- मोहब्बत का लखनवी अंदाज
- नज़ाकत और नफासत भरी मोहब्बत की कहानी
- लखनऊ में ऐसे किस्से बहुतेरे हैं
By: अश्विनी भटनागर
लखनऊः छोटे से, गोरे से, हल्के से घुंगराले बाल वाले पांडे जी ने हाई स्कूल पास करते ही दो शौक पाल लिये थे। एक सिग्रेट पीने का और दूसरा यारी का। पांडे जी कॉलेज सिर्फ दोस्तों से मिलने जाते थे और फिर उनके साथ सारा दिन और लगभग आधी रात बिताते थे। उनके कई अड्डे थे जहां पर उनको सिग्रेट, चाय और दोस्तों की अंतहीन खुराक मुहया होती रहती थी। कुछ नेतागिरी भी कर लेते थे पर और किसी चीज़ में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी।
एक दिन वो बसंत सिनेमा से अपने दोस्तों के साथ सिनेमा देख कर निकले और लालबाग की मशहूर चाय की दूकान पर जा बैठे। सिग्रेट सुलगाई ही थी की सड़क के पार सामने भोपाल हाउस पर नज़र पड़ी। तीसरी मंजिल की खिड़की खुली हुई थी और एक लड़की बाहर झाक रही थी। पांडे जी ने उसे नज़र भर देखा और दिवाने हो गये। उसे वो एकटक तब तक देखते रहे जब तक दोस्तों ने उन्हें टोका “अमा पांडे तुम्हें क्या हो गया है। लड़की देख रहे हो! नज़र हटा लो नहीं तो किसी काम के नहीं रहोगे।
कल का दोस्तबाज़ आज आशिक हो चुका था। उन्होंने तीसरी मंजिल वाली लड़की को तब तक निहारा जब तक वो खिड़की से गायब नहीं हो गयी। पांडे जी ने फिर आह भरी, सिग्रेट का लंबा सुट्टा लिया और ऐलान कर दिया, हम लोग इसी समय पर इस चाय की दुकान पर अब रोज़ मिलेंगे। ज़रा और देख लू, परख लू। फिर बात आगे चलाई जाएगी।
दोस्त-दोस्त होते है और लडकियों के चक्कर में न फ़सने की कसम के बावजूद पांडे जी के साथ रोज़ चाय की दूकान पर जमा होने लगे। वो घंटो वहां चाय–सिग्रेट करते रहते और जब खिड़की नहीं खुलती तो देर शाम को हाफ रेट में नाज़ सिनेमा में लगी तीसरी मंजिल फिल्म बार-बार देखने पहुंच जाते। पांडे जी कहते मुझे तीसरी मंजिल से अपना तआरुफ़ पूरी संजीदगी से बनाये रखना है। वो नहीं दिखी तो क्या हुआ फिल्म ही देख लेते है। दोस्त फिल्म बार-बार देख कर चट गये थे पर यार की भावनाओं का सम्मान करते हुए उन्होंने कभी उफ़ नहीं की।
पांडे जी एक महीने तक खिड़की खुलने का इंतजार करते रहे। वो नहीं खुली, माशूका नहीं दिखी पर पूरे तीस दिन वो सड़क पार करके भोपाल हाउस में उसका पता लगाने नहीं गये। लोगों ने कहा भी पर उन्होंने मना कर दिया। एक शरीफ लड़की के बारे में पूछताछ करना गलत है। बदनाम हो जायेगी, उन्होंने फ़रमाया था।
पांडे जी पिछले चालीस सालों से जब भी भोपाल हाउस के सामने से गुज़रते हैं तो रुक कर तीसरी मंजिल को ज़रूर एक पल के लिये देखते हैं। शायद वो अपनी पहली, एक तरफ़ा, नाकामयाब मोहब्बत को सलामी देते हैं।
लखनऊ में ऐसे किस्से बहुतेरे हैं। यहां की मोहब्बत एग्रेसिव नहीं बल्कि शालीन हुआ करती थी। आज भी जो पुश्तैनी लखनऊ वासी हैं वो अपने ज़ज्बात बड़ी नज़ाकत और अदब से पेश करते है। अपनी बात दूसरे तक पहुंचाने के लिए पहले कई तरीके हुआ करते थे। पतंग उसमें सबसे लोकप्रिय था। लड़के अपना प्रेम पत्र पतंग के जरिये लड़की की छत्त पर उतार देते थे। अगर लड़की की समझ में लड़का आ जाता था तो वो इशारों में अपनी रजामंदी ज़ाहिर कर देती थी और फिर एक छत्त से दूसरी छत्त के बीच में रिश्ता जुड़ जाता था।
पर इसमें ग़लतफ़हमी भी हो जाती थी जैसा की चौक के एक नवाब साहिब के साथ हुआ था। उनके बेटे ने पतंग से अपनी चिट्टी भेजी पर वो मिल गयी लड़की की मां को। उसने पैगाम का जवाब अगले ही दिन गली से निकलते हुए नवाब से भरपूर नज़र मिलाकर दिया। नवाब साहिब दीवाने हो गये और कुछ दिनों में ही मोहतरमा को बियाह कर ले आये। नवाब साहिब का घर तो आबाद हो गया पर नवाबजादे पतंग के चक्कर में बर्बाद हो गये।
छत्त टापना इश्क का एक और रिवाज़ था। ये लड़की की हां होते ही शुरू हो जाता था। पुराने लखनऊ के मकानों की छत्ते मिली हुई है। लड़के भरी दोपहर या देर रात में छत्ते लागते हुए अपनी माशूका के पास पहुंच जाते थे। काम जोखिम वाला था। कई ने छत्त से गिर के चोटे खायी तो कई चोर होने के शक़ में हवालात पहुंचा दिये गये थे।
पर जैसे-जैसे लखनऊ में रोशन खयाली फैलती गयी लड़के लड़कियों को मिलने जुलने के लिये रेस्तरा भी खुल गये। स्टेडियम के सामने ड्राइव इन शायद पहला ऐसा रेस्तरा था। लालबाग में एल्लोरा भी जोड़ों के बैठने के लिये अच्छी जगह बन गयी थी। इनके आलावा बनारसी बाग, रेजीडेंसी, शहीद समारक, दिलकुशा, सिकंदर बाग, कुकरैल, मूसा बाग और गोमती का किनारा मोहब्बत करने वालों को शरण देते थे।
जैसा आज है वैसा उस समय भी था। पुलिसवालों की जोड़ों से उगाही और तथाकथित भाइयों के गैंग जिन्हें लड़के लडकियों का स्वर्जानिक सम्पर्क नापसंद था। पर इन बलाओं से टकरा कर अगर इश्क नहीं किया तो फिर ज़िन्दगी में क्या किया, भई?
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