इलाहाबाद कल आज और....अंधेर नगरी और बैद्यनाथ औषधिशाला का शहर

  • Hasnain
  • Monday | 5th March, 2018
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संक्षेप:

  • कभी इलाहाबाद  के द्वाबा क्षेत्र में होती थी जमकर गन्ने की पेराई
  • यहीं बना हुआ है बैद्यनाथ आयुर्वेदिक औषधियों  की निर्माणशाला
  • एम आर शेरवानी ने आपसी भाईचारा को बढ़ाने में दिया था अद्भुत योगदान

--वीरेन्द्र मिश्र

होली के हुड़दंग के बाद वैदिक शहर इलाहाबाद यानी आज का पुरातन पहचान से `हाईटेक` हो चला शहर अपनी गंगा-जमुनी तहजीब की विरासत की पहचान में सराबोर होकर कुछ इस तरह खिलना शुरू होता है कि यहां अनुभवों की गौरवशाली परम्पराएं भी खुलकर मुखर होने लगती हैं, जो साहित्य-समाज और सरोकार से भी अलग अपनी पहचान की मणियों में गूंथता चला जाता है। एक ओर यहां के बाशिन्दों की पहचान से जुड़े लाल अमरूद की मिठास धीरे-धीरे सिमट कर बोझिल होने लगती है, तो दूसरी ओर आम के बौर की भीनी-भीनी खुशबू में भौरों का भ्रमण और भुनगों की लरियाहट अपनी उड़ान भरने लगती हैं और उन बौरों से आम की टिकोलिया (अमिया) लच्छे-घूर के घूर निकल आते हैं, तो दूसरी ओर महुआ के फूलों की मादक गन्ध से गांव के गांव महक उठते हैं घरों में उबला महुआ की डोभरी, दही और दूध महुआ जहां बहती पीड़ा दायक हवा के झकोरों से मुक्ति दिलाता हैं, वहीं कुंआ पर चल रहे पुराने रहट से पानी निकालने की क्रिया-प्रक्रिया भी बदल जाती है। (अब तो जगह-जगह हैण्डपम्प और समर्सिबल ने स्थान बना लिये हैं।)

पहले कभी रहट से द्वाबा क्षेत्र में गन्ने की पेराई भी खुलकर होती थी, तब रहट से शहनाई की सी मधुर संगीत गूंजती थी। गन्ना के रस से गांव-गांव गुड़ की मिठास की खुशबू से भी तब लबरेज़ हो जाता है, जहां मीठी चीपी (गुड़वाली) और अमिया की खट मिट्ठी  चटनी लहसुन के साथ स्वाद को ही बदल देता है। महुआ के फूलों से बने फल `गोही` के लच्छे के लच्छे लुभाने की शुरुआत भी हो जाती है, जो उन महुआ की गन्ध से भी कई गुणा स्वाद सेहत के अनुरूप भाजी-तरकारी की पहचान को जन्म दे देती है।

यही नहीं अमरूद की लालिमा का रुप-स्वरुप कम हो चला है। धीरे-धीरे यहां नई फसल के रुप में जगह-जगह `केले` की हरीतिमा की खेती ने अपनी पहचान के झाबे भरने आरम्भ कर दिये हैं। खूब पैदावार होती है `केला` की इलाहाबाद द्वाबा क्षेत्र के किसानों की सूझ-बूझ की जयकार अवश्य की जानी चाहिए।

गांव के गांव की धुन ही बदल जाती है। वहां के राग अनुराग अग्नि आराधना (होलिका दहन सेंक) के बाद एक बार फिर अग्नि पूजन की तैयारी कर लेता है और `नववर्ष चैत्र` यानी `नव सम्वत्सर` की आराधना से सजने-संवरने लगता है। अष्टमी का दिन करीब आता है, तो इलाहाबाद शहर की रंगत में `महामाई रानी महादेव राजा` का भाव जाग जाता है और जो बाहुपाश से पिण्ड छुड़ाकर यहां के मुहल्लों में जो चन्दा मांगने की परम्परा थी वह विलुप्त हो चली है और गीतों में सबकुछ `बेच-बाच खाय गयें खाजा` का कथानक बन जाता है, जो गंगा के किनारे झूंसी उल्टा किला के रूप में आज भी है, वहां के राजा की परिकल्पना बोलती है यानी `अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा` का राग छिड़ जाता है। शायद यह मौसम ही इसी कथानक का सा बन जाता है।

यहां की धरती ऐसी की यही साहित्यकारों की सृजनशीलता भी खुलकर मुखर होने लगती है, जहां कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के `हीरा-मोती` और `बड़े भाई साहब` की कहानी की भावनाएं उभर कर बोलने लगती है, तो वहीं सूर्यकान्त त्रिपाठी `निराला` जी की कविताओं के बोल की छाप भी दिखने लगती है। `बुढ़िया तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर` और डॉ. धर्मवीर भारती का नाटक `अंधा युग` का कथानक भी उसी में समाया जान पड़ता है।

यहीं नहीं महादेवी की तमाम कविताओं का जन्म यहीं हुआ। होली के समय पर उनके पुत्र समान अपने राम जी पाण्डेय और उमाकान्त मालवीय के साथ लाल-गुलाल और अबीर लगाकर गुझिया पापड़ी के यादों का स्मृति मन भी मुखर हो उठता है, जिसे निश्चित ही आज यश मालवीय और श्लेष गौतम करारी कड़क पहचान से भिगोये रहते हैं और उसे आगे बढ़ा रहे हैं।

एक बात और गौर करने वाली है कि ये शहर ऐसा है, जहां से दुनिया भर को विगत् 150 वर्षों से आयुर्वेदिक औषधियों का भण्डार बनता और पहुंचता रहा है। यहां का नैनी क्षेत्र, जो `यमुना हाईटेक पुल` से पार का क्षेत्र आज बन चुका है। वहां गुलाब के फूलों की बहार की खुशबू ढेर के ढेर फूलों से राग छेड़ने को बरबस मन में मनुहार करती है, तो उन्हीं गुलाब की पंखुड़ियों की मिठास से `गुलकन्द` की तरावट देने वाली मिठास भी बरबस ही मन को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है।

नैनी क्षेत्र अपने टेलीफोन के पार्ट्स की कम्पनी के रूप में यादगार तो है ही इसके साथ ही `बैद्यनाथ आयुर्वेदिक औषधियों` की निर्माणशाला भी यहीं बना हुआ है। `बैद्यनाथ` की दवाओं और च्यवनप्राश के साथ `गुलकन्द` और अन्य औषधियों की निर्माण की प्रक्रिया को जानने समझने वाले कद्रदान दुनियाभर से पहुंचते रहते हैं।

`राम अवसार शर्मा` जी बीते वर्षों तक इलाहाबाद की पहचान के सिरमौर रहे है, जिन्हें राष्ट्रपति सम्मान के साथ और भी कई सम्मान मिल चुके हैं। उनके तीनों पुत्रों और उनके बाद की पीढ़ी ने कई नये मुकाम तय किये हैं। पूरा शहर औद्योगिक प्रतिष्ठानों में उन्होंने आयुर्वेदिक प्रतिष्ठान, ऐसा बनाया कि वह आज की विश्व प्रसिद्ध बना हुआ है।

पं. राम अवतार शर्मा जी के पुत्र अजय शर्मा और पौत्र ऋषि शर्मा तक कई मानदण्डों को स्थापित कर चुके है। इलाहाबाद पहुंचकर `बैद्यनाथ आयुर्वेद` को न देखा, तो कुछ भी नहीं देखा। उनका बगीचा `सहजन` (ड्रमस्टिक) तमाम औषधियों का मूल भण्डार है, जिसकी निर्माणशाला असाध्य बीमारियों की अद्भुत औषधियां, चाहे `हृदय रोग` हो अथवा `श्वास रोग` या फिर `कैंसर रोधक` औषधियां क्या निर्माण नहीं होता है। यहां सबकुछ शास्त्रीय होकर भी आधुनिकतम् तकनीक की पहचान से जुड़ा हुआ है। अजय शर्मा ने उन सभी औषधियों के व्यापार विनिमय के कई आयामों को पार कर अपनी पहचान को आगे बढ़ाया है। आज बैद्यनाथ आयुर्वेदिक संस्था विश्व प्रसिद्ध है।

इलाहाबाद शहर की पहचान से एम आर शेरवानी जैसे उद्योगपति की पहचान भी जुड़ी रही है, जिन्होंने आपसी भाईचारा को बढ़ाने में अद्भुत योगदान दिया। उनके बाद की पीढ़ियों में `सलीम शेरवानी` केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री भी बने और उन्होंने आयुर्वेद के विकास के कई मानदण्ड स्थापित कर डाले। उनकी पहचान थी बोलो `जी`और उसमें जोड़ो `प` यानी `जीप` जीप टार्च से रोशनी देने की। जीप बैटरी बनाने की फैक्ट्री के रूप इस खानदान ने भी देश-दुनिया में नई पहचान दर्ज कराई। किन्तु आज कुछ भी नहीं है। सिर्फ भूली-बिसरी यादें हैं और जीप टार्च से जुड़ी पुरानी जगहें!! बस! कचोटती हैं।

इलाहाबाद की मिट्टी से जुड़े अथवा वहां की पहचान को अपना बनाने वालों में दिलीप कुमार जैसे ट्रेजेडी किंग जनाब फैज अहमद फैज, जनाब रघुपति सहाय, फिराख गोरखपुरी जैसे महान शायर और संजय खान-अकबर खान जैसे फिल्म अभिनेताओं का नाम भी यहां उनके परिवार से जुड़ा रहा है।

अमिताभ बच्चन ने जब इलाहाबाद से चुनाव जीत कर अपनी पहचान को एकबार फिर नये अंदाज में इलाहाबाद नाम स्थापित किया था, तो पूरे शहर की रंगत भी तब बदल गई थी। फिल्म अभिनेताओं की चाहत ने तब  पहचान को नये पंख लगा दिये थे।

किन्तु पिछले दिनों जब `ऐश्वर्या राय बच्चन` और `अभिषेक बच्चन` संगम किनारे अस्थि विसर्जन-पिण्डदान के लिए पहुंचे, तो उनकी भूल ने विवाद को जन्म दे दिया था। वह वाराणसी पहुंचकर वहां तीर्थ पुरोहित (पण्डा) को साथ लिवाकर पहुंचे थे, तो संगम किनारे के तीर्थ पुरोहितों ने जमकर उनके प्रति नाराजगी व्यक्त की थी और उनका विरोध भी खुलकर किया था।

परन्तु वक्त तो थमता नहीं, अपनी गति से गतिमान रहता है। जरूरत होती है, तो अनुभव को नई पीढ़ी के साथ उसे आत्मसात कर आगे बढ़ने की, जो नये सन्दर्भों को नई पहचान के साथ जोड़कर आगे बढ़ाती है। आज यही जरूरी है ताकि `हाईटेक` पेंग बढ़ाता शहर खुशहाली के साथ अपने पुरखों की धरती को उनकी स्मृतियों के साथ आगे बढ़ाता चलें और यहां की प्राकृतिक सौम्यता में गंगा-जमुनी पहचान को आध्यात्मिक और अनुष्ठानों से जोड़कर आगे बढ़ाता रहे, तो निश्चित ही भविष्य की डगर भी आसान होती रहेगी।

(आज की यात्रा यहीं तक। अगले अंक में फिर भेंट होगी, आपकी खासमखास `अनकही-अनसुनी` के साथ। तब तक इन्तजार कीजिए।)

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