से बिना निमंत्रण के मेहमान यहां कुम्भ नहाने और पुण्य लाभ कमाने आते रहे है, जो कि एक वैज्ञानिक किन्तु युगीन तथ्य है।

महात्मा बुद्ध

युवा पीढ़ी को शायद यह नहीं मालूम होगा कि ‘कुम्भ’ में किसी को निमंत्रण अथवा दावत नहीं दी जाती, फिर भी पूरे विश्व से दर्शनार्थी और स्नान करने वाले सभी बिना बुलाये संगम पहुंचते हैं और नक्षत्र-योग में कुम्भ को प्रायोगिक सामूहिक चेतना का स्वरूप देखते है, तो यह कुम्भ आपकी नज़रों से भी गुजरेगा तब निश्चित ही प्रयाग-त्रिवेणी तट की धरती पर अध्यात्म जीवियों का कारवां जुटेगा। और वैदिक, पौराणिक ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक कालछन्दों की निराली छटा के दर्शन कर सकेंगे।

प्रयाग-त्रिवेणी तट

हिमालय की कंदराओं में ध्यानस्थ नागा साधु-सन्त महात्मा अपनी अखाड़ों की पारम्परिक पहचान के साथ हजारों-लाखों की संख्या में पहुंचेगे, जिन्हें जाड़े की परवाह किये बगैर बर्फीली ठंड में भी स्नान करने और अमृतपान करने की लालसा के दर्शन हो सकेंगे। और इस अद्भुत काल को देखने के लिए विदेशी सैलानी गवाह बन जाते हैं।

वैसे वर्ष 1989 में पहली बार दूरदर्शन ने एक घण्टे की की फिल्म ‘अमृत कुम्भ’ जब शंकर सुहेल के निर्देशन और रघुनाथ सेठ की संगीत सरिता के साथ मेरे स्वयं (वीरेन्द्र मिश्र - लेखन-प्रोड्क्शन) तैयार किया था, तो उसकी सर्वत्र चर्चा हुई थी। तब पूरा कुम्भ क्षेत्र कलाकारों के अभिनय और घटनाक्रमों को जीवन्त कर रहा था। जिसमें हाथी पर सवार महाराजा हर्षवर्धन की दान परम्परा का दृश्य भी दिखाया गया था। जिसमें विजय शर्मा ने महाराजा हर्ष का चरित्र जिया था और श्याम सुन्दर बण्टू स्वयं ह्वेन सांग (चीनी यात्री) बने थे।

यही नहीं पहली बार तब सम्राट अकबर के किला के भीतर पाताल मन्दिर और वास्तविक अक्षयवट की भी शूटिंग हुई थी। यह बरगद का विशाल वृक्ष, जिसे सम्राट अकबर ने अपने किले के भीतर कैद कर दिया था और जहांगीर ने उसी वृक्ष में आग लगवा दी थी। परन्तु वृक्ष का तब भी अन्त नहीं हुआ था और सैकड़ों वर्षों के बीत जाने के बाद भी वह ‘अक्षयवट’ अपनी विशालता के साथ खड़ा है और तो और उसकी विशाल जड़ अब किले के पत्थरों को धकियाते अपने बाहुपाश में लगातार कैद कर रही हैं। किले की चट्टाने दरक रही है, जो यमुना का प्रवाह नहीं कर सका उसे अक्षयट की जड़े साकार कर रही हैं। हम कह सकते हैं - अक्षयवट की जड़ों से कसमसाता-घबराता सम्राट अकबर का किला आज गुहार लगा रहा है, अपने अस्तिव की और पहचान के लिए अतीत में झांक रहा है।

सम्राट अकबर का किला

इस अक्षयवट के ठीक नीचे फिल्मांकन में श्रीराम-सीता और लक्ष्मण की अक्षयवट की पूजा का दृश्य तब फिल्माया गया था। वह दृश्य आज भी उपलब्ध है, किन्तु समय के साथ इस अक्षयवट को अन्दर से देख पाना अब मुश्किल है। यमुना तट से किले के किनारे-किनारे फैले उस विशाल बरगद वृक्ष की विशालता को अवश्य देखा जा सकता है।

ऐतिहासिक कालछन्दों में झांकने के बाद कुछ अन्य तथ्यों की ओर हम अपने शुभी जनों को जोड़ना चाहेंगे।

वर्ष 1906 में जब महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय ने यहां अखिल भारतीय धर्म महासभा का आयोजन किया। तब यहां के राजा ‘कुंवर नारायण सरजू प्रसाद सिंह बहादुर’ भी शामिल हुए थे और नासिक के तब के विद्वान मनीषी ज्ञानी पण्डित शंकर दा जी पदे शास्त्री भी शामिल हुए थे। उसी आयोजन के बाद ही ‘अखिल भारतीय आयुर्वेद महासम्मेलन’ की तब स्थापना वर्ष 1907 में नासिक में गोदावरी तट पर हुई थी। यह संस्था आज समूचे विश्व में स्थापित है वैद्यो की दमदार संस्था के चलते ही आयुर्वेद अब समूचे विश्व में पहुंच रहा है। और भारत सरकार का स्वतंत्र आयुष मंत्रालय भी बन चुका है, जिसे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की दूरदृष्टि के रूप में जाना चाहिए। क्योंकि दुनिया के अधिकांश मुल्कों में श्रीधूत पापेश्वर वैद्यनाथ और मुल्तानी सहित आर्य वैद्यशाला की पहचान भी बोल रही है।

पण्डित मदन मोहन मालवीय

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पिछले दिनों अखिल भारतीय आयुर्वेद चिकित्सा संस्थान की स्थापना भी राजधानी में हो चुकी हैं और उन्हीं के प्रयास से आयुष मंत्रालय अलग से स्थापित हो सका है। पूरी सजगता में पुरोधा वैद्यराज वृहस्पति देव त्रिगुणा और उनके पुत्र पद्म भूषण देवेन्द्र त्रिगुणा का योगदान आज भी स्वर्णिम अक्षरों में लिखा मिलता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

इलाहाबाद कुम्भ नगरी में सांस्कृतिक सद्भाव के साथ गीत-संगीत अध्यात्म वैज्ञानिक शोधार्थी सभी जुटेंगे और प्रकृति की अनुकम्पा के दृश्य देखेंगे। तब निश्चित ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में इस युग की नई कहानी प्रायोगिक धरातल पर ‘अनकही-अनसुनी’ के रुप में स्थापित हो सकेगी। आज की यात्रा यहीं तक...

(अगले अंक में फिर भेंट होगी खास ‘अनकही-अनसुनी’ के साथ)

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