इलाहाबाद कल आज और....'झूंसी' नगरी भी रही थी 'उर्वशी-पुरुरवा' की प्रेम नगरी

  • Hasnain
  • Monday | 19th March, 2018
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संक्षेप:

  • यह धरती चन्द्रवंशीय राजाओं की धरती भी रही है
  • `उर्वशी` को प्रेम हुआ था, यहां के राजकुमार `पुरुरवा` से
  • सत्यजीत रे ने भी एक फिल्म बनाने की बनाई थी योजना

--वीरेन्द्र मिश्र

आज हम बात करेंगे। इलाहाबाद शहर में त्रिवेणी संगम तट के ऊंचे टीले पर पूरब दिशा में बसे प्रतिष्ठानपुर झूंसी नगरी की। जहां न जाने कितने ही यज्ञ हजारों-हजार साल में हुए, कोई नहीं जानता होगा। यही नहीं ये पूरा क्षेत्र, `चन्द्रमा` जैसे श्रेष्ठ ग्रह का क्षेत्र भी माना जाता रहा है। यहीं उसके पुत्र `बुध` का `इला` से विवाह हुआ और उन्हें `पुरुरवा` जैसा पराक्रमी सुन्दर पुत्र हुआ, जो बाद में यहां का प्रतापी राजा भी बना। यानी यह धरती चन्द्रवंशीय राजाओं की धरती भी रही है। आइये यहां के कथानक पर और वैदिक गाथाओं में झांके और जाने इस धरती के मर्म को और डुबकी लगाकर प्रेम-प्रसंग में भी विचरण करें।

वैदिक कथा कहानी से स्वयं को जोड़े और जाने कि वक्त के साथ इस धरती पर स्वर्ग की श्रेष्ठ अप्सरा `उर्वशी`, जो न किसी की बेटी थी, न बहन और न ही किसी की मां थी। किन्तु वह प्रेमिका बनी इसी प्रतिष्ठानपुर में। और उस सुन्दर लावण्यमयी `उर्वशी` को प्रेम हुआ था, यहां के राजकुमार `पुरुरवा` से। कथानक में उसको यहीं दो पुत्रों की बाद में प्राप्ति भी हुई थी।

आइये उस पावन और नसर्गिक रमणीक क्षेत्र के कथानक से जुड़ी अनकही-अनसुनी बातों पर चर्चा करें। और जाने कि क्या कुछ जुड़ा नहीं था इस धरती की पहचान के साथ।

आज तो सर्वत्र `डिजिटल भारत` के युग ने तरक्की के नये पायदान पर कदम बढ़ाये है, अब आमजन भारत के नागरिक के रूप में संविधान की इकाई के रूप में स्वयं को पोषित हुआ अनुभव कर रहा है। न कोई छोटा है और न कोई बड़ा, विकास के मार्ग पर मिलजुल कर सभी आगे बढ़ रहे हैं। आज व्यक्ति-व्यक्ति कैमरामैन, रिपोर्टर, सम्पादक-प्रस्तोता समय के साथ बनकर एक नई पहचान से भी जुड़ता जा रहा है। इस त्रिवेणी तट पर हाईटेक हो रही पीढ़ियां भी अपने जीवन में नवीन अंकुर पोषित कर रहे हैं। और हाईटेक होकर नये संदर्भों और सोपान से जुड़ रहे हैं।

इलाहाबाद ऐसा शहर। जहां की चर्चा में चारों वेदों के मंत्रों (ऋचाओं) में भी आई है। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अर्थववेद में गंगा-यमुना के संगम में `कुम्भ स्नान` के महत्व का वर्णन समाहित है। यही नहीं रामायण, महाभारत, पौराणिक ग्रन्थों में भी इलाहाबाद यानी पुरातन प्रयाग (पयाग) के नाम से स्थापित और चर्चित रहा है, जो समय देश काल अनुरूप ऋषियों, देवताओं और छन्द रुपी आम जनों के जीवन का अविभाज्य अंग बनकर स्थापित रहा है। आज यहां संगम किनारे के टीलों की ढह चुकी `राज प्रसादों` की ईटों से ही उनकी कहानी आप पता चलती है।

त्रिवेणी संगम तट पर स्थित यहां के `प्रतिष्ठिान पुर `झूंसी` की बात हो अथवा अलर्क पुरी (अरैल) की चर्चा किस युग की कहानी का वर्णन किया जाये। मान्यतानुसार तो यहीं इसी क्षेत्र में संगम किनारे प्राचीनतम् सोमेश्वर महादेव का जो मन्दिर है, वह एकदम गंगा तट पर तो है ही और उसके कथानक में `चन्द्रमा` को जब क्षयरोग (तपेदिक) की बीमारी हुई, तो उस रोग से मुक्ति के लिए भगवान शिव की उसने यही अराधना की और बताते हैं, अपने रोगमुक्ति के लिए `गंगाजल` से सोमेश्वर महादेव का जलाभिषेक कर अपनी पूर्व शक्ति का अर्जन करने में उसने कामयाबी भी हासिल की थी। यहां का वर्णन पौराणिक ग्रन्थों में भी मिलता है। अनेक कहानियां-कथानक भरे पड़े हैं, जिनकी हम `अनकही-अनसुनी` चर्चा समय-समय पर करते रहेंगे।

वक्त बदला। न जाने कितने युग बीत गये। यहां की धरती `प्रतिष्ठानपुर`! (झूंसी) में जहां चन्द्रमा के पुत्र `बुद्ध` ने यहां राज किया। ऋग्वेद कथानक अनुसार बुध पुत्र (चन्द्रमा पौत्र) `पुरुरवा` का देवलोक की `उर्वशी` अप्सरा के सम्मोहन से प्रेम हुआ। यानी `पुरुरवा` और `उर्वशी` के प्रेम संसर्ग ऐसा हुआ कि उसके बिना वह वन-वन प्यासे, हिरन की तरह भटकता रहा। मिलन हुआ उनका तो विरह वेदना भी संताप बनकर फूटी थी। और शर्त अनुसार अलग होने का कथानक भी यहीं इसी `प्रतिष्ठानपुर` की धरती में ही हुआ था। जहां उसके ठीक सामने `छतनाग` क्षेत्र है, जो आज भी अवस्थित है।

प्रतिष्ठानपुर। वैदिक काल की धरती, जो तीर्थराज (पयाग) प्रयाग की धरती भी है। इसे आज झूंसी क्षेत्र के रुप में जाना जाता है। गाथा अनुसार ये धरती `पुरुरवा` की अपनी धरती भी है, वह यहां का बड़ा ही प्रतापी सम्राट था। जिसको इन्द्र की अप्सरा `उर्वशा` ने भी वरण कर लिया था और उसे पुरुरवा से प्रेम हो गया था। भरतमुनी जिन्होंने `नाट्यशास्त्र` की रचना की है। उन्होंने `उर्वशी` को तब शाप दे दिया था, क्योंकि उस काल में उसने एक नृत्य आयोजन में (शास्त्रीय नृत्य) भावना का पालन नहीं किया था। वास्तव में उर्वशी धर्म के विरुद्ध मोहपाश में जकड़ गई थी और वह पुरुरवा के प्रेम पाश में तब विहवल थी। त्रिवेणी संगम के पास का ही वो झूंसी क्षेत्र रहा था। जहां कालान्तर में विषम परिस्थितियों में कुछ ऐसी स्थितियां उभरी कि शाप वश इस आध्यात्मिक क्षेत्र में `उर्वशी और पुरुरवा` का गहरा विक्षोभ भी हुआ। परन्तु देानों की आपसी साधना तब-बल सच्ची भक्ति भावना ने पति-पत्नि बनने का अवसर भी दे दिया था, परन्तु काल को वह मंजूर नहीं था। लिहाजा दोनों को संताप झेलना पड़ा और दोनों जुदा हो गये थे।

किन्तु समय के चलते वर्ष में एक बार उन्हें मिलने का वरदान (इन्द्र द्वारा) भी मिला। जिसके चलते पूरे वर्ष भर पुरुरवा, वन-वन जरूर भटकता रहा। वर्षा की बूंदों के बीच भी वह अपनी `उर्वशी` के पदचाप का अनुभव करता रहा। यह बात अवश्य दर्ज हो गई कि गंगा-यमुना के किनारे की आध्यात्मिक नगरी `झूंसी` का कथानक भी तब बदल गया था। इसे `उर्वशी-पुरुरवा` की `प्रेम नगरी` के रूप में भी तब जाना जाने लगा था।

गंगा की उच्छृंखल धारा की कलकल ध्वनि में उसे अपनी उर्वशी की हंसी का राग सुनाई पड़ता था। यह बात भी स्पष्ट रूप में मानी जा सकती है कि गंगा-यमुना का यह क्षेत्र नैसर्गिक जीवन के बन्धनों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देने वाला भी रहा हैं। क्योंकि युगों-युगों से इस धरती पर यज्ञ भी होते रहे हैं। आज भी होते ही रहते हैं।

चन्द्रमा पुत्र बुध का विवाह इला से यहीं प्रतिष्ठानपुर (झूंसी क्षेत्र) में हुआ था, जिसकी आज `इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना` नाड़ी के रुप में की तंत्र साधकों की यौगिक धरती के रूप में पहचान भी है। न जाने कितने यज्ञ हुए है यहां के टीले में, तभी तो आज भी जहां-तहां यज्ञ की राख मिट्टी में जौं की छवि भी मिलती रहती है। वास्वत में पुरुरवा बड़ा ही प्रतापी तपस्वी राजा बना था, जिसने स्वर्ग के गन्धर्वों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी। तभी तो प्रतिष्ठानपुर (झूंसी) का क्षेत्र उसके अधीनस्थ हो गया था।

इसी प्रतिष्ठानपुर के बारे में लिंगपुराणों में वर्णन है कि इला के पुत्र पुरुरवा ने यमुना नदी के किनारे प्रयाग के प्रतिष्ठानपुर में वर्षों राज किया था। जहां उसको `आयु` `नहुष` और `ययाति` जैसे पुत्रों की प्राप्ति भी हुई थी।

लगभग 3000 वर्ष पूर्व महाकवि कालिदास ने अपने श्रेष्ठ नाटक `विक्रमोर्यशीय` में इसी प्रतिष्ठानपुर (झूंसी) के राजा `पुरुरवा` को अपना नायक बनाया था। माना जाता है कि अल्मोड़ा के जोशी वंशीय राजा तथा रींवा के बेन वंशीय और प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजाओं के पुरखों की भी यह झूंसी ही धरती रही है।

योगियों के लिए यौगिक भूमि और तांत्रिकों के तंत्र साधना की भी ये `झूंसी` धरती है। पराक्रमी राजाओं की शक्ति का क्षेत्र, अध्यात्म जीवियों की यज्ञ भूमि और चन्द्रवंशीय राजाओं की अपनी धरती तथा प्रेम प्रसंग वाले संगम क्षेत्र की ये भूमि प्रतिष्ठानपुर। वैदिक वांगमय में भी खूब चर्चित रही है। इस स्थान का वर्णन वैदिक कथानकों में तो मिलता है, साथ ही पौराणिक गाथाओं से भी ये भरा-पूरा है, जो महाभारत में भी समाहित है। रामायण के बाद महाभारत में यहां के राजा-ययाति और नहुष का वर्णन मिलता है। और-तो-और `नवग्रह` में से श्रेष्ठ ग्रहों में चन्द्रमा और चन्द्रमा के पुत्र `बुध` जिसके तप बल के चलते ही उसे भी `ग्रह` के रुप में नवग्रह के बीच स्थान मिला। उनका त्रिवेणी तट के किनारे प्रतिष्ठानपुर से सीधा जुड़ाव रहा है। यानी ग्रह शान्ति का विपुल क्षेत्र भी है यह `झूंसी नगरी`

झूंसी की धरती की पहचान `तंत्र साधकों` के साथ भी जुड़कर स्थापित रही है। तभी तो जहांगीर काल में इसके दूसरे छोर यानी बांध के करीब नागवासुकी से लगा मोहल्ला दारागंज तंत्र साधको की साधना स्थली के रूप में भी रही है, जिनकी पहचान वाराणसी के तंत्र विज्ञानी गोपीनाथ कविराज के समकक्ष भी मानी जाती थी। अद्भुत तंत्र साधना के धनी मनीषियों - पं. शिवनाथ काटजू, पं. जयदेव मिश्र और पं. देवी दत्त शुक्ल तीनों की चर्चा सिद्ध योगी और तंत्र साधक के रुप में ख्याति रही है।

वो पीढ़ियां तो अब नहीं रही हालांकि पं. जयदेव मिश्र के पुत्र माधवकान्त मिश्र भी तंत्र साधक के रुप में स्थापित हुए और आज `मार्तण्ड पुरी` के नाम से विश्व पटल पर अपनी पहचान बनाये हुए है। और बेलारूस  में यौगिक साधना स्थली का निर्माण भी कर रहे हैं।

झूंसी प्रतिष्ठानपुर से जुड़े तंत्र साधकों में `पं. रमेश त्रिपाठी तांत्रिक` ने भी कई कालखण्डों पर अपनी पहचान बनाई है। `रमेश जी` स्वयं योगी है और पूरे शहर में `रमेश तांत्रिक` के नाम की प्रतिष्ठा है, जो तमाम विषम परिस्थितियों की समस्याओं का समाधान अपनी `अष्टांग योग साधना` से फलीभूत कराते हैं। वास्तव में  `कुण्डलिनी जागरण` और `चक्र` बन्ध में उनका नाम शुमार है। उनके नाम की प्रतिष्ठा तो शहर में है ही, किन्तु माघ मेला क्षेत्र हो अथवा कुम्भ मेला काल वहां उनकी पहचान खुलकर बोलती है, जहां देश-विदेश के अनेकों भक्तों का तांता उनसे मिलने के लिए लगा रहता है। दरअसल यह नियमित तंत्र साधना में डूबे रहते हैं।

वास्तव में पूरा झूंसी क्षेत्र अपनी पहचान अनुरूप आज भी वैदिक उपख्यानों के अलावा तंत्र साधना को आगे बढ़ाने वालो में `रमेश जी` श्रेष्ठ स्थान पर स्थापित है। जिनका निवास के पी कॉलेज और सी.एम.पी. डिग्री कॉलेज के मध्य जॉर्ज टाउन में है। वहां उनके निवास पर भी प्रतिष्ठानपुर की कुण्डलिनी ज्ञान चक्र की कुटिया, यज्ञ स्थली मशहूर है और स्थापित भी है।

यहां यह बात भी गौर करने वाली है कि `उर्वशी` और `पुरुरवा` के प्रेम प्रसंग पर झूंसी क्षेत्र के आठवें दशक में विश्व प्रसिद्ध फिल्मकार नोबल पुरस्कार विजेता डॉ. सत्यजीत रे ने भी फिल्म बनाने की एक योजना बनाई थी, `तपन बोस` ने तब काफी शोध किया था। किन्तु वह पूरा नहीं हो सका था। बाद में `अमृत कुम्भ र संघाने` नाम से बांग्ला भाषा में एक फिल्म का निर्माण कार्य पूरा किया गया था। उसकी अधिकांश शूटिंग  तब झूंसी नगरी क्षेत्र में ही पूरी हुई थी।

कहते है समय ठहरता नहीं। हवा के झोंकों की गति से भी आगे बढ़ता ही जाता है। 

आज कथानक तो है, `अनकही-अनसुनी` बातें भी हैं, किन्तु समय ने उनको धूल-धूसरित कर दिया है, क्योंकि यह बात बड़े ही करीने से कही जा सकती है कि आज यह क्षेत्र बौद्धिक सम्पदा का अब पर्याय सा बनता जा रहा है। `गोविन्द बल्लभ पन्त सोशल साइंस इंस्टीट्यूट` सहित अनेक संस्थान यहां प्रगति के पथ पर है, जिनके विद्यार्थियों की पहचान दूर देशों तक पहुंच चुकी है। और अब तो शहर से `शास्त्री पुल गंगा पार` झूंसी का ये क्षेत्र लोक लुभावन ज्ञानार्जन के रूप में विकसित होता जा रहा है।

आज की `अनकही-अनसुनी` यहीं तक अगले अंक में फिर भेंट होगी। तब तक के लिए इन्तजार कीजिए।

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