इलाहाबाद कल आज और कल…शांति का नोबल और मां टेरेसा की ममता

  • Hasnain
  • Monday | 14th August, 2017
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संक्षेप:

  • जब नोबल शान्ति पुरस्कार की घोषणा हुई इलाहाबाद में थी मदर टेरेसा
  • इलाहाबाद में हुई मदर टेरेसा के कार्यक्रम को  बीबीसी और सीएनएन चैनलों ने भी दिखाया था
  • इलाहाबाद शहर को गर्व है, अपनी मिट्टी पर और ज्ञान-विवेक पर, जो निरन्तर आगे बढ़ रही है

 

--वीरेन्द्र मिश्र

वैदिक सिटी इलाहाबाद की पहचान में तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जगत की विभूतियों की मौजूदगी रही है। उपस्थितियां तमाम काल क्षणों को जोड़ती रही हैं और व्यक्ति यहां मौजूद रहा कि उसे विश्व पटल के पुरस्कारों से सम्मानित होने की घोषणायें सुनने को मिली। जाहिर है नित-नवीन भावों की धरायें भी शायद इसी वजह से प्रवाहित होती रही।

प्रेरणा से विकास के रुप में इलाहाबाद में स्वतंत्रता सेनानी कमल गोइन्दी का नाम उस काल में लिया जाता था, किन्तु क्या आप जानते हैं कि जब मदर टेरेसा को विश्व के नोबल शान्ति पुरस्कार की घोषणा हुई, उस काल में ‘मां’ इलाहाबाद की धरती पर ही थीं। शहर उत्तरी छोर की गंगा तट की ढलान पर गरीबों-बेसहारा बच्चों के विद्यालय का उद्घाटन करने के लिए वह पहुंची थी।

प्रात: बेला! साढ़े सात बजे ममतामीय ‘मां टेरेसा’ जब बेली हॉस्पिटल के पास पहुंची, तो मीडिया जगत से जुड़े पत्रकारों, लेखकों और छायाकारों के पौ बारह थे। छोटे-छोटे कदमों के साथ सौम्य मुस्कुराहट के साथ ‘मां’ आगे बढ़ रही थीं। वहीं खबर आई ‘मां’ को नोबल शांति पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। पूरा वातावरण विश्व पटल का बन गया था। तमाम काल छन्दों की चर्चायें तब गौंण हो गई थी। पूरे शहर में चर्चा थी, नोबल शांति की देवी ‘मां टेरेसा’ की थी। पूरा दिन गहमा-गहमी बनी रही।

छायाकार विजय अग्रवाल और अनूप मेहरोत्रा तो पहले से ही वहां जमें रहे। कम्पनी बाग, मुख्य गेट के सामने है ‘सन्त जोसेफ विद्यालय` का प्रांगण पूरे दिन के कार्यक्रमों में ‘मां टेरेसा’ का एक कार्यक्रम सांध्य बेला में वहां पर भी आयोजित था।

जो तब अचानक नागरिक अभिनन्दन का विशेष आयोजन बन गया था। विद्यालय के युवा छात्र और संत एंथोनी की छात्राओं के बीच ममतामीय मां टेरेसा की गरिमामयी उपस्थिति इतिहास के पन्नों में दर्ज हो रही थी।

लखनऊ से दूरदर्शन की पूरी वैन एम.पी.लेले, निर्देशक के नेतृत्व में वहां पहुंच गई थी। जो अपने आपमें बहुत बड़ी बात उस काल के लिए थी। विश्वविद्यालय और युवा जनों की भीड़ खुलकर बोल रही थी। पूरा प्रांगण ‘मां’ की झलक पाने के लिए बेकाबू था। उस समय मंच का संचालन विपिन शर्मा जैसे उद्घोषक ने जिम्मेदारी संभाली थी। खुले मंच पर ‘मां’ अंग्रेजी में बोल रहे थीं। और विपिन शर्मा के हिन्दी में पूछे गये सवाल-जवाब से पूरा वातावरण नई कहानी लिख रहा था। और उस अभिनन्दन समारोह का सीधा प्रसारण भी लखनऊ दूरदर्शन से तब किया जा रहा था। जिस दुनिया भर में बीबीसी और सीएनएन चैनलों में देखा गया था। तब यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

आज पूरा युग बीत गया है। इन वर्षों में जिस युवा पीढ़ी ने उस काल में मां को सन्त जोसफ के प्रांगण में देखा होगा, वो उन हर्षित पलों को कभी भुला नहीं सके होंगे अब नया काल है, नया छन्द है। स्थितियां-परिस्थितियां इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पीढ़ियों के सामने है। मौका आता नहीं दूबारा। मां टेरेसा दूबारा फिर वहां नहीं आई थीं।

वक्त गुजरते हुआ कहां से कहां तक आ चुका है।

म्योर सेंट्रल कॉलेज की ऊंची गुम्बदों के सामने, जहां चन्द्रशेखर आजाद पावन स्थली है उसके ठीक बगल में ही है। डॉ. गंगानाथ झा संस्कृत विद्यापीठ का प्रांगण है। उस काल में वहां उसके प्रमुख थे, डॉ. गया चरण त्रिपाठी।

यह प्रांगण संस्कृत नाटकों की पहचान से भी जुड़ा था। यही नहीं चाहे मेघदूत हो अथवा `मृच्छकटकम्` या फिर महाराज भोज की कहानी, सबकुछ वहां मंचित होता था। युवा लड़के-लड़कियों में संस्कृत भाषा के प्रति चाहत उस काल में भी कम नहीं थी। आज तो संस्कृत भाषा विश्व की माध्यम भाषा कम्प्यूटर की भाषा भी बन गई है। संस्कृत में धारा प्रवाह संवाद वहां डॉ. गया चरण त्रिपाठी के साथ देखने-सुनने को मिलता था।

उनके पुत्र डॉ. गिरीश चन्द्र त्रिपाठी पढ़-लिखकर आज ज्ञानी विवेकी बन चुके हैं और इस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर आसीन है। सच! इलाहाबाद शहर को गर्व है, अपनी मिट्टी पर और ज्ञान-विवेक पर, जो निरन्तर आगे बढ़ रही है। यह अजूबा जरुर था, किन्तु सबकुछ सहज रुप में हो रहा है। आज वैदिक सिटी इलाहाबाद से संस्कृत भाषा का ज्ञान भी राष्ट्रीय परिधि की ओर बढ़ा है। वक्त बदला है। देखिये कल क्या होता है?

(अगले अंक में आप पढ़ेंगे, एक खासम-खास अनकही-अनसुनी कहानी। इन्तजार कीजिए...)

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