इलाहाबाद कल आज और...ऐतिहासिक है मानसरोवर चौराहा

  • Abhijit
  • Monday | 11th September, 2017
  • local
संक्षेप:

  • मानसरोवर चौराहा है सामाजिक लाग लपेट की पहचान स्थली
  • शशि कपूर की फिल्म `फकीरा` ने बदल दी एक शख्स की जिंदगी
  • जनेश्वर मिश्र और मदन लाल खुराना के भाषणों की थी गूंज

-वीरेन्द्र मिश्र

वैदिक सिटी इलाहाबाद का मानसरोवर चौराहा। राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक लाग लपेट की पहचान स्थली तो है ही, यह भारत छोड़ो आन्दोलनकारियों अथवा बाद के सभाकारों की प्राणस्थली भी रही है, क्योंकि चारों ओर घूम-घूम कर सम्बोधन और हो रहे घटनाक्रमों का स्पष्ट दीदार भी यह कराती है। पश्चिम में जीरो रोड, तो उत्तर में मोहसिमगंज दक्षिण बहादुर गंज चौराहा और पूरब में चन्द्रलोक हिन्दी साहित्य सम्मेलन या फिर आगे ईदगाह तक यह पहुंच बना लेता है।

यहां की पहचान से राजागुरू विश्वम्भर वाले दस गुना काम करवाने वाले की पहचान रही है, तो चौराहे पर मोटर पार्ट्स के साथ राजा भइया और सामने यूनाइटेड मोटर्स वाले जगदीश गुलाटी और राजाराम चन्द्रलोक वाले के नाम की पहचान भी बनी रही है।

राजा भइया सांस्कृतिक वैभव से जनमानस को जोड़ने वाले सामाजिक उत्थान में जुटे व्यवसायी रहे है, जिनके बगल की गली हाईकोर्ट के. माथुर साहब और आगे बाबू सेहत बहादुर के घर को मिला देती है। राजा भइया हर साल होली के अवसर पर इलाहाबादियों को मानसरोवर चौराहे से जोड़ देने का काम करते थे। कभी `शंकर-शम्भू` कव्वाल आये, जिनकी कव्वाली की धूम और तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा समां बांध देती थी। जब हरिहरन पहुंचे, तो अपने भजनों से मन भज ले हरि का प्यारा नाम है करवा देते और कभी `नदी नारे न जायो श्याम पइयां पड़ी... की नौटंकी गायिका गुलाबो यानि गुलाब बाई की स्वर लहरी बहती। कुल मिलाकर सांस्कृतिक पहचान ऐसी कि पूरा इलाहाबाद शहर सिमट सा आता और त्यौहार हंसी-खुशी के साथ गले मिलने वालों का कारवां बन जाता। हिन्दू-मुसलमान एक साथ एक मंच पर सवार होते। अद्भुत दृश्य होता था।

बात उन दिनों की है, यही कोई 1977-78 की जब शशि कपूर की फिल्म `फकीरा` प्रदर्शित हुई, तो उसके मुफ्त टिकट इलाहाबाद के अधिकांश जनों तक पहुंचे थे। वास्तव में वह फिल्म `राजाराम जायसवाल` ने बनवाई थी और उसके वही प्रोड्यूसर भी थे।

उसके पहले तो राजाराम का नाम बदनाम सा था, किन्तु समय ने ऐसी करवट बदली कि राजाराम जायसवाल ने उसी काल में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ठीक सामने `चन्द्रलोक` सिनेमा हॉल बनवा दिया। आज भी है। एक ओर साहित्य सृजन की देशव्यापी विशालता है, जिसे महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी ने स्थापित करवाया, तो दूसरी ओर सिनेमा घर। कैसी अजीब विडम्बना है, लाख कोशिशों के बावजूद चन्द्रलोक को हिन्दी साहित्य सम्मेलन न हटवा सका और न ही बन्द करवा सका। वास्तव में अर्थ सत्ता हमेशा से भारी रही है, हालांकि अब मोड़ आने की शुरूआत हुई है।

वर्ष 1910 में आधुनिक भारत निर्माता महामना पं. मदन मोहन मालवीय (भारत रत्न) ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अपने अध्यक्षता में स्थापना करवाई और हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए अपने मित्र - राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन को उसकी बागडोर सौंपी। केरल से लेकर कन्याकुमारी तक पूर्वोत्तर राज्यों से कच्छ तक हिन्दी भाषा का ज्ञान बढ़ा और आज प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से विश्व पटल पर भी हिन्दी भाषा मुखर हो रही है।

एक सवाल है यही चन्द्रलोक सिनेमा के ठीक सामने पेट्रोल पम्प के सीधे एक विशाल मूर्ति खड़ी है। शायद कोई नहीं जानता होगा कि वास्तव में `हाईटेक` युग की इस विशाल पीढ़ी को जानना होगा कि यह भारत रत्न राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन की मूर्ति है, जिन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन माध्यम से हिन्दी भाषा का उत्थान किया और उसकी बागडोर आज विभूति नारायण मिश्र के हाथों में है।

हम बात कर रहे थे - मानसरोवर चौराहे की। यह चौराहा ऐतिहासिक है, भारत की आजादी की लड़ाई के लिए ऐतिहासिक माना जायेगा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दो पुरा छात्रों जनेश्वर मिश्र और मदन लाल खुराना के आपसी भाषण बाजी के लिए भी, जिन्होंने विश्वविद्यालय के चुनाव में धूम मचा दी थी। यह चौराहा याद किया जाता रहेगा।

आज यह चौराहा बस अतीत की पहचान को संजाये बचा है। किसी को नहीं मालूम इस चौराहे ने इलाहाबाद शहर की कितनी ही यात्राओं का गवाह रहा है। राजा गुरू से लेकर राजा भइया और राजाराम तक यही नहीं डॉ. प्रभात शास्त्री और श्रीधर शास्त्री के आपसी ज्ञान स्पर्धा की पहचान को भी आगे बढ़ाता रहा है। जब अमिताभ बच्चन और हेमवती नन्दन बहुगुणा इलाहाबाद आम चुनाव में आमने-सामने थे, तो यह चौराहा उनके भाषणों के लिए याद किया जाता था।

आज ये पीढ़ी को अपने ज्ञान गूगल साधना से शोध एकांश को बढ़ाकर नई पहचान जोड़नी होगी। आगे बढ़िये डांट का पुल और पुल के किनारे ईदगाह है, जहां सामूहिक नमाज पढ़ी जाती है।

अब न तो कोठापार्चा की दरकार है और ना ही रामबाग की। जबकि इन सबका सौन्दर्यबोध बढ़ाने की जरूरत है। देखिये कैसे निखर कर इन क्षेत्रों के कालखण्ड बोलते हैं। रामबाग का `पत्थर चट्टी` क्षेत्र जहां कभी पत्थर चटा घास की भरमार होती थी।

वहां आज हनुमान मन्दिर की पावनता है और पत्थर चट्टी रामलीला कमेटी की सामूहिक चेतना प्रभाव दशहरा के समय बढ़ जाता है, क्योंकि आधुनिकतम तकनीक से यहां की रामलीला दूर-दूर से देखने आते रहे है और यहीं के राम-सीता की सवारी भी दशहरा पर हर रात निकलती रही है, जिसे जड़ियन टोला के कलाकार हर बार नई पहचान दे देते है।

यहां के बेसन के लड्डू के स्वाद प्रसाद के रूप में बार-बार याद दिलाते हैं। भले ही इलाहाबाद शहर हाईटेक शहर के रूप में स्थान बना रहा हो, यहां धक्कम रेल, शोर-गुल, भीड़-भाड़, मोटर-गाड़ी ने पूरे क्षेत्र की पहचान को खत्म कर दिया है। अब जरूरी है इसकी पहचान को सहेजने की देखिये क्या होता है?

(अगले अंक में आप पढ़ेंगे हाईटेक शहर इलाहाबाद के एक क्षेत्र की कहानी, इन्तज़ार कीजिए।)
-वीरेन्द्र मिश्र

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