अनकही-अनसुनीः कभी गलियों और कूचों में बसता था लखनऊ

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  • Saturday | 10th March, 2018
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संक्षेप:

  • सुनील दत्त गन्ने वाली गली के बाशिंदे थे
  • मान्यता दत्त लखनऊ चौक की रहने वाली हैं
  • अमृत लाल नागर यहां की गलियों को शहर की दूरबीन कहते थे

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः लखनऊ वास्तव में उसके कुचों और गलियों में बस्ता था और शायद आज भी उसका असली वजूद उन्हीं में महफूज़ है। वैसे तो पिछले तीन–चार दशकों में शहर चौक, अमीनाबाद, हजरतगंज से फ़ैल कर एक तरफ तो काकोरी-मूसा बाग तक पहुंच गया है तो दूसरी तरफ वो चिनहट और सुल्तानपुर रोड से भी आगे बढ़ गया है। इसी तरह दो दशक पहले तक कानपुर रोड पर स्थित अमौसी गांव में सिर्फ हवाई अड्डा ही हुआ करता था पर आज आबादी यहां से कई किलोमीटर आगे तक बढ़ गयी है। पर इस सब विस्तार के बाद भी अगर लखनऊ की रूह कही बस्ती है तो उसकी रिहायश अकबरी गेट की गलियों में ही है, विशेषकर बान वाली गली, या फिर अमीनाबाद में बताशे वाली गली में।

बहुत पुरानी बात अगर हम छोड़ दे और हाल फिलहाल की बात करें तो इन गलियों ने लखनऊ की तहज़ीब और उसके अदब को पोषित करने में बड़ा योगदान दिया है। इनमें कई ऐतिहासिक घटनाएं हुई है और हर क्षेत्र के दिग्गज इनमें पले-बढ़े है। बहुत कम लोगों को पता है कि बलराज दत्त उर्फ़ मशहूर फ़िल्मकार सुनील दत्त गन्ने वाली गली के बाशिंदे थे। वो लखनऊ बार–बार आते थे और हर बार अपने पुराने घर ज़रूर जाते थे। साथ ही वो अमीनाबाद के हनुमान मंदिर के दर्शन के लिये भी जाते थे। सुनील दत्त और उनकी पत्नी नर्गिस के मंदिर आते ही सारा बाज़ार उधर उमड़ पड़ता था और वो बड़े इत्मिनान से अपने चाहनेवालों से मिला करते थे। रोचक बात यह भी है कि उनके बेटे संजय दत्त की पत्नी मान्यता, चौक की रहने वाली है। सुनील दत्त से भी शायद बड़ी हस्ती, हिंदी फिल्मों के हरदिल अज़ीज़ संगीतकार नौशाद चौक की दरसनी पीर गली में रहते थे। मुंबई जाने से पहले उन्होंने अपनी कला को इन गलियों और चौबारों में सजाया और निखारा था।

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक अमृत लाल नागर लखनऊ की गलियों को लखनऊ शहर की दूरबीन कहा करते थे। वो खुद बान वाली गली में रहते थे। बान वाली गली को 17-18वीं शताब्दी में वैद्य वाली गली कहा जाता था क्योंकि यहां पर कई जाने माने वैद्य रहा करते थे। इनमें सबसे मशहूर मणिरामजी सारस्वत जेटली थे। उन्होंने 1620 में गुणरत्न माला लिखी थी जिसमें उपचार की विधाओं और तरीके के बारे में विस्तार से वर्णन था। उनका औषधि शास्त्र 1886 में उनके वंशज कल्लूजी वैद्य ने प्रकाशित किया था। प्रजावैद्य और रामनारायण स्वर्णकार भी अपने समय के बड़े वैद्य थे जिनकी वजह से बान वाली गली को वैद्य वाली गली कहा जाता था।

हिंदी के मशहूर कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला बताशे वाली गली में रहते थे और उनकी कई रचनाये दुलारे लाल भार्गव की प्रेस गंगा ग्रंथागार में छपी थी। कहानी सम्राट मुंशी प्रेम चंद ने मारवाड़ी गली के एक बेहद छोटे से मकान में रहते हुये अपने उपन्यास रंगभूमि की रचना की थी। यहां से थोड़ी दूर पर अमीनाबाद पार्क से सामने सेंट्रल होटल में देश के नामचीन लेखक, कवि और शायर आ कर ठहरते थे।

भारत के स्वतंत्रा संग्राम के दौरान मोती लाल नेहरु जब भी लखनऊ आते थे तो बताशे वाली गली में रुकते थे। बाबु संपूर्णानंद बताशे वाली गली में रामतीर्थ भवन में रहते थे और उनके बाद आचार्य नरेन्द्र देव इस मकान में आ कर रहे थे। केशवदेव मालवीय भी यही रहते थे और लाल बहादुर शास्त्री का यहां अक्सर आना जाना होता था। 1942 के आंदोलन का केंद्र बताशे वाली गली थी। इसको इसलिये चुना गया था क्योंकि यह तीन तरफ से खुलती थी और आंदोलनकारिओं को पुलिस को छकाने में आसानी होती थी। 

लखनऊ की गलियों के नाम अक्सर जात या काम सूचक होते थे जैसे गुजराती गली, मारवाड़ी गली, सिंघन की गली, कायस्थ गली, सोनार गली, बब्बू वाली गली, गली नारायण दास, मीना गली, कंघी वाली गली, बान वाली गली, चूड़ी वाली गली, गली हम्माम, तारवाली गली, चिक वाली गली, सिरके वाली गली, शीरमाल वाली गली, टप्पे वाली गली, भैंस वाली गली, गधे वाली गली, पीपल वाली गली, अछूती गली आदि। एक ज़माने में सबसे लोकप्रिय चावल वाली गली होती थी पर यहां चावल नहीं बिकते थे बल्कि जिस्म फ़रोशी होती थी।              

खिन्नी वाली गली एक समय काफ़ी मशहूर थी क्योंकि उसमें उर्दू शायरी के उस्ताद मीर तकी मीर का दौलतखाना था। मर्सिया विधा के उस्ताद मीर अनीस की कब्र कूचा–ए-मीर अनीस में है, जबकि मीर दबीर कूचा–ए-दबीर में दफन है। टकसाल वाली गली में हज़रत नाशिक दफ़न है जबकि पीनास वाली गली में हजरत मोहनी साहब की चिता सजी थी।

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