इलाहाबाद कल आज और...शहर उत्तरी गंगा किनारे रसूलाबाद में था ‘साहित्य संस्कारधानी’

  • Hasnain
  • Monday | 13th November, 2017
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संक्षेप:

  • राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने विदेशी वस्त्रों की जलाई थी होली
  • कड़ाधाम के पास के गांव में जिझोतिया ब्रह्म समाज भी कभी रहा करता था
  • कितने ही महान विभूतियों की अन्तिम क्रिया महाराजिन बुआ ही करवाती रही

 

 

--वीरेन्द्र मिश्र

इलाहाबाद शहर का उत्तरी क्षेत्र। गंगा का किनारा है, तो दक्षिणी क्षेत्र यमुना किनारे और पूरा दोआबा क्षेत्र निश्चित ही संगम पहचान से जुड़ा हुआ है। फतेहपुर और कालाकांकर की ओर से बहकर आती गंगा के किनारे के कथानकों की अपनी पहचान है, तो राजापुर से गोस्वामी तुलसीदास की जन्म स्थली की ओर से बहकर आती यमुना की अलग पहचान रही है।

गोस्वामी तुलसीदास

‘कड़ा शीतला धाम सिद्धपीठ’ गंगा तट पर है और वहीं ‘सन्त मलूक दास’ जैसे महान सन्त की मजार पावन पीठ भी है। ‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम। दास मलूका कह गये सबके दाता राम’ ये वही सन्त रहे हैं। जहांगीर शासन काल में, जिनके पास विरोधी दण्ड देने की नीयत से पहुंचा, तो उन्हीं का शिष्य बनकर वह सेवा करने लगा था। एक और कथानक ने भी जन्म लिया था। यहीं गंगा उस पार कुछ दूरी पर कालाकांकर है। जहां राष्ट्रपिता महात्मा  गांधी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी और गंगा तट पर वह जहां बैठते थे। वहां आज भी उस काल की याद दिलाता है। और महामना पं. मदन मोहन मालवीय ने राजा रामपाल की रियासत में पहला हिन्दी दैनिक ‘हिन्दुस्थान’ निकाला था। तब वह पत्र इलाहाबाद बैलगाड़ी से पहुंचता था।

सन्त मलूक दास

कड़ाधाम के पास के गांव में जिझोतिया ब्रह्म समाज भी कभी रहा करता था। जिन्होंने जबलपुर पहुंचकर रानी दुर्गावती के सेनानी बनकर आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व खूब लड़ाई लड़ी थी। आज उन्हीं की वंशजों में से एक महामहोपाध्याय रेवा प्रसाद द्विवेदी, जो रहते तो है बनारस में किन्तु अपने पुरखों की धरती की माटी का चन्दन-टीका जरूर लगाते रहते हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे रेवा प्रसाद को अभिनव कालीदास के रुप में आज जाना जाता है।

रानी दुर्गावती

अब यही देखिये न कैसी महान विभूतिया समय काल के साथ इलाहाबाद के संगम किनारे और आस-पास की माटी से जुड़ी रही हैं। आगे बढ़िये शहर उत्तरी गंगा तट पर द्रोपदी घाट से आगे बढ़ने के बाद रसूलाबाद घाट आज भी है, जिसकी  अपनी कहानी है। परन्तु एक बात और यहां जोड़ना चाहूंगा। राजापुर से आगे जो द्रोपदी घाट गंगा किनारे है। वहीं धोबी घाट भी है और उसके पास ही फिरोज गांधी ‘पारसी समुदाय’ के परिवार जनों की अन्तिम विराम स्थली भी है। फिरोज गांधी की वहीं अन्तिम क्रिया सम्पन्न हुई थी। वह स्थान आज भी वहां है।

फिरोज गांधी

रसूलाबाद घाट की बात के साथ यहां की अन्तिम क्रिया करवाने वाली ‘महाराजिन बुआ’ की चर्चा न हो तो सूना-सूना लगेगा, जिन्होंने अपने आरम्भिक दिनों 9 वर्ष की उम्र में श्मशान भूमि में अन्तिम क्रिया करवाने का सिलसिला जो आरम्भ किया, तो अपने जीहन के आठवे दशक तक उनकी सक्रियता बनी रही। न जाने कितने ही महान विभूतियों की अन्तिम क्रिया महाराजिन बुआ ही करवाती रही हैं। अब उनके वंशज करते है, किन्तु कोई महिला नहीं है।

महाराजिन बुआ

यहां इसी घाट पर महादेवी वर्मा ने अपने भाई सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के साथ ‘साहित्य संस्कारधानी’ की परिकल्पना को अन्जाम दिया था, जहां हर रविवार गर्मियों की शाम को अथवा जाड़े के दिनों में दोपहरी में काव्य संध्या गंगा किनारे होती। तब बताते हैं चांदनी रात में देर तक वहां साहित्य संस्कारधानी गुलजार रहती, जिसकी देखरेख स्वयं महादेवी जी तब कर रही होती थी। डॉ. राम कुमार वर्मा कवि हृदय होने के साथ एकाकी नाट्य सम्राट कहे जाते थे। उनकी कविता के बोल वहां फूटते और नाटक के संवादो की अनुगूंज गंगा की बहती धारा में विलीन होती सी जान पड़ा करती थी। यही ‘निराला’ की कविता के मर्म पर गहन चर्चायें होती थीं।

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

परन्तु आज कुछ भी नहीं है, सबकुछ गंगा में बहकर नई उमंगों की बस दरकार होती हैं। शायद कोई लेखक-कवि आज वहां जाता भी नहीं होगा। रसूलाबाद घाट पक्का ही नहीं है, बल्कि अन्तिम विराम स्थली आध्यात्मिक चेतना को अब जगा दिया है। ‘महाराजिन बुआ’ की अन्तिम क्रिया कराने के प्रयासों में महिला का यहां से लोप हो चुका है। ये घाट इलाहाबाद शहर की न जाने कितनी ही महान विभूतियों की अन्तिम यात्रा और विराम स्थली की गवाह बना रहा है। ये गंगा घाट अपने अतीत के साथ अब नई पहचान बना चुका है। यहां यह बात भी यादगार मानी जायेगी कि रोवर-रेन्जर काउन्सिल के सेवक यहां भी पहुंचे और 8वें दशक में तब पूरे रसूलाबाद घाट की सफाई का बीड़ा उठाकर उसे बैठने योग्य बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रख छोड़ा था। महादेवी जी ने और महाराजिन बुआ उन सबकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। घाटों की परम्परा में श्री केशरी नाथ त्रिपाठी जी के प्रयासों से बना सरस्वती घाट और ब्रह्मचारी गिरीश के प्रयासों के परिणाम स्वरुप संगम तट उस पार अरैल में ‘सच्चा आश्रम - महर्षि घाट’ की पहचान नये आयाम से जुड़कर आध्यात्मिक चेतना जगा रही है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी

रसूलाबाद से लगा मेहंदौरी क्षेत्र है। जहां कहते है कभी मेहंदी के वृक्षों झाड़ियों की भरमार थी और उनके फूलों की खुशबू से गुलजार रहता था। यहां विकास प्राधिकरण ने मेहंदौरी योजना को स्थापित करा दिया है।  तंत्र-मंत्र साधक भी तो यहां है।

अमित मिश्र सरीखे ऐसे प्राध्यापक की पहचान भूमि रसूलाबाद है, जिनके पढ़ाये अधिकांश विद्यार्थी (छात्र-छात्राओं) आई.ए.एस.,पी.सी.एस. जैसी प्रतियोगिताओं में कामयाब हो रहे है।

कितनी अद्भुत बात मानी जायेगी कि रसूलाबाद घाट के किनारे ही मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कॉलेज की पहचान बोलती नित नई कहानी लिखती दिखाई पड़ती है, तो कम्प्यूटर युग की क्रांति से जुड़ा यहां हाईटेक प्रबन्धन संस्थान भी है, जिनसे निकली विभूतियां देशभर में अपनी पहचान बनाने में आगे बढ़ रही है। इलाहाबाद प्रिंटिंग टेक्नालॉजी की पहचान मृणाल कान्त चटर्जी से जुड़ी रही है। आगे कुछ ही दूरी पर आर.एन. कपूर का स्थापित इलाहाबाद पॉलिटेक्निक भी है, जिसने प्रगति के कई सोपान गढ़े हैं।

मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कॉलेज

क्या यह नहीं माना जा सकता कि महर्षि भारद्वाज ऋषि का यही गंगा तट पर युगों पहले आश्रम था। कहते है तब हजारों की संख्या में ऋषि वैज्ञानिक यहां अनुसंधान किया करते थे। अग्निहोत्र और आयुर्वेद जैसे विषयों के अलावा उस काल की तमाम वैज्ञानिक शोध हजारों साल पहले यहीं ऋषि प्रांगण में सभी पूरा करते रहते थे।

महर्षि भारद्वाज ऋषि

आज शहर की आबादी बढ़ती-बढ़ती यहां के सौन्दर्य परम्परा की अनुभूति को बढ़ाने की अपेक्षा धूल-धूसरित करने में गुमान कर रही है। अच्छी बात तो है ये कि यहां शहर और गंगा तट से संगम तभी होता है, सेतु बन्धन तभी होता है, जब रक्षा विभाग के क्षेत्र को पार किया जाता है। हमारे देश के रक्षा प्रहरी यहां आम जनमानस को नित नये सपनों से जोड़ने में भी पीछे नहीं रहते। यहां के सेनानियों ने भारत-पाक युद्ध में अपने पराक्रम का परचम लहरा चुके हैं।

भारत-पाक युद्ध

रसूलाबाद घाट से लगा इलाहाबाद शहर का पुराना फाफामऊ पुल जो अब नई पहचान के साथ बन चुका है। पुराना टूट चुका है। यहां अपने अतीत की कल्पनाओं और भारतीयता की पहचान को खनक सुनाता है। इस क्षेत्र की अनेकानेक अनकही-अनसुनी दास्तान है, जिसे हम आपको सुझाते मनुहार कराते रहेंगे।

फाफामऊ पुल

यहां मम्फोर्डगंज फौव्वारा चौराह निवासी कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नेता रहे, लगातार लम्बे अन्तराल तक विधायक बने रहने वाले अनुग्रह नारायण सिंह को कौन नहीं जानता। सेवा भावना में तत्परता उनकी उपलब्धियों का कारक बनता रहा है। आज समय ने उन्हें बूढ़ा बना दिया, किन्तु फिल्म ‘हासिल’ में अनुग्रह के  चरित्र का खुलकर सामना हुआ था। तिग्मांशु धूलिया ने उसे बखूबी चित्रित भी किया था।

तिग्मांशु धूलिया

इलाहाबाद शहर के कटरा क्षेत्र की दो महान कलाकार बहनों की चर्चा यदि न की जाये, तो बेमानी होगी। मशहूर कत्थक नृत्यांगना सरिता देवी मिश्रा (शिष्या-लादू राम) और मशहूर रंगकर्मी सूर्या अवस्थी दोनों बहनों की पहचान कई मानदण्डों को सामने रखती है। सरिता जी अपने तमाम अनुभवों को साझा करते हुए इलाहाबाद की मिट्टी की कलात्मकता का बखान करते नहीं अघाती हैं, जबकि सूर्या रामचरित मानस में कौशल्या के चरित्र को जो पहचान दी, तो भोजपुरी फिल्मों की नायिका बनकर कई फिल्मों रंगमंच पर काम करते आज भी सक्रिय है। वह आनन्द भवन की पहचान से भी जुड़ी रही है। पूरे शहर में उनका मान-सम्मान रहा है आज शहर से दूर फरीदाबाद में हैं, किन्तु हमेशा यही सोचती है कि पंख लगे, तो उड़ कर इलाहाबाद पहुंच जाऊं और अभिनय की दुनिया के नये आयामों को अपनी मुट्ठी में बन्द करूं उनके भतीजे और सरिता जी के पुत्र ‘बोनी’ रंगमंच और फिल्म ‘कंठा’ के माध्यम से अपनी कलात्मक वैभव को सामने रख चुके हैं। अब राजनीति की धुरी में पंख लगाने को बेचैन है।

कत्थक नृत्यांगना सरिता देवी मिश्रा

(आज की यात्रा यहीं तक, अगले अंक में एक विशेष कथानक के साथ फिर मिलेंगे। इन्तज़ार कीजिए...)

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