इलाहाबाद कल आज और...खुसरो की कब्रगाह और लाल अमरूद का बगीचा

  • Hasnain
  • Monday | 19th February, 2018
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संक्षेप:

  • कैसे आलीशान बगीचा बन गया `कब्रगाह`?
  • जहांगीर ने ही रखा था `इलाहाबाद` का नाम
  • इस बगीचे की पैदाइश है इलाहाबादी लाल अमरूद 

--वीरेन्द्र मिश्र

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रीय राष्ट्र भारत में लोकतंत्र की पहचान यहां संस्कृति, रहन-सहन, पहनावा, भाषा और प्रकृति यानी कुदरत का कानून अर्थात् सृष्टि के संविधान की पारम्परिक पर्वों उत्सवों की आहलादित होती आम जनमानस को सुवासित करती आनन्त की अनुभूतियों और लोक परम्पराओं की ऐसी दीप मालिका से सजा संवरा रहा है। इस सबके बीच वैदिक ज्ञान सम्पदा मुगलकाल में यहां तमाम परिवर्तन दर परिवर्तन होते रहे, उन्हीं में से एक क्षेत्र यह भी रहा है।

आइये इलाहाबाद शहर पश्चिमी छोर पर बने ऐतिहासिक `खुसरो बाग` के पत्थरों की दास्तां से रूबरू हो और जानें कि इतिहास के कालखण्डों में यहां बादशाह जहांगीर की मिल्कियत, और अंतर्द्वंद के साथ अपने परिवार के लेागों की कलह और टकराहट से उत्पन्न स्थितियों से किस तरह यह आलीशान बगीचा `कब्रगाह` बन गया, जहां की वीरानगी अपनी `अनकही-अनसुनी` बयां करती है। यहां की चहारदीवारी में चुने पत्थरों में आज भी उस काल की हसरते, पीड़ा का दंश यहां तक की राज प्रसाद के भीतर की विषम परिस्थितियों में आम नागरिक की हिस्सेदारी ने उसे आज भी जीवंत बनाये रखा है। सब कुछ इतिहास के पन्नों में सिमटा गुमसुम सा बना हुआ है।

बादशाह जहांगीर जब अपने पिता सम्राट अकबर के बाद गद्दी पर बैठा, तो गंगा-यमुना के किनारे रहने और यहां की पावनता से स्वयं को जोड़े रखने की कोशिश उसे बरबस यहां खींच लाती थी।

इलाहाबाद शहर को `इलाहाबास` से `इलाहाबाद` का नाम जहांगीर ने ही रखा था। आज लगभग 500 वर्षों बाद यह अपने पुरातन `प्रयागराज` नाम की प्राण-प्रतिष्ठा को फिर प्राप्त कर रहा है।

शहर पश्चिमी छोर पर जो नखास कोना से आगे `ग्रैंड ट्रंक रोड` पर ही गुरुद्वारा है, उसके पास के चौराहे से आगे बढ़ते ही `खुल्दाबाद` है। वास्तव में यह उस काल में जहांगीर द्वारा बनवाई गई `सराय` है, जहां मुसाफिरों के रुकने की न जाने कितनी ही छोटी-छोटी कोठरियां बनवाई गई थीं। परन्तु आज लगभग सभी खत्म सी हो चुकी हैं। कुछ की निशान पहचान आज भी जहां-तहां दिख जाती है। वक्त के साथ आज वहीं पर उन्हीं कोठरियों के बीच के अहाते में बहुत बड़ी `सब्जी मण्डी` बन गया है, जिसका नया स्थान `मुंडेरा` में भी बन गया है।

वक्त ने करवट ली, तो आज बहुत कुछ बदल गया है। सराय तक पहुंचने को जो दरवाजा था, उसके बुर्ज ढह चुके हैं अथवा ढह रहे है। सराय की कोठरियों पर अनजान बाशिन्दों का कब्जा है। यहीं के एक दरवाजे के भीतर से गुजरते हुए, आगे बढ़ती कड़ाधाम  की ओर ग्रैंड ट्रंक रोड चली गई है, जो बाद में आगरा और दिल्ली को जोड़ती है।

हम अब प्रवेश करेंगे शहर के भीतर बने `खुसरो बाग` के अहाते में जहां `मां-बेटा और बेटी` की कब्रगाह तीन भागों में बनी दिखाई देती है। पूरा क्षेत्र आज भी यथावत खाली है। नक्काशीदार चहारदीवारीऔर गुम्बन्दों को पार कर पूरे वातावरण का जायजा लिया जा सकता है। इस बाग की कहानी के भीतर की `अनकही-अनसुनी` कहानियां भी है, जिन्हें आवश्यकतानुसार हम बयां करने की हर कोशिश करने का प्रयास करेंगे। बस! यह भी जान लीजिए इलाहाबादी लाल अमरूद  इसी बगीचे की पैदाइश और पहचान से जुड़ी है, जिसकी खुशबू और स्वाद के क्या कहने!

सन् 1500 के आसपास की बात बताई जाती है। एक स्पेनिश खोज करने वाले को स्ट्रॉबेरी अमरूद मिला था। जो तब अमरीका में पैदा होता था। 1816 का रिकॉर्ड बताता है कि कुछ भारतीय तब उत्तरी फ्लोरिडा में भी उसकी पैदावार करते थे। यह 25 फीट ऊंचा तक तब वृक्ष होता बताया जाता था।

हवाई द्वीप समूह पर भी इसकी खूब पैदावार होती थी। सैकड़ों वर्ष पूर्व उसकी कुछ कलमें यहां खुसरो बाग और उसके आसपास लगाई गयी थी। अद्भुत संयोग बना और बताते हैं कि `लाल अमरूद` की पहचान भारत में इजाद हुई और तब से आज तक ये उपलब्धि इलाहाबाद शहर को मिली हुई है।

आप लाल अमरूद और सफेदा अमरूद का स्वाद लेना चाहते हैं, तो वह सिर्फ और सिर्फ इलाहाबाद में ही मिलता और पैदा होता है, जिसके स्वाद का कोई दूसरा जवाब आज तक पैदा नहीं किया जा सका है।

वर्ष 1587 में जहांगीर के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म हुआ। समय बढ़ता रहा। बादशाह जहांगीर के स्वभाव से न तो उसकी पत्नी और न ही बेटी इत्तेफाक रखती थी। और तो और अमीर खुसरो समय के साथ `बागी` हो गया था। विषम परिस्थितियां रही होगी, जब वह बुरहानपुर में कुरान की `आयत` पढ़ रहा था, तो उसका कत्ल करवा दिया गया। इतिहास गवाह है कि उसे पहले बुरहानपुर, फिर आगरा में दफन किया गया, परन्तु तब भी बादशाहियत को चैन और करार नहीं आया, तो पुन: आगरा से निकालकर इलाहाबाद लाया गया और खुल्दाबाद के बीच बने कई बगीचे अमरूद के यहां हैं। इसी बागीचे के आहते में तीसरी बार दफन किया गया। उस बगीचे को `खुसरो बाग` नाम दे दिया गया।

कैसा दुखद अन्त था कि खुसरो की बहन `सुल्तानुन्निसा` ने अपनी मौजूदगी में यहीं अपनी कब्र बनवा ली थी। परन्तु अफसोस उसे उसमें दफन होने का मौका तब भी नहीं दिया गया। यहीं तीसरी जगह पर उसको `आरामगाह` मिल सकी। कहते हैं यहां की तीसरी कब्रगाह उसकी मां की है, जो बड़ी सहज सरल खुदा समर्पित महारानी थी। यानी ये खुसरो बाग मां, बेटा और बेटी की कब्रगाह  है, जिसके बगीचे ने इसे अलग पहचान से जोड़ दिया।

सम्राट अकबर के बाद सन् 1605 में जब खुसरो 28 का था, तो जहांगीर को बादशाह बनाया गया। अपने बेटे के बागी होने की वजह से उसने उसे यहीं अन्तिम बार दफनाया तब से आजतक ये जगह बगीचा पूरी तरह से `खुसरो बाग` के नाम से मशहूर है।

115 बीघा क्षेत्र में यह पूरा बगीचा बना है। जिसकी चहारदीवारी और गुम्बद मीनार के अंशों को यहां से लगभग 40 किलोमीटर दक्षिण दिशा में मंदरिया पहाड़ी से पत्थरों के बड़े-बड़े ढोंको से तैयार किया गया है। बताते है तब सुजावन क्षेत्र यमुना उस पार से लाल और सख्त पत्थरों को गधों-खच्चरों और बड़ी बोट पर लाद कर यहां लाया गया था। बड़ा ही कठिन साध्य काम रहा होगा, परन्तु जहांगीर ने उसे पूरा करवाया था।

आज यहां खुशरो बाग है, उसकी यादें हैं। परन्तु सबकुछ होकर भी यहां कुछ नहीं है सिवाय कब्र और बावली तथा सूखे झरने की शक्ल के जहां फारसी भाषा में उक्तियां भी अंकित हैं। परन्तु इस बगीचे में पहुंचने के पहले इतना और भी बता दूं कि पूरे इलाहाबाद शहर को यहीं से पीने का पानी मिलता है। जलकल विभाग से पानी की सप्लाई की व्यवस्था है, जहां अब हाईटेक प्लाण्ट लगाये जाने पर विचार किया जा रहा बताया जाता है।

यही नहीं खुल्दाबाद का यह पूरा क्षेत्र आजादी की लड़ाई में महत्पूर्ण योगदान देने वाले `बड़े मियां जी` की पहचान से भी जुड़ा माना जाता है। `हमदर्द दवा` की नींव यहीं से पड़ी। हमदर्द दो भागों में बंटा- एक आगरा से लाहौर चला गया, तो दूसरा लखनऊ से राजधानी दिल्ली पहुंच गया। हमदर्द विश्वविद्यलाय के रूप में स्थापित है। इस हमदर्द की `साफी` जैसी तमाम औषधियों का आरम्भिक निर्माण यहीं हुआ, जो देश-विदेश में लोकप्रिय हुआ। कहने का आशय ये है कि औषधियों के गुणों से भरपूर है। यहां से आगे बढ़ते ही रेलवे फाटक के करीब अकबर इलाहाबादी की मजार है, किन्तु उसपर फूल चढ़ाने वाला शायद ही कोई मिलता हो और भी बहुत कुछ है। अब बस! फिर भेंट होगी।

(आज की `अनकही-अनसुनी` यहीं तक, अगले अंक में फिर भेंट होगी। तब तक के लिए इंतजार कीजिए अपनी खासमखास `अनकही-अनसुनी` के लिए।) 

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