इलाहाबाद कल आज और...."मालवीय नगर" की दास्तान

  • Hasnain
  • Monday | 12th June, 2017
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संक्षेप:

  • इतिहास के पन्नों में झांकने और उसे पलटने की ज़रूरत है। ताकि `हाईटेक` युग की पीढ़ी अनभिज्ञ न रह सके।
  • इसी खुले आसमान के नीचे `पीपल वृक्ष` की छांव तले महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय जी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पाई थी।
  • ठहरिए आगे टक्कर साहब का पुल है। जोकि चाचर नाला पर बना है। ऊपर इस ढलान पर चढ़ते हैं, जहां त्रिवेणी के तीर्थ पुरोहितों के ऐतिहासिक कुनबों की पीढ़ियां हैं।

-- वीरेंद्र मिश्र

पुराना अहियापुर मुहल्ला अब पण्डित मदन मोहन मालवीय जी के नाम पर `मालवीय नगर` हो चुका है। 50 वर्षों बाद की स्थितियां भी अब नये ज्ञानखण्डों से जुड़कर तमाम नई कहानियों को जन्म दे चुकी हैं। लिहाजा इतिहास के पन्नों में झांकने और उसे पलटने की ज़रूरत है। ताकि `हाईटेक` युग की पीढ़ी अनभिज्ञ न रह सके, क्योंकि न जाने कितने ही दस्तावेज़ों के पुलंदों की दास्तान उनमें समाई है। समय के साथ उनसे स्वयं को जोड़कर आगे बढ़ाने की ज़रूरत है।

`लाल डिग्गी` चौक क्षेत्र के बाद, `मालवीय नगर` मुहल्ला-पण्डों-पण्डितों, कायस्थों, वणिकों, मुसलमानों और यादवों  के बाशिंदों की पहचान से जुड़ा है और न जाने कितनी ही अनकही-अनसुनी कहानियां होंगी।

यह जरूरी नहीं है कि जो मैं बता रहा हूं, सिर्फ उतना ही है बल्कि उसके आगे भी न जाने कितनी विभूतियों से जुड़ी और बाशिंदों से जुड़ी-अनोखी-अनूठी काल छन्दों की फेहरिस्त भी समायी मिल सकती है।

पुरातन अहियापुर मुहल्ला आज का `मालवीय नगर` कहलाता है। जहां `पक्की संगत गुरुद्वारा` की पावनता, विशालता और ऐतिहासिक प्रमाणिक भावनात्मक जुड़ाव से गूंथी अनेक हसरतें भी समाहित मिलेंगी। यमुना किनारे की ढलान पर बना ये `पावन गुरु` स्थली है। जिसकी देश में ख्याति है।

सन् 1666, गुरु गोबिन्द सिंह जी, जब अपनी मां के गर्भ में थे, तो यही गुरुद्वारा उनके उन कालखंडों के गवाह के रूप में आज भी मौजूद है। जहां पावन `गुरु ग्रन्थ साहिब` के शबद कीर्तन भी यहां सुनाई पड़ते रहते हैं। अंग्रेजी हुकूमत के बाद से यह गुरुद्वारा आज गलियों के भीतर है। अब तो यहां के मुख्य द्वार और नयनाभिराम बन चुका है। यहां प्रवेश करते ही पावन नगर की अनुभूति मिलती है। आध्यात्मिक चेतना में डूब हवाओं से यह सुवासित होता रहता है। इसकी कोई सानी यहां नहीं है।

सैकड़ों बरस पुराना विशाल पीपल का वृक्ष तो आज भी बूढ़ा होकर अपनी विशालता के साथ यहां खड़ा है।

जिसके चबूतरे का जीर्णोद्धार भी कराया जा चुका है। ऊंचा चबूतरा यथावत है। लगभग दो सौ वर्षों का यह पीपल वृक्ष हो चुका है। अपनी विशालता के साथ मौजूद `पक्की संगत गुरुद्वारा` के ठीक मुख्य द्वार पर यह अपनी हरियाली की छांव और शीतल हवा के झोंकों से मन आनंदित कर देता है। अब ज़रा सामने देखिए। सामने ही भरतकूप और मन्दरिया पहाड़ की चट्टानों के पत्थरों से सुसज्जित चौधरी नौनिहाल सिंह की कोठी है, जो अपनी जन-सेवा की भावना की गवाह रूप में आज भी मौजूद है। नौनिहाल सिंह इस मुहल्ले के जनसेवक रूप में कभी घर-घर लोकप्रिय रहे हैं।

विशाल पीपल वृक्ष की छांव तले 19वीं सदी में लगने वाली मौलवी जी की पाठशाला का भी इतिहास था। सन् 1857 के बाद कभी ज्ञानशाला की यह मिसाल बनी थी। इसी खुले आसमान के नीचे `पीपल वृक्ष` की छांव तले महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय जी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पाई थी।

और यहीं मौलवी जी ने स्वयं राजर्षि पुरुषोत्तम टण्डन जी के हाथों को पकड़कर हिन्दी और उर्दू दोनों लिखना, पढ़ना सिखाया था। `राजर्षि` फिल्म (वर्ष 1991-दूरदर्शन) में भी मैं स्वयं इसे चित्रित कर चुका हूं और इसका उल्लेख भी है।

यहीं पास की एक गली में समाज सेवी दया शंकर मालवीय उर्फ `दयाल गुरु` की भी रिहाइश थी। जो लकदक सफेद परिधान में छुन्नन गुरु अथवा अन्य के साथ पूरे मुहल्ले के चहेते थे। कई बार चुनाव लड़े, जीते नहीं। बाद में वह निरंजन लाल भार्गव (निरंजन सिनेमा) वाले के यहां जुड़ गये थे।

अब `पक्की संगत गुरुद्वारा` और विशाल पीपल वृक्ष के आगे ज़रा खुशहाल पर्वत की ओर बढ़िये कुछ ही दूर चढ़ाई चढ़ने के बाद टण्डन जी की `जन्म स्थली` वाला पुराना घर मिल जाएगा। वह पुरातन घर आज भी वीरान इतिहास पुरुष की दास्तान सुनाता बूढ़ा होकर खड़ा है। इसकी दीवारें जर्जर हो चुकी हैं। ज़रूरी है कि इस घर को सरकार उनकी `स्मृतियों का झरोखा` अथवा `स्मृतिघर` बनाकर स्थापित कर दे। ताकि `भारत रत्न राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन` की स्मृतियों को पुष्प चढ़ाये जा सकें।

कमोबेश खुलहाल पर्वत के आगे भारती भवन की तरफ की गली में जो घर `महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय` की जन्मस्थली है, उसे भी सहेजा जाना चाहिए और उनका ऐतिहासिक पुस्तकालय `भारती भवन` को भी सरकार को अपने हाथों में लेकर उसका जीर्णोद्धार कराना चाहिए। ताकि `हाईटेक` युग में नई पीढ़ी अपना ज्ञान विस्तार कर सके। और दोनों `भारत रत्नों` के जीवन कलश से रूबरू होती रहे। भारत रत्न महामना का बचपन और यौवन यहीं बीता था। यहीं पास ही लोकनाथ व्यायामशाला में वह नियमित कुश्ती भी लड़ा करते थे।

ये दोनों वो महान विभूतियां रही हैं, जो साहसी, शक्ति, ऊर्जा और जनसेवा की मिसाल थीं। जिनसे अंग्रेजी हुक्मरानों की कंपकंपी छूटती थी और सामाजिकता की उन महान विभूतियों की शक्ति के सामने वे स्वयं जीर्ण-शीर्ण (असहाय) हो जाती थी।

पढ़ाई-लिखाई के बाद पण्डित मदन मोहन मालवीय ने यहां के बाद `काला कांकर` (प्रतापगढ़) से राजा रामपाल सिंह के साथ `हिंदुस्तान` अख़बार निकाला था, किन्तु उनकी शर्तों का पालन तब राजा ने नहीं किया, तो उन्होंने बाद में त्याग पत्र ही दे दिया था। उस समय काला कांकर से बैलगाड़ी पर लदकर `हिंदुस्तान` अख़बार इलाहाबाद शहर पहुंचता था, तब उसको बांटा जाता था। यह ऐतिहासिक तथ्य है।

उसकी ख़बरें पढ़कर भारतीय चेतना जागृत हो उठती थी और अंग्रेजों का काल बनकर आगे बढ़ जाती थी। बाद में पण्डित मदन मोहन मालवीय जी ने ऐसे ही आजादी की लड़ाई से जुड़ा इलाहाबाद से `लीडर` अख़बार भी निकाला था। तब मालवीय जी के प्रयासों से इलाहाबाद का `लीडर प्रेस` भी स्थापित हुआ था।

कहते हैं कि बाद में पण्डत जी ने `एक रुपया` दान स्वरूप लेकर `लीडर प्रेस` को घनश्याम दास बिड़ला जी को सौंप दिया था। `लीडर` और भारत अख़बार बन्द होने के बाद जिसे बिड़ला जी के बाद `ज्ञान मण्डल` को करोड़ों में उस ऐतिहासिक प्रेस को बेचा गया था। आज भी यह लीडर प्रेस अपने पुरातन नाम का बखान करता इलाहाबाद स्टेशन के पास मौजूद है, पर किसे पता है कि अहियापुर की धरती में जन्मी महान विभूति की परिकल्पनाओं का यही कभी स्वरूप रहा है। आजादी की लड़ाई की ताकत था।

यह लीडर प्रेस ही वो स्थान हैं, जहां से कभी `कादम्बिनी` जैसी पत्रिका का सम्पादन इलाचन्द जोशी जैसे साहित्यकार, उपन्यासकार के नेतृत्व में होता था और धर्मवीर भारती जैसे महान साहित्यकार ने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत की थी। बाद में ना जाने कितनी ही विभूतियों ने अपनी पहचान को यहां जन्म दिया। बाद में यह पत्रिका नई दिल्ली से राजेंद्र अवस्थी की सम्पादकत्व में निकलने लगी। अब उसी `लीडर प्रेस` से `आज` समाचार पत्र का नियमित प्रकाशन बस चल रहा है।

अब आइये भारती भवन की ढलान के नीचे धीरे-धीरे उतरें। उत्तर दिशा में तो ऊंचा मण्डी है (जहां मनों चांदी टंच हो जाती है), जिसकी अलग पहचान है। किन्तु भारती भवन की चन्द दूरी पर डॉ कृष्णा राम झा जी की विशाल कोठी है, जिनकी चिकित्सकीय गुणों की ख्याति दूर-दूर तक रही है। सातवें दशक तक रही है। फिर उनके पुत्र डॉ बलवन्तराम झा ने जिम्मेदारी सम्भाली। आज नई पीढ़ी के हाथों में इस विशाल भवन परिसर की बागडोर है।

इसी ढाल से आगे जाते ही हटिया में एक छोटा घर है, जो मुगलकाल की शान-शौकत का बखान करता लघुता में विशालता को सहेजे छोटे-छोटे शीशे के टुकड़ों से दीदार करता जान पड़ता है। यह है ऐतिहासिक `शीशमहल घर` जो आज भी अपनी शीशे की नक्काशी की चुनिंदा पहचान बनाता दाहिने किनारे ढाल पर मिलेगा। तब हिमालय की गोद में देहरादून के पास के `नगीना` क्षेत्र से `वाजिद अली` ने यहां बसने और अपनी शान-आन-बान के लिए अपनी रिहाइश के लिए इसे बनवाया था। ताकि उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस महल में रह सके। 1932 में बना यह नायाब छोटा सा `शीश महल` आज भी है।

किन्तु उस विरासत में उनकी सन्ततियों ने ज्ञान की पहचान में कोई नया अध्याय नहीं जोड़ा। हालांकि उसकी चमक आज भी यथावत है। प्रभावित नहीं हुई। बूढ़ा `शीशमहल घर` रूपी यह घर आज भी शीशे के टुकड़ों की नक्काशी से असंख्य बिम्बों की पहचान कराता मिल जाता है। आगे तो सब कुछ लकड़ी-लोहा-बांस और पत्थर की कलाकृतियों और उनको व्यापार से जुड़ी पहचान में तब्दील हो चुका है। यह पूरा इलाका हुनरमंद, कारगर जनों का आज बन चुका है।

जब इस `शीशमहल घर` को पुरातात्विक धरोहर के रूप में सहेजा जाना चाहिए। क्योंकि खण्डहर न सही इतिहास के कुछ पन्नों के धूलों की परतें यहां भी पड़ी हैं। उनके वंशज तरक्की के अभाव में कुछ भी नहीं कर सके हैं। समय बहुत आगे बढ़ चुका है। यह आधुनिक युग के लिए एक धरोहर है।

ठहरिए आगे टक्कर साहब का पुल है। जोकि चाचर नाला पर बना है। ऊपर इस ढलान पर चढ़ते हैं, जहां त्रिवेणी के तीर्थ पुरोहितों के ऐतिहासिक कुनबों की पीढ़ियां हैं। जो पढ़ लिख गयीं तो आगे बढ़ गयीं। जो अनपढ़-शौक मिजाजी में डूबी रहीं। उनका हाल-बेहाल, जीवन का कौन हवाल वाले हालात में वो पहुंचती गयीं। ऊंचाई वाले टीले पर बसी इस बस्ती में चढ़िए। कभी बजरंग प्रेस आजादी की पहचान बताता मौजूद था। आज गुम हो चुका है। यहां सबसे पहले छेदी प्रसाद बी.ए. की कोठी मिलेगी। उनका विशाल कुनबा यहां मिलेगा। छेदी बी.ए. जी अपनी बौद्धिक क्षमता के भरे-पूरे बुद्धिजीवी थे। ऐसे तीर्थ पुरोहित जो अपने यजमानों का पूरा ख्याल रखते। कभी हर दिन सैकड़ों की भीड़ जुटती थी।

उनके सेवक, सभी को तांगा इक्का रिक्शा पर बैठाकर त्रिवेणी ले जाते। संगम स्नान कराते, पिण्ड दान कराते फिर उन्हें सकुशल गाड़ी में बैठाकर विदा भी कराते थे। उनकी पीढ़ी में दुर्गा प्रसाद पढ़-लिखकर एडवोकेट बन गये। बड़े पुत्र कल्लू पण्डा वृद्ध हो चुके हैं। उनके बच्चों में श्याम किशोर `भइयो` भारतीय रेल से जुड़ गये तो शशिकान्त पढ़-लिखकर प्रधानाचार्य बन चुके हैं। वह मयूर रंगमंच के पुरोधा रंग कर्मी भी हैं। और कई फिल्मों में भी सक्रिय रहे हैं। जबकि छेदी बी.ए. महाराज की तीसरी संतान गोपाल- इक्का तांगा घोड़ा, रंग-बिरंगे कबूतर, बटेर, चिड़िया पालने के शौकीन रहे। उनके बच्चों ने ऐसा लक्का कबूतर भी पाल रखा है। जिसके मुंह में हवा भर देने के बाद वह गुब्बारे की तरह फूल जाता है, फिर मदमस्त होकर वह नाचता है। वाह! क्या कहने रंग-बिरंगी चिड़ियों की तो यहां बहार है। पर सब कुछ अब नई पीढ़ी कर रही है।

यहीं अगस्त क्रान्ति 1942 में सक्रिय रहे शीतल प्रसाद मिश्रा भी रहे लगभग 50 वर्षों तक इसी मुहल्ले में नारायणी मां के साथ जुड़े रहे, फिर समय के साथ वह भी चले गये।

आगे की चढ़ाई पर इस किनारे से उस किनारे तक तीर्थ पुरोहितों के कुटुम्ब मिलेंगे।

चन्द्रनाथ काला और राम जी काला, शम्भूनाथ करमहा इसी कुटुम्ब के हैं।

करमहा कुटुम्ब में `सवाई चटापटी` का झण्डा का निशान वाले हनुमान प्रसाद के बाद की पीढ़ी में बटुक नाथ शर्मा उर्फ `बमबम गुरु` का नाम अग्रणी है। उनकी पहचान से जुड़ा रहा है। हर सुबह पांच किलो मीटर की पैदल यात्रा पूरी कर गंगा स्नान करना। यजमान का कर्मकाण्ड करवाना, फिर पैदल दोप्रहर तक घर वापसी। उसके बाद त्रिवेणी में मिले पुण्यदान का विस्तृत व्यौरा हिसाब `पाई-पाई-आना-जाना` (पुरानी करेंसी) अपने कुटुम्ब में बंटवाना। ताकि कोई सवाल न उठा सके। जांघिया-बण्डी पहने बाल-गोपालों की ही क्यों, बड़े बूढ़ों के चहेते `बमबम गुरु` का सभी मान-सम्मान भी करते थे। उनकी एक और विशेषता थी, वह गजब के जादूगर-तांत्रिक और मंत्र चिकित्सक भी थे। बच्चा बीमार हो, तो हर शाम उनसे मंत्र फुंकवाने वालों की भीड़ उनके घर लगी रहती। बच्चे दु:खी-पीड़ा में पहुंचते और हंसते-खेलते वापस जाते। शायद कोई दैवीय शक्ति उनमें थी।

ऐसे ही एक बार एक मदारी से एक जादूगर की भिडण्त क्या हुई, मदारी ने उसे बेहाल कर दिया। `बमबम गुरु` तक ख़बर पहुंची। दौड़े आए। धरती से मिट्टी उठाई, जो मंत्र फूंका, तो उस मदारी की पहले तुमड़ी बजना बंद हो गयी। दूसरा मंत्र फूंका, तुमड़ी मुंह के अन्दर घुसने लगी, उस मदारी के मुंह से खून ही खून निकलने लगा। मदारी दया की भीख मांगने लगा। `बमबम गुरु` ने जब तीसरा मंत्र पढ़ा, तो उसकी हालत सुधरी और अब क्या था `गुरु` ने `पैसों की पूरी पोटली` ही उसे दे दी थी और जोर से बोले, बेटा कभी किसी पर अपना यह मंत्र प्रयोग न करना। ये पैसा ले और भाग जा यहां से। मदारी उनके कदमों में गिरकर माफी मांगता रहा। फिर अपना सामान उठा कर चला गया।

`बमबम गुरु` की ओर सभी की निगाहें थम गयी थीं और गुरु मुस्कुराते अपने घर चले गये।

`बमबम गुरु` के पास मंत्र चिकित्सा से इलाज कराने वालों की भी भीड़ लगी रहती थी। बांस की खपच्चियों से मंत्र-पढ़कर गठिया बाई से पीड़ित मरीज़ों को वह ठीक किया करते थे।

बच्चों के चहेते `बमबम गुरु`! बच्चों की खातिर बेचारे पतंग के लिए एक दिन दौड़े और घर के सामने की खुली छत पर चढ़ गये और फिर पैर फिसला तो `गुरु शांत` हो चुके थे। चिरनिद्रा में विलीन हो गये थे। उनके पुत्र अरुण शर्मा ने अच्छी श्रम साधना की। पढ़ाई-लिखाई से अपनी पहचान बनायी। आज सरकारी संस्थान में काम कर रहे हैं।

उनके बड़े भाई कहानी लिखते रहते हैं। बाद की पीढ़ी में अतुल ने अपनी हाईटेक पहचान बनायी है। मालवीय नगर से त्रिवेणी तक उसके तकनीकी ज्ञान की चर्चा आम रहती है। सहज, सरल, सजग, अतुल नई पहचान बना रहा है। तो अरुण (अन्नू गुरु) रुद्राभिषेक, शिवस्तुतियों के राग में डूबे जीवन के उत्तरार्द्ध को या आयाम दे रहे हैं।

यहीं इसी मुहल्ले में लक्ष्मण प्रसाद के पुत्र खूनी पण्डा भी हुए, जो नाम से खूनी थे परन्तु काम से नहीं बल्कि यात्रियों को यमुना स्नान कराते रहे। सत्तीचौरा पर मइया जी सुप्रसिद्ध वायलिन वादक भी हुए, जिन्होंने ऑल इंडिया रेडियो से अनपी कला को खूब विस्तारित किया। उनका `धनुष बाण` का निशान आज भी संगम किनारे लहराता है।

कश्मीरी पण्डितों का पण्डा खासकर पण्डित नेहरू जी के पण्डा, माधोलाल `छींट वाले` यहीं हैं। आज तो बस पुराना नाम ही शेष है।

यही नहीं `कल्लू चुरी बाज` नाम के भी यहां पण्डा हुए, जो अपने नाम से भिन्न सौम्य, मिलनसार पण्डा में शुमार करते थे। `गरुण का निशान` वाला झण्डा, गिरधारी लाल पाण्डा का है, तो `नारियल वाले` श्याम जी पाण्डा कहलाते हैं।

आप चौंक जायेंगे कि भिण्ड मुरैना के कभी कुख़्यात रहे `मलखान सिंह` के पण्डा भी इसी मुहल्ले में हैं। केसरिया झण्डा का उनका निशान है। और घण्टावाले झण्डा की पहचान से मइया जी का नाम जुड़ा है।

मालवीय नगर का यह क्षेत्र `श्री गणेश` जी के मन्दिर के नाम से भी जाना हैं। गीता प्रेस गोरखपुर वाले हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (स्वतंत्रता सेनानी) जब इलाहाबाद आये थे, तो उन्होंने यहां पूजन-अर्चन भी किया था। हालांकि यह स्थान पौराणिक काल का बताया जाता है, परन्तु इसका इतिहास उपलब्ध नहीं है। श्री गणेश का बाल मंदिर ज़रूर उपलब्ध है।

यह मुहल्ला चौधरी महादेव प्रसाद जी के छोटे भाई चौधरी शिवनाथ प्रसाद सिंह की पहचान से भी जुड़ा रहा है। सत्तीचौरा पर उनकी विशाल कोठी आज भी है। उनकी पीढ़ियां अब वहां की पहचान से जुड़ी हैं।

यह मुहल्ला चौधरी महादेव प्रसाद जी के छोटे भाई चौधरी शिवनाथ प्रसाद सिंह की पहचान से भी जुड़ा रहा है। सत्तीचौरा पर उनकी विशाल कोठी आज भी है। उनकी पीढ़ियां अब वहां की पहचान से जुड़ीं हैं।

यहां यहा बात उल्लेखित की जा सकती है, कि भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के पारिवारिक जनों की रिहाइश के चलते यहां की गलियों में कई बार शास्त्री जी भी घूमे हैं। उनके बड़े पुत्र हरि शास्त्री तो कई बार इस क्षेत्र से चुनाव भी लड़े थे।

सूरज का झण्डा वाले यहां लाल पण्डा भी थे। उनके घर में छोटा कुआं आज भी है, पान की किल्लत होने पर पावन कुएं से सीधे चार-पांच फिट रस्सी डाल पानी खींचा जाता रहा है। कौशाम्बी क्षेत्र के ज़मींदार भुल्लू बाबू (कायस्थ) की विशाल कोठी भी वहीं पर है।

परन्तु आज इस मुहल्ले में नवीन पहचान पर ग्रहण लग चुका है। नई पीढ़ी ने स्वयं ही अपने पांव कुल्हाड़ी मारी है। उन्हीं गलियों में आज उनके जीवन की साधना बसी है। बाकी तरक्की का लोप हो चुका है। जो निकल गये वे ऊंचे बस गये। जो रह गये वे वहीं सिमट सा गये हैं। इन गलियों में जीवन अब पीड़ा का पर्याय बनता जा रहा है।

यहां अधिकांश पण्डों की अकर्मण्यता और रंगबाजी, ठाठ बाजी ने, तम्बाकू, दोहरा मौजमस्ती ने उन्हें बीमार बना डाला है। उन्हें अब भी स्वयं को बचाने के लिए एक जुट होकर अपने पुरातन में झांकना होगा। अन्यथा काम क्या? नाम भी विलीन होने में वक्त नहीं लगता। शेष फिर.....

(अगले अंक में आप पढ़ेंगे अमृत लाल नगर के `बूंद और समुंद्र` की पृष्ठभूमि का कथानक और भी बहुत कुछ इंतज़ार कीजिए।)

 

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