इलाहाबाद कल आज और...जब रंगमंचों ने बदली इलाहाबाद की शाम

  • Hasnain
  • Monday | 2nd October, 2017
  • local
संक्षेप:

  • पृथ्वीराज कपूर को लोगों ने दिया था दिल खोलकर दान।
  • उस काल में रंगकर्मियों के तीन-चार खेमें इलाहाबाद के ही थे।
  • रंगकर्मी दिन में अपने क्षेत्रों में काम करते, तो शाम ढले रिहर्सल करते थे।

--वीरेन्द्र मिश्र

वैदिक शहर इलाहाबाद की सांस्कृतिक परिधि में झांकने पर वहां सांस्कृतिक समारोहों की धूम मचती रही है, चाहे युवा कला धर्मी हो अथवा प्रौढ़ कलाकारों की फेहरिश्त सभी एक से बढक़र एक अपने-अपने क्षेत्र के धुरन्धर फनकार की पहचान संजोए रहे हैं। यह सब आपसी कलात्मक प्रतिद्वंदिता के चलते ही कामयाबी की शिखर चूमता रहा है। तभी तो इलाहाबाद की हर शनिवार-रविवार की शाम बदली-बदली सी रही है। पूरा शहर अपनी पहचान को सहेजता रहा है।

आरम्भिक दौर के नाट्य कर्मियों यानि रंगकर्मियों के बीच की बात की जाये, तो यह पता चलता है कि पृथ्वीराज कपूर जब अपना नाटक ‘पैसा’ लेकर इलाहाबाबद पहुंचे थे, तो उनके नाटक को देखने वाले दर्शकों की भीड़ टूट पड़ी थी और लोगों ने दिल खोलकर तब दान भी दिया था।

उस काल में तीन-चार खेमें रंगकर्मियों रंगमंचों की दुनिया में इलाहाबाद के ही थे। जो शाम बदल देते थे। हर रंगशिल्पी अपनी नौकरी काम-धन्धे के बाद कलात्मक पहचान में मशगूल हो जाता था।

एक ओर पैलेस सिनेमा थियेटर (जहां पहले नाटकों का मंचन भी होता था। बाद में फिल्मों का प्रसारण अंजाम पाने लगा) में तेजी बच्चन, कौशल बिहारी लाल, हीरा चड्ढा, विजय बोस, माला तन्खा, दमयन्ती रैना, सरनबली जैसे कलाकारों की टीम थी। तो दूसरी ओर प्रयाग रंगमंच की ओर से डॉ. सत्यव्रत सिन्हा, डॉ. जीवन लाल गुप्त, शान्ति स्वरुप प्रधान, रामचन्द्र गुप्त, शान्ता राम विष्णु कशालकर, सुशीला कशालकर, अमिताभ श्रीवास्तव, मोहित कुमार, कौशल शुक्ला, मंजुल वर्मा, बिहारी श्रीवास्तव, पंकज कपूर, राकेश वर्मा, निशीथ राय, शूरी सॉडर्स  जैसे कलाकारों की धूम मची रहती थी। सभी प्राय: नाटकों को मंचन करने में सर्वाधिक व्यस्त रहते।

तीसरा अनुकूल बनजी, विपिन तिवारी, पालोक बसु, डॉ. खोपर, नन्दू ठाकुर, सुरेन्द्र सिंह, सूर्या अवस्थी, अंजना, प्रतिमा वर्मा  जैसे कलाकारों की टीम थी। सभी एक से बढक़र एक कलाकार। मजे की बात ये कि तब रेलवे क्लब, हिन्दुस्तानी अकादमी, प्रयाग संगीत समिति (रामबाग) रिहर्सल के लिए था, जहां महीनों रिहर्सल होता था। जब उनके नाटकों का शो होता, तो कहना ही क्या। कई बार तो शम्मू मित्रा, अल्काजी, शंकर सुहेल, एस.एम. अब्बास, रामगोपाल, राम कपूर, यूनूस परवेज सहित देश के अन्य प्रान्तों से भी कलाकार पहुंचते।

रंगकर्मियों के बीच सिविल लाइन्स वासी वीरेन्द्र शर्मा ऐसे कलाकार उभरकर सामने आये कि उन्होंने धूम ही मचा दी थी। ‘अखिल भारतीय नाट्य समारोह’ का आयोजन अल्फ्रेड पार्क के प्रयाग संगीत समिति में आरम्भ करवा दिया। जिसमें पूरे देश से रंगकर्मियों का 20-25 दिनों के लिए जमावड़ा किसी मेले से कम नहीं होता था।

चाहे रंगला-रंगली के माध्यम से प्रस्तुतिकरण हो चाहे ‘नट-नटी’ के माध्यम से गुजराती, मराठी, पंजाबी, राजस्थानी, बिहारी, हिन्दी, हिमाचली, बंगाली यहां तक कि दक्षिण भारत से भी कलाकारों का समागम एक मिसाल बनने लगा। मज़े की बात ये भी थी, कि सभी हिन्दी भाषा में नाटकों का मंचन करते थे, जो हिन्दी भाषा के समर्पण के कथानक को बढ़ा रहा था, तो सभी भाषा-भाषियों की पोशाक संस्कृति, खान-पान भी खुलकर मुखर होते। वीरेन्द्र शर्मा, जो नाट्य समारोह के अध्यक्ष थे, वह कभी भी समझौता नहीं करते।

नवम्बर के महीने में नाटकों की धूम मचती, तो पूरा शहर उन नाटकों से किसी न किसी रुप में जुड़ जाता। उसमें शामिल होना फर्क की बात समझी जाती थी। नाटकों के मंचन में रंग शिल्प भी खुलकर मुखर होते थे। मधुर श्रीवास्तव की सुमधुर वाणी लोगों को लुभाती थी।

परन्तु यहां यह बात गौर करने वाली थी कि इसमें युवा कलाकारों का समागम अपनी नई पहचान बनाने वाला था। प्रयाग रंगमंच डॉ. सत्यव्रत सिन्हा जी के नेतृत्व में सर्वाधिक प्रतिष्ठित रहा। जहां के नाटकों का मंचन इलाहाबाद के प्रेमियों के अलावा लखनऊ रवीन्द्रालय में भी प्रस्तुत होते थे। उन्हीं दिनों बी.एम. बडोला, जब ‘नार्दन इण्डिया पत्रिका’ के सम्पादक बने, तो उनका भी नाट्य राग जागा था, संगोष्ठी का दौर भी चल पड़ा था।

‘सखाराम बाइन्डर’ हो अथवा ‘प्रेम तेरा रंग कैसा’ या फिर ‘ये पांव कहां रखूं’ सभी नाटकों की अपनी लोकप्रियता रही और जिनमें मंच विधान और प्रकाश व्यवस्था का कोई तोड़ नहीं होता था और कलाकारों की कलात्मक क्षमता तो अपनी तरह से होती ही थी। दीगर बात थी, तो ये कि इसमें सभी रंगकर्मी दिन पर अपने-अपने क्षेत्रों में काम करते, तो शाम ढले रिहर्सल में बैठकर नयी कहानी रचते। ‘प्याज के छिलके, सत्यम् शिवम् सुन्दरम’ भी खूब लोकप्रिय रहे। डॉ. धर्मवीर भारती जी की कृतियां हों अथवा डॉ. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ‘लड़ाई’ इनकी भी खूब चर्चा होती।

परन्तु आज समय बदल गया है। सतीश चित्रवंशी जैसे रंगकर्मी फिल्मों के निर्माण में सक्रिय हो चले है। डॉ. अनुपम आनन्द प्राध्यपक है। ‘मयूर रंगमंच’ के रामगोपाल की सक्रियता यथावत बनी हुई है और शशिकान्त जैसे युवा रंगकर्मी भी खड़े हुए है, जो विद्यालय में अध्यापन करने के साथ करीब-करीब हर साल ही ‘हाईटेक’ व्यवस्थाओं के साथ बच्चों के नाटकों का मंचन शहर में तो करते ही हैं। राष्ट्रीय परिधि में और अब तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय भी उनके नाटकों का प्रदर्शन करवाता रहता है।

कल्पना सहाय, राकेश वर्मा, सक्सेना जी के नाटकों की प्रस्तुतियां भी होती थी। कहने का आशय यह कि भारत सरकार ने इलाहाबाद के रंग शिल्प को पहचाना और उसे मौका देना आरम्भ किया है। आज इलाहाबाद के रंगकर्मियों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहचान है। यहीं से पारितोष सण्ड जैसा कलाकार फिल्मों में छा गया, तो अनुपम श्याम ने धारावाहिक ‘प्रतिज्ञा’ से धूम मचा दी। वरुण बड़ोला को कौन नहीं जानता। तिगमान्शु धूलिया जेसे फिल्म निर्देशक को कौन नहीं जानता वह भी यहीं के रहे हैं। फक्र है उन्हें वो इलाहाबादी है।

अतीत के पन्नों में झांकना भी होगा। संगीत एवं नाटक प्रभाग ने जब ‘बढ़ते कदम’ का निर्माण किया था, तो वीरेन्द्र नारायण और शंकर सुहेल के निर्देशन में उनका प्रदर्शन मेयोहाल के प्रेक्षाग्रह में किया गया था। बाद में जब ‘रामचरित मानस’ तैयार हुआ, तो इलाहाबाद के सैकड़ों कलाकारों को शंकर सुहेल ने मौका दिया, जिसमें सुरेन्द्र सिंह जैसे रंगकर्मी की पहचान खुलकर बोली थी। यही नहीं इलाहाबाद शहर के अधिकांश घरों के कलाप्रेमी नियमित ‘रामचरित मानस’ से जुड़ गये थे। यह ध्वनि एवं प्रकाश का प्रदर्शन महामना मदन मोहन मालवीय के स्टेडियम में होता रहा। निश्चित रुप से एक इतिहास बन गया था।

 

इलाहाबाद की शाम तब बदल गयी थीं। अब युवा कलाकारों की पहचान नये आयाम के साथ आ रही है, ताकि तमाम संभावनायें साकार हो सकें।

परन्तु आज ‘हाईटेक’ युग होकर भी ऐसे रंगमंच प्रदर्शनों का जरुर अभाव है। जरुरत है तो जागृति अभियान की, जो उत्तर मध्य सांस्कृृतिक केन्द्र के अलावा भी रंग शिल्प को प्रदर्शित करें, तो निश्चित ही उसकी अपनी पहचान होगी और नई पीढ़ी को भी नये मुकाम मिल सकेंगे।

(आज की ‘अनकही-अनसुनी’ यहीं तक। अगले अंक में फिर भेंट होगी। खास कहानी के साथ।)

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