इलाहाबाद कल आज और….`बूंद और समुद्र` का कथानक और राजनीति की दहलीज  

  • Hasnain
  • Monday | 19th June, 2017
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संक्षेप:

  • तुगलक भी अपने पुरखों-सम्राट अकबर की तरह त्रिवेणी संगम से `गंगाजल`  मंगवाकर नियमित पीता था। 
  • बात आठवें दशक की है, जब गंगा-यमुना में बाढ़ का झोंका आया तो `चाचार नाला` से पानी शहर के भीतर घुस गया था। 
  • जब दिलीप कुमार की फिल्म `गंगा-जमुना` आयी थी। तो इनकी सर्वाधिक चर्चा होती थी। क्योंकि एक गंगा की धारा अनुरूप शीतल स्वभाव के थे।

--वीरेन्द्र मिश्र

धीरे-धीरे ही सही हम अब वर्तमान यमुना नदी के किनारे पहुंच रहे हैं। जहां दैवीय साधना स्थलियों के अलावा हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई समुदाय के बाशिन्दों की पहुंच बढ़ती गयी है। यहां यह बात गौर करने वाली है कि खत्री समाज का भी यहां बाहुल्य रहा है। जिनकी सन्ततियां पढ़ लिखकर `हाईटेक` हो गयी हैं या व्यवसाय में रमते गये हैं। बावजूद इन सबके कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी सामने हैं।

दिल्ली से दौलताबाद की कहानी तो मुगलिया सल्तनत के समय की आपने ज़रूर सुनी होगी। जो तुगलकी फरमान की पहचान बताता है। पर यह बात ऐतिहासिक तथ्यों में समायी है कि तुगलक भी अपने पुरखों-सम्राट अकबर की तरह त्रिवेणी संगम से `गंगाजल`  मंगवाकर नियमित पीता था। यही नहीं वह गंगाजल से बना भोजन भी करता था।

परन्तु आज हमने अपनी `गंगा मइया` को मैली बना दिया है।

आने वाले अर्द्ध कुम्भ 2019 में यहां `गंगाजल` पावन होकर बहे इसकी उम्मीद रहेगी। क्योंकि इलाहाबाद शहर `कुम्भ नगरी` के नाम से भी जाना जाता है। जहां विगत महाकुम्भ में लगभग `नौ करोड़` तीर्थ यात्री तक एक दिन में स्नान कर चुके हैं। यह एक विश्व रिकॉर्ड है।

16वीं शताब्दी में `राम बोला` यानी `गोस्वामी तुलसीदास` जी अपनी जन्मस्थली राजापुर (सोरों) के पास के गांव से यमुना के किनारे-किनारे चलते प्रयाग कुम्भ मेला पहुंचे थे और कहते हैं कि यहीं संगम किनारे त्रिवेणी तट पर उन्होंने `रामचरित मानस` की रचना का श्री गणेश कर दिया था। जो वाराणसी पहुंचकर पूर्ण ही नहीं हुई लोकगायन के रूप में घर-घर पहुंच गयी और गोस्वामी जी ने `विनय पत्रिका` और `हनुमान बाहुक` जैसी काव्य संकलनों से आम जनमानस को भी जोड़ दिया था। आज भी यह धरती ज्ञानियों-विज्ञानियों, साधु-सन्तों और समर्पित भक्तों की है। इसकी पहचान जो है, उनकी जड़ों की गहराई में विचार-संचरण करना होगा।

अंग्रेजी हुकूमत के काल में। कलकत्ता से पानी का छोटा जहाज तब चलता था, तो व्यापार के लिए राजापुर तक पहुंचता था। हालांकि उसके पहले से ऐतिहासिक कालखण्डों में दिल्ली से प्रयाग तक सल्तनतें यमुना नदी के माध्य से ही यात्रा पूरी कर यात्री प्रयाग पहुंचा करते थे। अब तो इस `हाईटेक` युग में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई पायदान आगे बढ़ने की सम्भावना बढ़ी है। बहुत जल्दी ही पानी के जहाज की यात्रा यहां कलकत्ते से सम्भव होने वाली है। स्टीमर तो यहां आम होकर चल ही रहा है। यानी `हाईटेक` शहर इलाहाबाद अब नया आकार ग्रहण कर रहा है।

समय ने करवट ली। अतीत में झांके तो अंग्रेजी हुकूमत के समय राजनाथ के मेवातियों का कौशल यहां के बलुआ घाट की बारादरी से ककरहा घाट के बीच एक `टीला घाट` भी है। खुलकर कभी मुखर हुआ था। उपरोक्त कालछन्दों का अहसास तो यहां के किनारों पर पहुंचकर पता चलता है। चाहे `सुजावन देव` का बचा टीला हो अथवा मंझियारी घाट हो या महेवा, नौढ़िया, मंदुरी, रुसहाई, सेमरी जैसे घाटों का क्षेत्र हो। हर जगह तब दिल्ली और आगरा से प्रयाग पहुंचने वालों की पहचान का माध्यम बनी थी, यही यमुना नदी। परन्तु आज तो सबकुछ बदल चुका है।

बस! उन स्थानों की कुछ पहचान और स्मृतियां शेष हैं। कौशाम्बी का किला क्षेत्र हो। जहां कभी `महात्मा गौतम बुद्ध` ठहरे थे। जिसकी चर्चा `फाहयान` और `ह्वेनसांग` जैसे दोनों चीनी यात्रियों ने की थी। और दोनों ने उनके पद्चिन्हों की आहट के सहारे यहां की यात्रायें की थीं। यहां पास में पभोसा की पहाड़ी भी है, जहां `जैन धर्म` का पावन तीर्थ है। पर सब कुछ इतिहास के पन्नों में सिमट गया है। इन स्थानों को सहेजने की ज़रूरत है। आइये अब आजादी के बाद के कुछ कथानक में झांकते हैं।

तब इलाहबाद में दो राजनीतिज्ञों में खब जमकर टक्कर होती थी। टक्कर साहब नाम प्रशासक के नाम पर बना है यहां। `टक्कर साहब` का पुल। वहीं मुट्ठीगंज निवासी सालिग राम जायसवाल जो पहले सोशलिस्ट पार्टी में थे, फिर कांग्रेसी हो गये थे। यहां की लोहामण्डी में रहते थे। और दूसरी ओर कल्याणी देवी, मीरापुर वासी जनसंघ के राम गोपाल संड के बीच खूब चुनावी जंग होती थी। जो देखने लायक होती थी।

यह मुट्ठीगंज वास्तव में लोहे के व्यापारियों का स्थान है, तो यहीं बांस मण्डी, फर्नीचर मण्डी भी है। कायस्थों का बाहुल्य भी यहां है। इस क्षेत्र में तभी यहां चित्रगुप्त भगवान का पुरातन मन्दिर घर है। जिसे भी आज सहेजने की ज़रूरत है।

यहां से कभी सालिग राम जायसवाल जीतते, तो रामगोपाल संड जी हार कर भी चैन नहीं लेते। अगर राम गोपाल संड जीत गये तो फिर सालिग राम भी चुप नहीं बैठते थे। दोनों जन सेवक थे। दोनों की ताक़त खूब मुखर होती रहती थी। कोई किसी से कम नहीं था।

अब यही देखिये न सालिग राम जी और राम गोपाल जी के जीवन और राजनीतिक प्रपंचों पर `बूंद और समुद्र` उपन्यास लिखा। कथानक अद्भुत है जो इलाहाबाद की मिट्टी और अवधी इलाहाबाद बोली के साथ घटनाक्रमों की मिसाल बनी। एक छोटी घटना, कैसे तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनी यह उपन्यास पढ़कर ही पता लगता है। सालिग राम जायवाल जी बाद में प्रदेश मंत्री भी बने। लोकप्रिय नेता थे। किस तरह प्रपंच से दो चरित्रों की भिड़ंत हुई। इसी उपन्यास पर फिल्म `तेजाब` और `अंकुश` के फिल्म निर्देशक `नर्लिकर चन्द्रा` यानी `एन. चन्द्रा` ने `बूंद और समुद्र` नामक फिल्म बनाने का निर्णय लिया। परन्तु बाद में उसे धारावाहिक के रूप में परिणत कर दिया गया। इस धारावाहिक में अमन वर्मा और सीमा विश्वास के साथ (इस लेखक) ने भी अभिनय किया और राम गोपाल संड जी का चरित्र अभिनीत किया था। काफी लोकप्रिय रहा यह धारावाहिक इसे दूरदर्शन राष्ट्रीय चैनल कई बार प्रसारित कर चुका है।

राजनीतिक प्रपंच कब किस करवट होकर क्या रूप-स्वरूप बना लेता है, जिसका कोई जवाब भी नहीं मिलता। लेकिन एन. चन्द्रा ने उस प्रपंच को जीवंत कर दिया था। `बूंद और समुंद्र` का शीर्षक उसे देखकर समझ आ जाता है।

ऐसे ही इलाहाबाद के खंडहरों में ऐतिहासिक कालखंडों की दास्तान छिपी है। तकनीकि अभाव  और समय के साथ प्रभाव के चलते उनके वंशजों ने कोई तरक्की नहीं की लिहाजा सब कुछ धूल-धूसरित होता रहा है। अब ज़रूरत है उसे सहेजने की और आगे बढ़ाने की।

`सती देवी` के नाम पर `सत्तीचौरा` यहां पूज्य स्थान है। परन्तु आज इस मन्दिर का वजूद होकर भी कहीं खो गया है। आगे यहीं पर पंचमुखी महादेव का मन्दिर है। जो प्रोहा पण्डा केदारनाथ सरदार की देख-रेख में रहा है। आज तो बस सबकुछ घरों की भेंट चढ़ चुका है। अब वहां न कोई अखाड़ा है और न ही कुश्ती लड़ने वाले लोग बचे हैं। और न ही कोई पहलवान हैं।

दोआबा- इलाहाबाद का पीड़ा दायक दंश भाव भी झांकिये तो पता चलता है कि जब गंगा-यमुना में बाढ़ आती है। तो यहां का भयावह क्षेत्र उभर कर सामने आता है। गंगा का मटमैला पानी उफनता बहता संगम क्षेत्र को जलमग्न कर देता है, तो उस समय यमुना चिंघाड़ते हुए यहां बहती है। कभी-कभी तो दिल दहला देने वाला भयावह दृश्य भी हो जाता है। तीन तरफ से इलाहाबाद शहर बाढ़ के पानी की चपेट में भयावह होकर जूझता है। बड़े-बड़े बांध (बक्शी बांध) बंधवा अथवा अन्य किनारों के बांध सब बेकार और बेमानी हो जाते हैं, आखिर इसके दोषी वहां के निवासी ही हैं। जिन्हें आने वाले समय में मंथन-चिन्तन कर कुछ सजग निर्णय लेना होगा।

बात आठवें दशक की है, जब गंगा-यमुना में बाढ़ का झोंका आया तो `चाचार नाला` से पानी शहर के भीतर घुस गया था। सत्तीचौरा, `टक्कर साहब` के पुल तक नांव चल गयी थी। उधर बक्शी बांध टूट गया था, अल्लापुर क्षेत्र पानी में जलमग्न था। `सलोरी` टापू बन गया था। उस समय इलाहाबाद के जिलाधीश भूरे लाल थे। उन्होंने दिन-रात एक कर दिया था, घोड़े पर सवार चौबीसों घण्टे निगरानी और किनारे के फंसे लोगों को जीवन की आस का सहारा भूले लाल जी की वजह से ही मिला था। यमुना किनारे से गंगा किनारे, यही नहीं दारागंज, बक्शी बांध, शिवकोटि, द्रौपदी घाट, सलोरी, चांदपुर, रसूलाबाद और इधर बलुआ घाट और गऊघाट सभी ओर पानी ही पानी। भूरे लाल जी हारे नहीं जनसेवा में दिन-रात जुटे रहे। आज भी लोग उनको और उनकी सेवा को याद करते हैं।

उस काल में ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज प्रांगण से सलोरी तक नांव से ही पहुंचा जाता था। तब सलोरी क्षेत्र में तो `रामचंद्र शुक्ल` जो वहां के ज़मींदार थे। उन्होंने अपने घर से भण्डारा खुलवा दिया था। हजारों जनों को हर दिन मुफ्त भोजन की व्यवस्था चलती रही। उनके पुत्र डॉ ब्रह्मानन्द और हरिहरा नन्द ने अपने बच्चों के साथ मिलकर दिन-रात एक कर सभी प्रभावित जनों की सेवा की थी। हालांकि पूरा सलोरी इसलिए टापू के रूप में बचा था क्योंकि ऊंचे टीले पर यह गांव (कस्बा) बसा है और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अधिकांश प्रतिभाशाली विद्यार्थी यहीं रहकर आई.ए.एस, पी.सी.एस. और आई.पी.एस. बनते आ रहे हैं। ये जगह प्रशासनिक सेवाओं में चयन होने की प्राण प्रतिष्ठित मानी जाती है।

तब भी उधर भूरे लाल जी ने युद्ध स्तर पर जन मानस की जो सेवा की थी। आज चालीस साल बीतने को है। आज भी उनकी जय-जयकार हर इलाहाबाद वासी करता है। ये भूरे लाल जी वही हैं, जो विशवनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री काल में `कैबिनेट सचिव` बने थे। आज भी यथावत इस `हाईटेक` युग में राष्ट्रीय परिधि से जु़ड़ कर जन मानस की सेवा करते आ रहे हैं।

पर्यावरण के लिए आठ दशक पार करने के बावजूद सक्रिय है- नई पीढ़ी को सबक लेना चाहिए। वह राजाधानी दिल्ली में ज़रूर बस गये हैं, किन्तु इलाहाबाद से उनका गहरा नाता यथावत बना हुआ है।

ऐसे ही यमुना किनारे जो बलुआ घाट है वहां कभी `इस्कॉन मंदिर` प्रमुख `हरे कृष्णा` सेवक स्वामी प्रभूपाद जी भ्रमण किया करते रहे थे। वक्त ने करवट ली। तो आज वहां उनकी परिकल्पनाओं का `इस्कॉन मंदिर` बन चुका है और यमुना पूजन का परिदृश्य भी यहां यथावत संचारित है। यहां काशी नरेश के महल के अवशेष है। यहां अब हरे रामा-हरे कृष्णा की सुबह अनुगूंज सुनाई पड़ती रहती है।

यहीं पास में पहले जहां घाट का पानी भर जाता था। वहां आज दरियाबाद आबाद हैं। वहां मुस्लिम बाहुल्य जनों का निवास है और यहां कुम्हारों की बस्ती के रूप में यहां मिट्टी के बर्तनों की कालात्मक बहार होती है। इसमें नयापन लाने की भी ज़रूरत है।

यहीं दरियाबाद में नागों के देवता श्रेष्ठ नागर `तक्षक नाग` का पुरातन मन्दिर भी है। तभी तो यहां हर नाग पंचमी पर विशाल मेला लगता आ रहा है। इसे `तक्षक तीर्थ` के रूप में भी जाना जाता है। यमुना पूजा के पहले बलुआ घाट पर यम द्वितीया की भीड़ का तो कहना ही क्या? मेला टूट पड़ता है। सुबह से शाम हो जाती है और मेला अपनी भीड़ की पहचान बताता लगा रहता है।

थोड़ा पश्चिम दिशा में कदम बढ़ाइये `पक्की संगत गुरुद्वारा` के बाद की ढलान पर पवित्र `सिद्धपीठ कल्याणी देवी` मंदिर भी है। जहां का पूरा क्षेत्र इसी नाम के मुहल्ला की पहचान बन चुका है। पण्डित केदार पाठक और उनके पुत्रों सीता राम-रामजी पाठक और कल्याणी देवी मन्दिर के पुजारी श्रीधर पाठक को बड़ी श्रद्धा के साथ लोग मान देते थे। उनके पुत्रों का नाम `गंगा-जमुना` था। दोनों महारथी अपनी पहचान वाले। जब दिलीप कुमार की फिल्म `गंगा-जमुना` आयी थी। तो इनकी सर्वाधिक चर्चा होती थी। क्योंकि एक गंगा की धारा अनुरूप शीतल स्वभाव के थे। तो जमुना वाकई जमुना नदी की पहचान स्वरूप `रफ-टफ` चिंघाड़ते और कड़क बने रहते थे। आज ये पीढ़ियां नहीं रहीं, अब तो यहां की स्थिति भिन्न है।

कल्याणी देवी मन्दिर के `हाईटेक` पुजारी सुशील और कृष्णा हैं। यहां कल्याणी देवी मां की एक सेविका रही शकुन यादव जो अपनी कलात्मक वैभव और ओंकार के साथ न्यूयॉर्क में बस गईं हैं। और अच्छी पहचान बना रखी है और सर्वाधिक सम्पन्नता में शुमार करती है। उसके बच्चे हाईटेक होकर अमरीका में जम गये हैं।

यहां से आगे बढ़िये सारस्वत खत्री पाठशाला के करीब ही पजावा रामलीला कमेटी की रामलीला का विशाल पार्क वर्षों से आज भी है। यथावत हर दशहरे पर यहां धूम मची रहती है।

उसके आगे जरा ककराहा घाट की तरफ बढ़िये वहीं किनारे पर है `सिद्धपीठ ललिता देवी` का ऐतिहासिक पावन मंदिर है। जो हरि मोहन वर्मा की अध्यक्षता में पीठ संचालित है। जहां आधुनिक युग की सभी व्यवस्थाएं आज अंजाम पा चुकी हैं। `हाईटेक` झांकी का तो यहां कहना ही क्या। यह सिद्धपीठ दैवी महात्म्य की स्थापित पीठ है। जिसका पुराणों में भी वर्णन मिलता है।

एक बार फिल्म अभिनेत्री पद्मा खन्ना अपने पति जगदीश सिदाना के पास पहुंची थी। तो दोनों ने यहां पूजन-अर्चन किया था। वास्तव में जगदीश सिदाना यहीं मीरापुर क्षेत्र के बाशिंदे रहे हैं।

शेष फिर.....

(अगले अंक में आप पढ़ेंगे- सीपियों से बातें करते अजय की कहानी और डॉ बच्चन की रिहाइश स्थली की ज़ुबानी)

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