इलाहाबाद कल आज और...पजावा-पत्थरचट्टी रामदलों की चाहत में जुटती भीड़

  • Hasnain
  • Monday | 25th September, 2017
  • local
संक्षेप:

  • इलाहाबाद में दशहरा के अवसर पर ‘रामदल’ निकालने की परम्परा जारी।
  • इलाहाबाद दशहरा पर निकलने वाली झांकियों पर नेशनल ज्योग्राफिक चैनल के लिए बन चुकी है फिल्म।
  • डॉ. लाल बहादुर शास्त्री तक भी पहुंचती थी मुन्ना नेतराम की दही-जलेबी।

--वीरेन्द्र मिश्र

‘गंगा-जमुनी’ तहजीब इस इलाहाबाद शहर की पहचान रही है, वह आज भी है। हर तीज़-त्यौहार में यह पहचान बोलती रहती है। सभी एक दूसरे के पूरक बन कर जीवन जीते हैं। यह परम्परा मुगल काल से आरम्भ हुई बताई जाती है।

बात त्यौहारों की चली है, तो दशहरा का त्यौहार इलाहाबाद में बड़ी भव्यता और शान-आन-बान, पावनता से मनाया जाता रहा है।

लगभग 200 वर्षों से अधिक का पुराने इतिहास के पन्नों में झांके, तो अंग्रेजी यात्रियों। लेखकों द्वारा भी इसका वर्णन मिलता रहा है। यहां दशहरा का त्यौहार रावण का पुतला जलाये जाने और दशहरा के अवसर पर ‘रामदल’ निकालने की परम्परा बनी रही है।

20वीं सदी के आरम्भ में यहां प्राय: दो समुदायों में आपसी टकराहट हो जाती थी। कभी कहीं मातम मनाये जाने को लेकर, तो कहीं ढोल-ताशा-बाजा बजाने नाचने-गाने को लेकर, परन्तु वक्त ने तब करवट ली और उस काल के विशिष्ट नेतृत्व कर्ताओं ने मिलकर इसका समाधान निकाला।

वर्ष 1924 के बाद फिर से दशहरा का रामदल जुलूस की शक्ल में निकलने लगा। आज भी यथावत जारी है। जिसकी महीनों पहले तैयारी आरम्भ होती है, तो राजगद्दी तक अनवरत चलती ही रहती है।

मुख्य दल तो दशमी के दिन चौक में निकलना आरम्भ हुआ और नवमी को मुट्ठीगंज बहादुरगंज क्षेत्र का दल निकल पड़ा। कटरा क्षेत्र सैनिकों के अधीन था, तो सेनानियों ने वहां का दल अष्टमी को निकालना आरम्भ कर दिया, जबकि सप्तमी का दल दारागंज क्षेत्र में तीर्थ पुरोहितों ने निकालना शुरु कर दिया, जिसमें ‘स्वांग’ काली मां का नृत्य विशेष आकर्षण बन गया और छठ वाले दिन सिविल लाइन्स क्षेत्र में रामदल निकल पड़े। यानी पूरा शहर ‘श्रीराम मय’ हो जाता है।

झाकियां-चौकियां, शृंगार चौकी, जिस पावनता से निकलना आरम्भ हुयी, वो आज तक यथावत जारी है। आजादी के बाद तो नियमित रुप से दल में देश के चुनिंदा नेताओं के शामिल होने के बात भी कही जाती रही है। इसलिए रामदल में यह भी अपने आपमें आकर्षण होता है।

बताते है कि डॉ. लाल बहादुर शास्त्री जी, यहां प्राय: ऐसे दलों में भी शामिल होते थे। उनके बाद के नेताओं में राजेन्द्री कुमारी वाजपेई, शम्भूनाथ अग्रवाल, राधे श्याम पाठक, सुनीत ब्यास, छुन्नगुरु, कुन्नन गुरु, रामगोपाल सण्ड, सालिग राम जायसवाल, चौधरी नौनिहाल सिंह जैसे नेताओं की आम चर्चा होती रही है।

वैसे कुछ प्रामाणिक तथ्यों में भी झांकना होगा। इलाहाबाद का दशहरा ऐसा जिसकी देश भर में चर्चा होती आ रही है। चाहे ‘डिस्कवरी चैनल’ हो अथवा ‘नेशनल ज्योग्राफिक चैनल’ सभी यहां के दशहरा पर मनमोहक लुभावनी झांकियों पर आधारित दलों की फिल्मों की रिकॉर्डिंग और प्रसारण ने आधुनिकतम लोकप्रियता में कई आयाम जोड़े है।

रमेश शर्मा तो इलाहाबाद दशहरा पर निकलने वाली झांकियों पर नीलेन्दु सेन की देखरेख में नेशनल ज्योग्राफिक चैनल के लिए फिल्म बना चुके है।

वैसे रामदल आरम्भिक दौर में दो नामों से जाना जाता रहा  है, न जाने कितनी ‘अनकही-अनसुनी’ होंगी। एक ‘हाथीराम’ तो दूसरा ‘बेनीराम’ । हाथीराम एक वैष्णव साधु थे, जो शाहगंज में बिन्दादास की गली में रहते थे। वहीं एक कोठरी के भीतर आज भी उनकी समाधी बनी है। वहां श्रीराम, लक्षमण, भरत, शत्रुघ्न, सीता और अन्य सभी कलाकारों को बड़ी पावनता भावनात्मक जुड़ाव के साथ महीनों पहले से रहना पड़ता है। उनका रहन-सहन भी बड़ा ही सात्विक और वैदिक परम्परा अनुसार दैनिक जीवन बन जाता है, तभी तो आम जनमानस उनमें साक्षात् प्रतिमूर्ति का अनुभव करता है। यह दल ‘पजावा’ रामदल के रुप में प्रतिष्ठित है।

बाबा हाथीराम ने सबसे पहले रामदल निकलवाना आरम्भ किया था। समय बदला, बाद में हाथीराम के दल की जिम्मेदारी इलाहाबाद के खत्री समाज के पास आ गई, तो आज खत्री पाठशाला पर रामलीला होती है और यह परम्परा आगे चल रही है।

ऐसे ही बाबू बेनी प्रसाद कायस्थ थे, जो इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करते थे। उन्होंने ‘बेनीराम’ नाम से रामदल पत्थरचट्टी को स्थापित करा दिया। उन्होंने ही रामबाग नामक स्थान पर पत्थरचट्टी रामलीला के लिए जगह की व्यवस्था दी। आज वहां हाईटेक रामलीला और रामदल की पहचान बनी हुई है।

महत्वपूर्ण बात ये है कि दशहरा के दूसरे दिन मुख्य चौक में ‘भरत मिलाप’ का दृश्य एकदम भिन्न होता है। दोनों ‘पजावा’ और ‘पत्थरचट्टी’ की आमना-सामना होता है, जो देखने लायक होता है। उस दिन मन्दिर-मस्जि़द-चर्च के पास यह दृश्य देखने वालों की भीड़ टूट पड़ती है।

बाद में बाबू दत्ती लाल वकील ने बाबू बेनी प्रसाद की जिम्मेदारी को आगे बढ़ाया, बताया जाता है। महत्वपूर्ण ये है, यहां की शृंगार चौकियों का दर्शन करने के लिए पूरा परिवार रात-रात भर जागता है और दल का इन्तजार करता रहता है।

पूर्व तथ्यों में पड़ताल करने पर यह बात भी ‘अनकही-अनसुनी’ का हिस्सा बन गई है कि ‘पत्थरचट्टी’ रामलीला की जगह जो बाबू बेनी प्रसाद कायस्थ थे और वह कड़ा धाम फतेहपुर के निवासी थे। उन्होंने ही उस स्थान का नाम ‘रामबाग’ रखा था। यही देखिये न, कि कितनी पावनता के साथ इस स्थान का नामकरण हुआ, आज युग बदला है, तो ‘हाईटेक’ रामलीला अगर देखना है, तो पत्थरचट्टी का यही मैदान अपनी पहचान में शुमार करता है। जड़ाऊ बेशकीमती रत्नों के सिंहासन पर भगवान श्रीराम-सीता की सवारी नयनाभिराम होती है।

ऐसे ही कटरा क्षेत्र का रामदल पहले भरद्वाज आश्रम के जोगी महाराज करते थे, फिर अष्टमी के दिन निकलने वाले दल की देखरेख सैनिकों के हाथ में पहुंची। किन्तु ‘नेतराम चौराहे’ पर मुन्ना नेतराम का नाम और राजराम अग्रवाल (लक्ष्मी टाकीज़ वाले) का नाम प्रतिष्ठित पहचान थी। नेतराम चौराहे पर मुन्ना नेतराम की पहचान से चौकियों को देखने के लिए भीड़ टूट पड़ती थी। आज उनकी पीढिय़ां नेतराम के नाम को आगे बढ़ा रही है। यहां यह बात उल्लेखनीय रही, राष्ट्रीय परिधि के नेता जब भी इलाहाबाद जाते, नेतराम की कचौड़ी और  जलेबी, दही खाये बिना नहीं रहते थे।

डॉ. लाल बहादुर शास्त्री जी तक भी मुन्ना नेतराम की दही-जलेबी पहुंचती थी और इलाहाबाद की चर्चा आम होती थी। सिविल लाइन्स का सबसे पहले दल निकलता है, रोशनी की भरमार जरुर होती है, परन्तु पावनता में यहां का दल हमेशा पीछे रहा है। कुल मिलाकर बाबू बेनीराम का पत्थरचट्टी का दल आज भी मिसाल बना है। आगे क्या आकार ग्रहण करता है, वक्त बतायेगा।

(आज की ‘अनकही-अनसुनी’ यहीं तक। अगले अंक में फिर भेंट होगी। खास कहानी के साथ।)

Related Articles