इलाहाबाद कल आज और... `अजन्ता पार्क` और `जड़ियन-टोला` की दास्तान

  • Abhijit
  • Monday | 4th September, 2017
  • education
संक्षेप:

  • इलाहाबाद के युवा जानकर करेंगे अचरज
  • नामी लोगों का क्या है यहां से कनेक्शन
  • कैसे यहां के लोगों ने लिखा स्वर्णिम इतिहास

-वीरेन्द्र मिश्र

ये कहानी है अजन्ता पार्क की। जिसके पूरब में अजंता सिनेमा की पुरातन पहचान है। तो दक्षिण में सड़क के ठीक उस पार हठकेश्वर महादेव का मन्दिर है, जिसके पीछे आजादी के दीवाने राधे श्याम पाठक जैसे सेनानी के साथ अनेको वीर भोग्या के कथानक समाये हैं।

यही अग्रवाल कॉलेज भी है, जो प्राइमरी से डिग्री कॉलेज तक की शैक्षिक ज्ञानशाला की पहचान समेटे है चुन-चुनकर वहां के मोतियों को धागे में पिरोया जा सकता है।

वर्ष 1960 में नारायण अग्रवाल को डॉ. राधा कृष्णन ने पहला राष्ट्रपति सम्मान दिया था। और अभी हाल ही में उनके लिखे भजनामृत का हेमा मालिनी ने गायन किया है, जिसे पं. हरिप्रसाद चौरसिया ने संगीतबद्ध कर दिया। और मजे की बात ये है कि अगस्त क्रांति(9 अगस्त 2017) के दिन प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने उस कैसेट को लोकार्पित भी किया है। यह अग्रवाल कॉलेज की कहानी से जुड़ी काव्य सलिला है। नारायण अग्रवाल, इसी अग्रवाल कॉलेज के पुरा छात्र हैं और गर्व करते हैं, अपने उस अग्रवाल कॉलेज की स्मृतियों पर और अजन्ता पार्क में वक्त को सहेजते हैं।

आइये अतीत के कुछ पन्ने और पलटते हैं।
अग्रवाल कॉलेज(इलाहाबाद कॉलेज) इस रोड पर ही यथावत जमा हुआ युवा पीढ़ी को बखान करता है कि डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने अपनी पहली अध्यापक की नौकरी की शुरूआत यहीं से की थी। बाद में डॉ. अमरनाथ झा के विशेष आग्रह पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच गये और `मधुशाला` के साथ अंग्रेजी के प्रोफेसर बन गये। यानी हिन्दी के कवि और अंग्रेजी के प्रोफेसर वह भी फिराक़ गोरखपुरी के साथ। जो उर्दू के शायर और अंग्रेजी के पुरोधा विद्वान थे।

अग्रवाल कॉलेज की अपनी अलग पहचान रही है। प्राइमरी से डिग्री क्लास तक पढ़ाई एक ही छत के नीचे। लड़कियों की अलग पढ़ाई की व्यवस्था शायद यह अपने आपमें अकेला उदाहरण वाला कॉलेज है। पश्चिम-दक्षिण-उत्तर की दीवारों से ढका पूरब में दरवाजे से सूरज की स्वर्णिम आभा प्रात: जो आरम्भ होती है देर शाम धूप-छांव का अहसास कराती है।

यहां खेल-कूद के साथ एकरूपता बनी रहती रही है। अब तक इस विद्यालय में सैकड़ों राष्ट्रपति सम्मान पाने वाले स्काउट विद्यार्थियों की फेहरिश्त है। डॉ. एस. राधा कृष्णनन से नारायण प्रसाद ने राष्ट्रपति सम्मान पाया, तो जगदीश गुलाटी, उपेन्द्र मोहन जैसे पुरोधा विद्यार्थी भी राष्ट्रपति सम्मान पाने वाले अगुवा विद्यार्थियों में शुमार करते रहते है। न जाने कितने ही विद्यार्थियों को यहां गौरव पाने का मौका मिला है। डॉ. जे.पी सिंह मास्टर जी यहां सक्रिय ज्ञानी रहे हैं। बैडमिंटन के विश्व चैंपियन सुरेश गोयल यहीं बैडमिंटन खेल-खेलकर विश्व चैंपियन बने। अशोक मिश्रा बुलबुल बालीवाल के राष्ट्रीय खिलाड़ी रहे, जिनके साथ बद्री प्रसाद यादव भी आगे बढ़ते रहे। केसरी नाथ त्रिपाठी यहीं से पढ़-लिखकर आज बंगाल के गवर्नर पद पर सुशोभित हैं। उन दिनों केसरीनाथ जी मोहत्सिन गंज में रहा करते थे।

अजंता सिनेमा अच्छी फिल्मों के प्रदर्शन वाला सिनेमा घर था। अग्रवाल कॉलेज के पीछे प्राय: तब बच्चे दरवाजो पर कान लगाय सिनेमा के संवाद और गाने सुनते मगन दिखते थे। और अजन्ता सिनेमा पार्क तो चौबीसो घण्टे साइकिल चलाने का 10-10 दिन का रिकॉर्ड बनाने वाले खिलाड़ी की पहचान से भी जुड़ा रहा। यही नहीं खो-खो, कबड्डी खेल यहां सर्वाधिक चर्चित रहा।

कल्लू चाट वाले को कौन भुला सकता। दोपहर 2 बजे उसकी दूकान सजती और 5 बजे तक दूकान बंद। सामान खत्म। उसका स्वादिष्ट चाट खाने वालों की भीड़ टूट पड़ती। आज तो वीरानगी है। उसे यहां से हटाकर गवर्नमेण्ट कॉलेज के पास भिजवा दिया गया है। परन्तु अब न तो चाट है और न ही कल्लू है।

पूरा इलाहाबाद शहर का महालंठ सम्मेलन हास्य पहचान से जुड़ा रहा था। वह भी इसी अजन्ता पार्क से स्थापित रहा किन्तु आज भूली बिसरी यादे हैं। अनकही-अनसुनी की भरमार है। अब न खेल है, न खिलाड़ी और न ही जादू की कोई पिटारी-सिनेमा बन्द हो चुका है। युवा मोबाइल में खोते जा रहे हैं और हाईटेक बन रहे हैं।

रंगमंच की दुनिया के श्रेष्ठ कलाकारों की श्रृंखला हो अथवा साहित्य जगत के डॉ. राम कमल राय जैसे लेखक अध्यापक जो बाद में इलाहाबाद विश्व विद्यालय में प्रोफेसर के पद पर आरूढ़ हुए। `डी.डी न्यूज़ चैनल` के सम्पादक के रूप में इस लेखक(वीरेन्द्र मिश्र) का नाम भी एक नाम है, जिन्हें दो बार यहीं से राष्ट्रपति सम्मान मिला। डॉ. पीयूष यहीं से पढ़-लिखकर वॉयस चान्सलर बने और विश्व जम्बूरी में भारत का प्रतिनिधित्व किया।

अमिताभ बच्चन जब चुनाव लड़ रहे थे (वर्ष 1984-85 में), तो इस विद्यालय कैम्पस में पहुंचे थे। वास्तव में डॉ. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला की धूम यहीं से आरम्भ हुई थी। और वह सबसे पहले हिन्दी के प्राध्यापक यहीं बने थे। यहीं से अंग्रेज़ी के अध्यापक बनकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंचे थे। अमिताभ बच्चन और जया बच्चन दोनों ने यहां पहुंचकर स्मृतियों को ताजा किया था।

विनोद बहल जैसा श्रेष्ठ धावक यहीं पढ़-लिखकर राष्ट्रीय परिधि में आठवें दशक में पहुंचा था।
महान कवि रमा शंकर शुक्ल रसाल जी यहीं प्राध्यापक रहे। शम्भूनाथ अग्रवाल जैसे कर्मठ समाजसेवी के योगदान के बलबूते पर प्रगति हुई थी, जिन्होंने अपना पूरा जीवन ही विद्यार्थियों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया था।

यह विद्यालय पं. हरि प्रसाद चौरसिया जैसे विश्व प्रसिद्ध बांसुरी वादक की प्रारम्भिक शिक्षा की ज्ञानशाला की पहचान से भी जुड़ा रहा। पं. चौरसिया यहां के गन्ना द्वारा बनाई पापड़ी दमालू का आज भी जिक्र करते अघाते नहीं पुराने दिनों को याद करते रहते हैं। हालांकि वह भारती भवन में तब रहते थे। उस काल में एक बांसुरी लिए प्राय: बजाते रहते थे। आज विश्व प्रसिद्ध बांसुरी वादक के रूप में स्थापित हैं।

यह है तिनके-तिनके का सुख वैभव और उपलब्धियों की परम्परा की पहचान का रोजनामचा। आगे तो यहां महाजनी टोला है। नई पीढ़ी को खोजबीन करने की बस जरूरत है। यहां की सड़को की पहचान के दूसरे की महत्ता को बखूबी समझाया जा सकता है।

अजन्ता पार्क के सामने `हठकेश्वरनाथ महादेव` का विराट मन्दिर है। यही महान स्वतंत्रता सेनानी राधेश्याम पाठक रहते रहे हैं। जिन्होंने अंग्रेजों के मंसूबों को ठिकाने लगा दिया था। चौक के पास मौलाना मुहम्मद अली के नाम पर एक पार्क तभी बना था। जो अपने नाम के साथ मीर खां के नाम को आगे जोड़ कर बना। मीरगंज तवायफ वेश्या का मुहल्ला बन गया। तो मुहम्मद अली पर आधुनिक युग में पंजाबी दूकानदारी ने लेडीज गॉरमेन्ट के कपड़ों की दूकाने खोल ली। आज ये पार्क सिर्फ और सिर्फ महिला परिधानों का पार्क बन कर रह गया है। पुरानी पहचान को यह भुला चुका है।

सीधे यह सड़क एक नई संस्कृति को जन्म दे देती है, जहां आर्य समाज धर्मशाला रूपबानी के ठीक पीछे आज भी अपनी पहचान बनाये हुए है।

इसके सामने नाज़ सिनेमा कभी था, जो दारासिंह और मुमताज तथा किंग कॉन्ग जैसी फिल्मों के प्रदर्शन के लिये विख्यात था। कैसा अद्भुत संयोग है, एक ओर मुहम्मद अली पार्क और दूसरी ओर मीरगंज मुहल्ला तो तीसरी ओर केसरवानी इण्टर कॉलेज आज भी यहीं पर है। व्यापारियों की पीढ़ियों की ज्ञानशाला बना हुआ है। नाम भर कर रह गया।

क्योंकि वणिकों के बच्चे सुबह स्कूल जाते है। दिनभर अपनी दूकान सजा लेते है। कॉपी-किताब से लेकर क्या-क्या नहीं बेचते शाम को उनके बड़े बूढ़े बैठ जाते है। वर्षों से यही सिलसिला चला आ रहा है। यहां पर क्या-क्या नहीं है, मानसरोवर से चढ़िये, तो घण्टाघर तक छप्पन छुरी की गायकी धूम मचाती गढ़ी सराय तक को मिलाकर एक कर देता है। क्या ही बेहतर होता इसका नाम हेरीटेज धरोहर में शामिल कर दिया जाता। क्या नहीं है, इस छोटी सड़क के दोनो ओर।

आज वक्त ने करवट ली है यहां से चमेली बाई धर्मशाला तक झांकिये इंजन-मशीनों और धरती से चीर कर पानी निकालने वाले `समर सेबल` तक व्यवस्थायें हैं।

यहीं जड़ियन टोला है, जिसके कलाकारों की कलाकारी रामलीला के दौरान पथर चट्टी की चौकियों के सजावट में खुलकर मुखर होती है। केले के विशाल पेड़ के पत्तों तनों को झांकी की शक्ल में तैयार कर देने वाले हुनरमन्द कलाकारों को देखने दूर-दूर से लोग आते है। श्रीराम की सवारी जब सोना चांदी गद्दी में होती है, तो लोग दांतों तले उंगली दबाते हैं। कुल मिलाकर कलात्मक वैभव की पहचान बताती यहां की गल्लियां हैं। परन्तु अब सबकुछ हाईटेक होकर दूर-दूर तक पहुंच बना रही है। शेष फिर...

(अगले अंक में फिर मिलेंगे। एक खास कहानी के साथ. इन्तज़ार कीजिए...)

-वीरेन्द्र मिश्र

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