इलाहाबाद कल आज और...नखास कोना और 'संस्कृत भाषा' का ज्ञानी परिवार

  • Hasnain
  • Monday | 12th February, 2018
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संक्षेप:

  • अब खत्म हो चुका है नखास कोना क्षेत्र का घोड़ा-तांगा अस्तबल
  • जब दारा शिकोह प्रयाग पहुंचा तो स्वभाव और पहचान से लिखी नई कहानी
  • फैज अहमद फैज ने गंगा में प्रणाम करते हुए डाले थे सिक्के

--वीरेन्द्र मिश्र

पूरब-दक्षिण उत्तर और अब पश्चिमी शहर इलाहाबाद यानी प्रयागराज की पहचान से रूबरू होने के लिए न जाने कितनी ही `अनकही-अनसुनी` कथानकों से स्वयं को जोड़कर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना होगा। जिसमें ओढ़न-बिछावन यानी रजाई-गद्दा के बाद मुखौटों, पुरातन राजा महाराजाओं के साथ मुगलिया सल्तनत से जुड़े बनावटी वस्त्र-आभूषण जो चाहिए यहां वह तो मिलेगा ही, इत्र, सुगन्धित तेल, फुलेल, भोपा, बैण्ड-बाजा बाराती से जुड़े दूल्हे राजा का `मोर` और दूल्हन की `मौरी` सभी मिलेगा। बस आपको चौक से पश्चिम दिशा की ओर बढ़ना होगा।

प्रयागराज

चौक कोतवाली से आगे बढ़ते ही पत्थर गल्ली की कहानी, जो आज व्यापारिक प्रतिष्ठानों के मुखिया जनों की पुरानी हवेलियों से जुड़ी है, तो `गढ़ी सराय` जो लाल डिग्गी और `मीर गंज` के करीब होने से निम्न कोटि के देहव्यापार क्षेत्र (तालाब का किनारा) और नखास कोना, जहां से आप सीधे `कच्छ पुरवा स्टेशन` यानी आधुनिकतम पहचान से जुड़े रेलवे स्टेशन की ओर बढ़कर अपने गन्तव्य क्षेत्र की गाड़ियां पकड़ सकते हैं। नखास कोना क्षेत्र का घोड़ा-तांगा अस्तबल अब खत्म हो चुका है। यहां से स्टेशन तक के दो कोने के क्षेत्र में डफरिन अस्पताल बना हुआ है। इलाहाबाद शहर का ये सबसे पुराना और पहला सरकारी अस्पताल है, जहां आज अधिकांशत: `जच्चा-बच्चा` की सेवा श्रेयस से जुड़ा अस्पताल है। इसका ये अर्थ कतई नहीं है कि अन्य व्यवस्थाएं और सुख सुविधाएं यहां नहीं हैं। है सबकुछ किन्तु पुरातन व्यवस्था से जुड़ी अनुकृतियां ही देखने को मिलेगी। और आपको आवश्यकता पड़ने पर जूझना पड़ेगा। जान पड़ता है प्रशासन इस अस्पताल से विमुख होता जा रहा है।

दारा शिकोह

एक महत्वपूर्ण बात ये है कि ये क्षेत्र ज्ञान से जुड़ी देववाणी यानी संस्कृत भाषा के ज्ञानी जनों की पहचान से भी जुड़ा रहा है, जिसकी आधार शिला पुरातन में भले ही वैदिक ज्ञानियों की व्यवस्था का पर्याय रही हों, किन्तु मुगलिया सल्तनत के वंशजों में जब दारा शिकोह प्रयाग पहुंचा, तो उसके स्वभाव और पहचान ने यहां नई कहानी लिख दी, जिसके तहत वह संस्कृति भाषा का ज्ञानी और पारखी विद्वान था, तो उसने इस क्षेत्र में मंत्रोच्चार की अनुगूँज भी करवाई थी। कई परिवार यहां संस्कृत भाषा के ज्ञानियों के थे, किन्तु यह मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र है। दारा शिकोह के नाम से गंगा तट-कड़ा धाम के पास `दारानगर` बस गया, जहां सन्त मलूकदास जैसे युगीन सन्त की जन्म और विश्राम स्थली है यानी `अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये, सबके दाता राम` सहित न जाने कितने ही वाक्यांश गूंजते रहे हैं। दारा शिकोह ने गंगा के किनारे अपनी बड़ी मस्जिद तो बनवाई ही उसने `दारागंज` भी बसवा दिया जहां संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वानों और ज्ञानियों की मंथन-चिंतन स्थली भी बन गई। यह सब नाग वासुकी और टोडरमल के बनाये श्री गणेश मंदिर के बीच में है।

खुसरो बाग

इलाहाबाद का हाईटेक प्रयागराज शहर (पश्चिमी) पूरी तरह से मुगलिया सल्तनत की पहचान का दीदार करवाती है, जहां गुरुद्वारा बनने के बाद बाशिन्दगी में विशाल परिवर्तन आये।

फैज अहमद फैज

नखास कोना से आगे बढ़ने पर पश्चिमी दिशा में एक है `खुल्दाबाद` जो कभी एक सराय थी, तो दूसरा `खुसरो बाग` की चौहद्दी है। इस नखास कोना की भी अद्भुत कहानी रही है। अब तो चारों ओर दूकानों, दवाखानों की बहार है, जबकि बीते दिनों वर्षों पहले यहां ज्ञान का अद्भुत संगम था। जनाब जाहिद फाखरी और शाहिद फाखरी दो भाई, दोनों की अच्छी पहचान रही है। शाहिद तो पढ़-लिखकर राजनीति में सक्रिय हो गये, जबकि जाहिद फाखरी ने पढ़ाई-लिखाई के साथ हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के ज्ञान में अद्भुत योग्यता हासिल की वह आकाशवाणी में भी चयनित होकर पहुंच गये और परिवार कल्याण से जुड़े कार्यक्रमों की देखरेख में जुड़े रहे। न जाने कितने ही उर्दू मुशायरों की रिकॉर्डिंग उन्होंने की। फाखरी जी की व्यवस्था के तहत ही जनाब फैज अहमद फैज जब बेरूत से भारत आये, तो इलाहाबाद अपनी बचपन की बाशिंदगी के दिनों की याद ताजा करने के लिए यहां भी पहुंचे थे। फाखरी साहब ही थे, जो फैज अहमद फैज को संगम किनारे तक ले गये थें। और फैज अहमद फैज ने गंगा में प्रणाम करते हुए तब सिक्के डाले थे। वास्तव में फैज अहमद फैज तब (1978) नौशाद, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी और फिराक गोरखपुरी से मिलकर बेइंतहा खुश हुए थे। यही नहीं वह नखास कोना, खुल्दाबाद, शाहगंज की गलियों में घूमकर अपने इलाहाबाद में बिताये पुराने दिनों की याद ताजा कर रहे थे। तब वह बड़े मियां जी से भी मिलने गये थे।

नौशाद

फाखरी साहब की दो बेटियां गजाला और शाइस्ता भी पढ़-लिखकर अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुई। बड़ी बेटी गजाला पढ़-लिखकर उच्च अधिकारी बनी और आकाशवाणी में उद्घोषणा कार्यक्रम निर्माण करने का सिलसिला आरम्भ किया, तो यथावत जारी है। और शाइस्ता ने बचपन में संस्कृत भाषा का ज्ञान आरम्भ किया, तो प्रकाण्ड विद्वान बनकर आज संस्कृत भाषा की अच्छी ज्ञाता है।

कैफी आजमी

वक्त ने करवट बदली।

फाखरी साहब ने खुसरो बाग पर एक विशेष फीचर बनाने का निर्णय किया, जो शायद पहला प्रयोग था। `बोलते पत्थर की जुबानी` के रूप में खुसरो बाग के हर कोने को बखूबी कमेंट्री और बातचीत  के आधार पर तैयार किया गया था। इसकी रिकॉर्डिंग गजाला और मैंने स्वयं पूरी की थी। और पूरा प्रोडक्शन हम सबने मिलकर तैयार किया था, जो बेहद लोकप्रिय हुआ था।

साहिर लुधियानवी

अमीर खुसरो की जिन्दगी और उसकी आरामगाह (विश्रामस्थली) का चित्रण तब बखूबी उस समय किया गया था। सच! बादशाह जहांगीर का ये बेटा 1587 में पैदा हुआ। बड़ा होकर अपने पिता से बागी हो गया। अंतत: उसे यहीं इसी खुसरो बाग में ही पनाह मिली। पूरा क्षेत्र अपने बाग-बगीचों की हरियाली, चिड़ियों की चहचहाट के बीच मुगलिया सल्तनत काल की फारसी नक्काशी और चहार दीवारी की बनावट का बेजोड़ नमूना बनकर आज भी उस काल की याद दिलाता है। यहां पहले एक बावड़ी होती थी। एक बड़ा तालाब  भी था। जिसके बगल में दीवार चुनवा कर बाद में पटवा दिया गया। वास्तव में पुरातन में ये स्थान तालाबों और बावड़ी की पहचान से जुड़ा रमणीक क्षेत्र था। मान्यता है यह पुरातन काल के ऋषियों की साधना स्थली भी थी।

फिराक गोरखपुरी

आज यहां यमुना नदी के जल से शुद्ध पेयजल की व्यवस्था इलाहाबाद का जलकल विभाग करता है। उत्तरी दिशा के विशाल दरवाजे तो आज भी उस काल की याद दिलाते है, किन्तु दक्षिणी दिशा के दरवाजे टूट चुके है और उन पर भी लोगों का अपनी-अपनी तरह का कब्जा है। बादशाह जहांगीर ने यह बगीचा बनवाया था। यहीं एक तालाब गुरुद्वारा के पीछे था। अब खत्म हो चुका है - प्रयाग होटल की यहां स्टेशन के करीब अपनी पहचान रही है, तो यहां दूध-दही, मलाई, रबड़ी चौबीसों घण्टे उपलब्ध रहता है।

अमीर खुसरो

रामचन्द्र गुप्त जैसे ख्याति प्राप्त रंगकर्मी के पारिवारिक जनों की स्टेशन के बाहर लगभग सभी दूकानें हैं। खान-पान की उत्तम व्यवस्था यहां उपलब्ध रहती है। सब गुप्त बन्धनों की मेहरबानी से वर्षों से परिपूरित होता आ रहा है। महाराजा रीवा की कोठी भी आगे स्टेशन के करीब है। आइये वापस खुल्दाबाद की ओर चलते हैं और जानते हैं बहुत कुछ और... किन्तु अगले अंक में।

जहांगीर

(आज की `अनकही-अनसुनी` यहीं तक, अगले अंक में फिर भेंट होगी। तब तक के लिए इंतजार कीजिए अपनी खासमखास `अनकही-अनसुनी` के लिए।)

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