इलाहाबाद कल आज और .......`सरयू पारिण` के `शंकर` की कहानी

  • Hasnain
  • Monday | 10th July, 2017
  • local
संक्षेप:

  • कटघर रोड पर कभी `मित्र प्रकाशन-माया प्रेस` होता था, जिसकी राष्ट्रीय परिधि में पहचान कभी शुमार करती थी।
  • युनूस परवेज ने प्यार से शंकर को अपना छोटा भाई बनाते हुए, सुहेल नाम दे दिया था।
  • स्थितियां-परिस्थतियां अनुकूल नहीं हो सकती हैं और गुजरा ज़माना भी आता नहीं दोबारा, यही है इतिहास का किनारा दिखाता है।

--वीरेन्द्र मिश्र

इलाहाबाद शहर कल तक बुद्धिजीवियों, हिंदी साहित्य सेवियों, कलाकारों की संस्कारधानी रहा। कभी राजा महाराजाओं की शान-ओ-शौकत की पहचान से भी जुड़ा रहा। किन्तु आज समय ने उन कालछन्दों को धूल-धूसरित कर दिया है। नई पीढ़ियां पलायन वादिता से नाता जोड़,  नई डगर की ओर कदम बढ़ा चुकीं हैं।

आध्यात्मिक नगर भी इलाहाबाद है, तो जब तक त्रिवेणी है उसकी पहचान को आंच नहीं आएगी, किन्तु नई तरुणाई अथवा पीढ़ियों, सन्ततियों को अपनी जड़ों के अतीत में झांक कर ही आगे बढ़ना होगा, ताकि कथानकों में बदलाव के बावजूद नयापन `तल्खी` और समग्रता बरकरार रह सके।

क्योंकि अब न तो संस्कार रहे, न लोग और न ही भावनात्मक डोर से बांधने के सलीके। अब तो बस सब कुछ इस `हाईटेक` युग के हाथ में `मोबाइल एप` के सहारे आगे बढ़ने की परिकल्पनाएं हैं। पलक झपकते दुनिया को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने की हसरतें हर क्षण कुलांचे मारती हैं।

परन्तु यदि इसी के साथ अपनी पुरातन पहचान के वैभव को शामिल कर आगे बढ़ने का प्रयास हो तो समय-काल की परिभाषा नित नई कहानी ज़रूर लिखती रहेगी।

आइए कदम बढ़ाएं। कटघर रोड या फिर बहादुरगंज,  राम भवन- सरयू पारिण की ओर चलें और जानें कल क्या था और आज क्या हो गया है?

सबसे पहले कटघर रोड पर आगे बढ़ते हैं। बहादुरगंज की ओर बढ़ते ही आपको मिलेगा, नयी पहचान का सबब जो देश परिधि में स्थान बनाने में कभी कामयाब रहा है। पुरातन,  प्राचीनतम से भिन्न अर्वाचीन क्या होगा, शायद किसी को नहीं मालूम क्योंकि जो पहचान कल थी, वह अब धूल-धूसरित होकर यह `ससुरा इलाहाबाद` बदल गया के कथानक को नित जन्म दे रहा है।

इसी कटघर रोड पर कभी `मित्र प्रकाशन-माया प्रेस` होता था, जिसकी राष्ट्रीय परिधि में पहचान कभी शुमार करती थी। आलोक मित्र, अशोक मित्र और मनमोहन मित्र तीनों भाइयों का तीन धाराओं का मिलन जैसा राग था। यहां से कभी `माया, प्रोब` राजनीतिक पत्रिका। `मनोरमा` महिलाओं की पत्रिका और `सत्यकथा` जैसी पत्रिकाएं निकल कर देश भर में लोकप्रिय रही हैं।

बाबू लाल शर्मा `माया` के सम्पादक रहे, तो `प्रोब` इंडिया-दिल्ली ब्यूरो प्रमुख कभी विजय दत्त थे, जो बाद में हिन्दुस्तान टाइम्स के मैगज़ीन सम्पादक बकर इंग्लैंड चले गये। जबकि उनके बाद राहुल देव जुड़े जो जनसत्ता, `आज तक` के सम्पादक बनने के बाद लोकसभा में आज लाइब्रेरी प्रमुख के पद परा आरूढ़ हैं। आलोक मित्र बड़े सूझ-बूझ वाले खांटी के संस्था प्रमुख रहे। हर ख़बर तथ्यों पर वह बारीकी से पकड़ रखते थे।

यहीं से निकलती थी कभी `मनोरमा` जो महिलाओं की पहली राष्ट्रीय पत्रिका थी और उसके सम्पादक थे लब्ध प्रतिष्ठित अवार्ड प्राप्त कथाकार, कहानीकार अमरकान्त।

अमरकान्त जी की पहचान रही है कहानी सम्राट मुंशी प्रेम चन्द की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले के रूप में,  उनकी `ढिबरी` का क्या कहना। परन्तु एक पुरुष के हाथों महिलाओं की बेहतरीन पत्रिका का निकलना भी नई कहानी कहता था। पूरा सम्पादकीय अमर गोस्वामी। सन्त प्रकाश टंडन और आलोक कुमार जैसे बुद्धिजीवियों का कलम का पारखी और धनी था।

यहीं से कभी दमयन्ती रैना, माला तन्खा जैसी लेखिकाएं भी जुड़ीं रहीं हैं। आलोक कुमार ने तो बाद में दिल्ली में `सखी` और `गृहशोभा- मुक्ता- सरिता` जैसी पत्रिकाओं का सम्पादकीय भी सम्भाला था। अमरकान्त जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला। उनकी लेखनी और कथानक का दम सभी युवा भरते रहे हैं। उनके `सुपुत्र` अरुण वर्धन राष्ट्रीय परिधि में स्थान बनाने में कामयाब रहे। आगे की पीढ़ियां `हाईटेक` बनकर अपनी पहचान को अब सहेज रही हैं।

सन्त प्रकाश टण्डन अहियापुर मुहल्ले में उत्तरार्ध जीवन जी रहे हैं, तो विजय दत्त अब भारत लौट चुके हैं,  दिल्ली में जम गये हैं। बाद में पीढ़ियों में मनमोहन मित्र ने बहुत प्रयास किया किन्तु कोई स्थान और पहचान दोबारा नहीं मिल सकी। उनकी पीढ़ी का प्रयास `हाईटेक` होकर ज़रूर जारी है, किन्तु स्थितियां-परिस्थतियां अनुकूल नहीं हो सकती हैं और गुजरा ज़माना भी आता नहीं दोबारा, यही है इतिहास का किनारा दिखाता है।

ये बहादुर गंज चौराहा है, मशहूर मिठाई की दुकान `सुलाकी लाल` आज भी यहीं है, परन्तु देशी घी की `बालूसाही`, `कचौड़ी-भाजी` का पुराना स्वाद तो जान पड़ता है कि गुम हो चुका है। उनकी नई पीढ़ी को प्रयास कर समय के अनुसार साफ-सफाई के साथ मिठाई-कचौड़ी का स्वाद बढ़ाना चाहिए। पीढ़ियों का प्रयास पुरानी खोई पहचान को नया नाम दे सके तो निश्चित ही हाईटेक की वही पहचान होगी। कभी हर के इलाहाबाद से किसी दूसरे शहर जाने वाले से सुलाकी लाल की बालूसाही मंगाई जाती थी। आज ऐसा कुछ नहीं है।

`बहादुर गंज से मान सरोवर` चौराहा तक भीड़-भाड़, भेड़ चाल ने पुरातन पहचान को बिसरा दिया है। यहां छोटी मार्केट की झड़ी सी लग गयी है। यहां का सौन्दर्य अब आकर्षक नहीं रहा है। लाल मुहम्मद बीड़ी वाले के घर की पहचान भी गुम हो चुकी है।

आइये, दाहिने जानिब मन्दिर के पास से आगे बढ़ते हैं। यहां `नंद गोपाल नन्दी` ने तो अपनी युवा पहचान और दृष्टि से मंदिर का जीर्णोद्धार करा दिया है। इसमें परिकल्पनाओं को भी साकार करने का प्रयास किया गया है। चौराहे पर दूध-दही, रबड़ी मलाई की जो दुकानें थीं अब और यहां बढ़ गयी हैं। बहादुर गंज चौराहे पर `पनीर-दूध-दही` का थोक व्यापार भी बढ़ा है। आगे राम भवन चौराहे पर अब `फ्रूट क्रीम` और `आइसक्रीम` की नई पहचान वाली दुकान ने युवा और आधुनिक काल क्षणों की पहचान से जुड़ा रहा है। हर शाम यहां की भीड़ का आलम समझा जा सकता है। इसी रोड पर भोलानाथ की जो पहचान रही, वह भी खो गयी है, उनकी नई पीढ़ी डॉ विकास ने जनसेवा में ज़रूर कई नए आयाम जोड़े हैं। यहीं के लखपत राय लेन के एक छोटे घर में रहते हुए, कैलाश गौतम जब बी.एच.यू से पढ़कर नौकरी करने आये थे. तो यहीं कवि और व्यंगकार बन गये, जो हिन्दुस्तानी अकादमी के प्रमुख भी बने थे, जिनकी तो अब यादें बाकी हैं।

इस मन्दिर और नन्द गोपाल नन्दी के घर के आगे बढ़िए, जहां दाहिनी ओर राजर्षि टण्डन चौराहा है, तो वहीं उसके ठीक पहले हिन्दी साहित्य सम्मेलन का विशाल सभागार भी है, जिसकी महत्ता और कथानक की चर्चा हम आगे करेंगे।

किन्तु उसके सामने के घर में जहां पहले जानवरों का अस्पताल था और उसके ठीक ऊपर अब तो लगभग 35 वर्ष पुराना अस्पताल है और शहर के लब्ध प्रतिष्ठित डॉ मनोज भार्गव की देख-रेख में है, जिन्होंने आरम्भिक दिनों में जसरा बाजार में रोगोपचार की जिस व्यवस्था का आरम्भ किया था, आज भी उनका वहां जाना नियमित बना हुआ है। एक मायने में आज भी गरीबों का यह सर्व सुविधा सम्पन्न अस्पताल है।

इलाहाबाद हाईटेक हो रहा है, तो यह अस्पताल भी समय के साथ सुविधाओं को नित नया आयाम दे रहा है। इसके ठीक सामने ही सरयू-पारिण स्कूल की चौहद्दी है, वहीं उसी से सटी हुई विशुन दयाल श्रीवास्तव की कभी रिहायिश थी, जो अपने कलात्मक वैभव, वैचारिक समरस्ता और सामाजिक सरोकार के धनी व्यक्तित्व थे।

उनकी चार संतानों में बड़े उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर गोण्डा यानी महर्षि पतंजलि की जन्मभूमि में जाकर बस गये, तो दूसरे बेटे कौशल बिहारी लाल श्रीवास्तव रंग-मंच के मंझे कलाकारों के साथ ऑल इण्डिया रेडियो कलाकार होने का गौरव सम्मान पाने वालों में स्थापित श्रेष्ठ रहे। जिनकी पहचान `नीता` रंगमंच ग्रुप से रही, जिसमें तेजी बच्चन, पचानन पाठक, उपेन्द्र नाथ अश्क के साथ जुड़े रहे थे। उन्होंने डॉ हरिवंश राय बच्चन की पत्नी और अमिताभ बच्चन और अजिताभ बच्चन की मां तेजी बच्चन के साथ कई नाटकों में मंचन किया था, जिसकी प्राय: चर्चा भी होती थी। उन दिनों अश्क जी का नाटक `अलग-अलग रास्ते` पैलेस थियेटर में चलता था, जो बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऑल इण्डिया रेडियो से प्रसारित होने वाले नाटकों में बड़े भईया विजय घोष, भौजी कुसुम जत्शी, शान्ति मेहरोत्रा, दमयन्ती रैना, माला तन्खा, डॉ जीवन लाल गुप्त, रामचन्द्र गुप्त और शान्ति स्वरूप प्रधान जैसे कलाकारों के साथ मिलकर खूब काम किया था। अपने जीवन के उत्तरार्ध यानी 21वीं सदी में पिछले कुछ वर्षों तक भी वह बहुत नियमित सक्रिय बने रहे।

विशुन दयाल श्रीवास्तव जी की तीसरी सन्तान शंकर बिहारी लाल रहे, जो शंकर सुहेल के नाम से स्थापित हुए। जिनकी अपनी अलग पहचान रही। वो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में होने वाले राजनीतिक घटकों में भी सक्रिय रहे।

शंकर सुहेल जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1948-51 में थे। उस काल में जनेश्वर मिश्र और मदन लाल खुराना के बीच होने वाले चुनाव में सक्रिय रहे। एक बार तो मदन लाल खुराना ने जनेश्वर जी को चुनाव में हरा दिया था। दूसरी बार जनेश्वर ने मदन लाल खुराना को हराने के लिए राजनीतिक हथकण्डों में शंकर सुहेल को शामिल कर करारी शिकस्त देने की सोची, लेकिन कामयाब नहीं हो सके। किन्तु तीनों की मित्रता `त्रिवेणी` की तरह बनी रही। यह बात स्वयं शंकर सुहेल ने बताई है।

शंकर सुहेल की कहानी थोड़ा आगे बढ़ाते हैं। शंकर सुहेल राष्ट्रीय नाट्य विश्वविद्यालय के अलका जी के प्रिय शिष्यों में रहे। इसलिए उनको अच्छे अभिनेता होने के नाते स्कॉलरशिप भी मिला करती थी। वहीं उन्होंने अपना नाम शंकर बिहारी लाल से बदलकर शंकर सुहेल रख लिया था।

उनके साथ ओमशिव पुरी, साईं परांजपे, सुधा शिव पुरी, रतन थीयम जैसे नामचीन कलाकारों की श्रेणी में शुमार करते रहे।

जब शंकर सुहेल मुम्बई पहुंचे, तो उन्हें मशहूर फिल्म निर्देशक विमल राय का सहायक बनने का मौका मिला। उस समय उनके सहायकों में गुलजार भी थे। कई फिल्मों में गुलजार और शंकर सुहेल ने एक साथ सहायक निर्देशन का काम किया था। `बंदिनी` उनकी हिट फिल्म थी। फिर वो वापस दिल्ली आ गये और यहां गीत एवं नाटक प्रभाग के निर्देशक के पद पर नियुक्त हो गये। शंकर सुहेल ने अपने नाम के आगे सोहेल क्यों लगाया, इसकी भी कुछ अलग कहानी है।

शंकर के मित्र युनूस परवेज़ (फिल्म अभिनेता) मुम्बई में गहरे मित्रों में से रहे। युनूस के छोटे भाई का नाम सुहेल था। युनूस परवेज ने प्यार से शंकर को अपना छोटा भाई बनाते हुए, सुहेल नाम दे दिया था, तब से वह शंकर सुहेल हो गये। वास्तव में आज अपने जीवन के आठवें दशक में भी वह उसी नाम से स्थापित हैं।

विशुन दयाल जी का पूरा परिवार हिन्दू-मुसलमान के भाईचारा के मिसाल के रूप में कभी स्थापित था। कहते हैं एक बार उनकी बड़ी बेटी का विवाह जब हो रहा था, तो मण्डप सजाने का पूरा काम और पूरी देख-रेख का काम `एस.एम अब्बास` ने सम्भाला था। शंकर की ऊर्जा इलाहाबाद है और अतीत के पन्ने खुलते ही वह खो जाते हैं।

एस.एम.अब्बास सइयद सरांवा के रहने वाले लेखक, फिल्म निर्देशक बने। वह स्वयं इलाहाबादी भी थे और राजकपूर के साथ `परवरिश` का निर्माण किया था। बाद में शंकर सुहेल ने `बढ़ते कदम` और `रामचरित मानस` जैसा ध्वनि एवं प्रकाश कार्यक्रम भी पेश किया था, जो इलाहाबाद में महीनों चलता रहा और भीड़ टूट कर नित्त उसे देखती रही।

शंकर के जीवन में भारतीय कलाकेंद्र की कलाकार `उषा` उनके साथ ऐसी जुड़ीं कि उनकी जीवन संगिनी बनकर उनके जीवन का सौंदर्य बोध ही बढ़ा दिया। `घासी राम कोतवाल` उनका यादगार नाटक तब मील का पत्थर बन गया था।

आज समय बदल गया। अतीत के बादल छंट गये।

शंकर सुहेल अब पूरी तरह से दिल्ली के होकर रह गये हैं, किन्तु इलाहाबाद के गुज़रे दिन कभी भूलते नहीं। एक बार तो उन्हें उत्तर प्रदेश के राजकीय संस्थान से जुड़कर कैबिनेट का अधिकार भी मिल चुका है। उनकी नई पीढ़ी में पुत्र रोहित बिहारी आज `हाईटेक` युग के पुरोधा पण्डित बनकर अमेरिका में बस गये हैं, जिनकी `मैनहेटन` में अलग पहचान है, तो छोटा बेटा शैली `लोकसभा चैनल` में सक्रिय है। कहने का आशय यह है पीढ़ियां तरक्की-दर-तरक्की करती आगे बढ़ रही हैं, किन्तु अतीत के पन्नों को शायद वो भुलाती जा रही है। इलाहाबाद की दूरी भी बढ़ती जा रही है, पर सच्चाई यह है कि इलाहाबाद शहर आज `हाईटेक` हो रहा है तो इसके पीछे ऐसे ही तमाम पलायन कर चुके ज्ञानी-विज्ञानी बुद्धिजीवियों का योगदान है।

ये कहानी यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि पुरातन सरयू-पारिण विद्यालय जो था, वो अपने नाम और पहचान को खोकर अब नई पहचान के लिए जूझ रहा है। यही नहीं गल्ली में दुबका अपने पुरातन का मनुहार करता रहता है।

(लखपत राय लेन की बात हो और आसपास के क्षेत्रों की वहां के कालछन्दों में झांके, तो सरयू-पारिण क्षेत्र में कभी महर्षि महेश योगी ने रहते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कैसे पढ़ाई की और अपनी वैज्ञानिक दृष्टि और आध्यात्मिक चेतना के बल पर दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैसे बंद कर लिया। ये कहानी जानेंगे अगले अंक में, इंतजार कीजिए......)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Related Articles