अनकही-अनसुनीः चौक का शहजादा जिसने लखनऊ को उसकी ठेठ जुबान दी 

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  • Saturday | 26th August, 2017
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संक्षेप:

  • चौक के शहजादे थे अमृतलाल नागर
  • अमृतलाल नागर ने दी लखनऊ को ठेठ जुबान
  • उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः एक है देवनागरी, दूसरी है नागरी। देवनागरी लिपि है तो नागरी भाषा है, अमृतलाल नागर की भाषा। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर लखनऊ के चौक इलाके में रहते थे। चौक की पुरानी गलियों और कुचों में हिंदी, हिन्दुस्तानी, उर्दू का एक अद्भुत घालमेल था जिसका प्रयोग यहां के बाशिंदे अपने तरीके से करते थे। अमृतलाल नागर ने इसी भाषा को अपने उपन्यासों, कहानियों और कविताओं में नायब तौर पर इस्तेमाल किया था। साथी साहित्यकारों और आलोचकों ने इस मीठी बोली को ‘नागरी’ के नाम से नवाज़ा था।

अमृतलाल नागर के निकट सहयोगी प्रोफेसर एसपी दीक्षित कहते हैं, "उन्होंने लखनऊ के जनजीवन को ओढ़ा, बिछाया। इसको पूरी तरह से जिया। उसके पूरे इतिहास और पूरी सामाजिक संरचना को समझा और हर वर्ग से निकट संबंधित स्थापित कर तब उसे लेखन में परिणित किया। बूंद और समुद्र के बारे में लोग बोलते हैं कि उसमें चौक की गलियां बोलती हैं. घरों से वहीं आवाज़ आती है। वहीं संवाद... उसी तरह के पात्र।"

अमृतलाल नागर का जन्मदिन 17 अगस्त को हुआ था। उनका जन्म 1916 में आगरा की चौराहे वाली गली, गोकुलपुरा, में हुआ था और मृत्यु 23 फरवरी 1990 में हुई थी। अपने 73 साल के जीवन काल में उन्होंने चौदह उपन्यास लिखे, बारह कहानी संग्रह और 6 महत्वपूर्ण निबंध, रिपोर्ट और मेमॉयर। इसके अलावा कविता, हास्य-व्यंग, बाल साहित्य, नाटक, रेडियो प्रोग्राम, फिल्मों की कहानिया और स्क्रिप्ट भी उन्होंने लिखी थी। 1981 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

एक तरह से अमृतलाल नागर लखनऊ के ऐतिहासिक चौक इलाके के प्रतीक पुरुष थे। हजरतगंज से शाहमीना रोड होते हुए पुराने किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज से सामने से गुज़रते हुए हम जब चौक के चौराहे पर पहुंचते है तो बस उसी के थोड़ा आगे खुनखुनजी ज्वेलर की मशहूर कोठी है। इसी चौड़ी सड़क पर चलते हुए बान वाली गली कटती है और फिर मिर्ज़ा मंडी का मोड़ आता है। नागर साहब मिर्ज़ा मंडी में रहते थे जिससे कुछ दूरी पर ही कोनेश्वर का पुराना मंदिर है।

अमृतलाल नागर इस मोहल्ले की एक पुरानी कोठी में किराये पर रहते थे। कोठी का दरवाज़ा इतना भारी और बड़ा था कि हर आदमी उसको आसानी से नहीं खोल सकता था। एक नौकर वह दिनभर बैठा रहता था जिसका दरवाजा खोलना ही एक मात्र काम था। सत्यजीत रे ने शतरंज के खिलाड़ी और श्याम बेनेगल ने जूनून फिल्मों की शूटिंग नागर साहब की कोठी में ही की थी। वो चौक की धरोहर का सिर्फ इमारती प्रतीक ही नहीं थी बल्कि लखनवी नागर के व्यक्तित्व की मिसाल भी थी।

नागर साहब गुजराती ब्राहमण थे पर उनका व्यक्तित्व पूरा लखनवी था। गोरे चिट्टे, तीखे नयन नक्श वाले नागर साहब को कोई पंजाबी खत्री समझता था, कोई कन्नौजिया ब्राहमण तो कोई शिया मुस्लमान। वास्तव में वो यह सब थे क्योंकि वो लखनऊ के चौक के ठेठ बाशिंदे थे। पान और भांग उनके प्रिय शौक़ थे। सुबह दिनचर्या शुरू होने से पहले वो भांग का गोला निगल जाते थे और फिर मुह में पान की गिलौरी दबा लेते थे। सफ़ेद झक कुर्ते में वो दालान में पड़े मसनद से लैस तख़्त पर आ बैठते थे और अपने लिपिक को डिक्टेशन देना शुरू कर देते थे। नागर साहब ने ज्यादातर क़िताबे लिखी नहीं थी बल्कि डिक्टेट की थी और इसी वजह से चौक की विशिष्ट बोली का प्रभाव उनमें हैं।

चौक लगभग तीन सौ साल पुराना है। वैसे तो लखनऊ बारहवी शताब्दी में ही बस गया था पर चौक का इलाका तब बसना शुरू हुआ जब नवाब असफ उद दौला 1775 में अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ ले आये। अवध के इस तीसरे नवाब ने यहां पर कई इमारतों का निर्माण करवाया और चौक रिहाइश बढ़ने लगी। जल्द ही चौक लखनऊ का सबसे बड़ा बाज़ार हो गया और आज भी अपने सराफे, चिकन करी, इत्र, फूलों की मंडी वगेहरा की वजह से जाना जाता है। राजा की हरी (भांगवाली) ठंडाई, दीक्षित की चाट, लल्ला और इदरिस की बिरयानी, राम आसरे की मिठाई, टुंडे के कबाब, अजहर के पान, रस्तोगी टोला की चिकनकारी आदि चौक की पहचान है।   

चौक की मजे की बात यह है कि चौक चौराहे के इर्दगिर्द लगभग एक किलोमीटर का इलाका पूरी तरह से हिंदु है पर जैसे ही फूल वाली गली से होते हुए हम अकबरी दरवाजे की तरफ बड़ते है तो मुस्लिम बहुल्य आबादी शुरू हो जाती है। हिंदु इलाके में ज्यादातर रस्तोगी, खत्री, ब्राहमण, कायस्थ, कश्मीरी रहते है। चौक के पूरे इतिहास में हिंदु–मुस्लिम दंगा कभी नहीं हुआ है पर शिया–सुन्नी दंगा 1775 से 1980 तक सालाना घटना हुआ करती थी।

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