अनकही-अनसुनीः 1820 में लखनऊ में बनी थी पहली शेरवानी

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  • Saturday | 2nd September, 2017
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संक्षेप:

  • 1820 में लखनऊ में बनी थी पहली शेरवानी
  • अचकन 2200 साल से है हिंदुस्तान की पौशाक 
  • अचकन को जवाहरलाल नेहरु ने दी नई पहचान

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः अदब, क़ायदा, तहज़ीब के साथ जब अमीरजादों और नवाबजादों के पहनावे की बात आती है तो शेरवानी और अचकन का ज़िक्र ज़रूर आता है। लखनऊ के यह दो पहनावे देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी खूब चलते है और शाही ठाट-बाट का प्रतीक है। उत्तर भारत में शायद ही ऐसी शादी होगी जिसमें दूल्हा अचकन या शेरवानी पहन कर जयमाल के दौरान न खड़ा होता होगा और अगर हाथ में तलवार है तो उसकी शान को चार चांद लग जाते है।

अमूमन शेरवानी और अचकन को मुस्लिम कल्चर के साथ जोड़ कर देखा जाता है। हमारे दिमाग में दर्जनों ऐसी मुस्लिम सोशल फिल्में बसी है जिसमें राजेंद्र कुमार, दिलीप कुमार, रहमान, गुरु दत्त या राजेश खन्ना जैसे स्टार शेरवानी पहने हुए आदाब अर्ज़ करते है और फिर अपनी माशूका के चेहरे से चिलमन हलके से खिसका देते है। इन सब की वजह से शेरवानी और अचकन मुसलमानों के पहनावे के तौर के जाना जाने लगा है।

पर यह सच नहीं है। शेरवानी उतना ही हिंदु पहनावा है जितना धोती कुर्ता या फिर अंगरखा। वास्तव में अचकन अंगरखे से ही बनी है और इसके इस्तिमाल का इतिहास मुस्लिम शासन से पहले का है। पर पहले शेरवानी के बारे में जो लखनऊ से ही शुरू हुई और इसको इजात करने में किसी एक कौम का हाथ नहीं था।

शेरवानी लखनऊ में सबसे पहले बनी थी। लगभग 1820 में इसकी प्रेरणा ब्रिटिश फ्रॉक कोट से मिली थी। उस समय लखनऊ के मशहूर डिज़ाइनर दर्जियों के सामने एक ऐसी पोशाक बनाने की चुनौती थी जो की भारतीय भी हो और ब्रिटिश हुकमरानों के मिजाज से मेल भी खाती हो। अंगरखे का संशोधित संस्करण यानी अचकन चलन में पहले ही थी। लखनऊ के उस्ताद दर्जियों ने इन दोनों को मिलाकर शेरवानी इजात की।

शेरवानी अचकन से अलग है। इसकी लम्बाई कम होती और इसमें भारी सूटिंग नुमा कपड़े का इस्तमाल किया जाता है। शेरवानी में अस्तर भी लगता है। कमर से ले कर कूल्हे तक इसका घेर अचकन से ज्यादा होता है। शेरवानी के नीचे कुर्ता पहना जाता है। चूड़ीदार पैजामा अमूमन शेरवानी के साथ पहना जाता है पर धोती या चौड़ा पैजामा भी चलता है।

शेरवानी के बनते ही लखनऊ के कुलीन वर्ग ने इसको अपने औपचारिक पहनावा बना लिया था। वो ब्रिटिश फ्रॉक कोट की तरह ही था पर ज्यादा सलीकेदार। 1820 से लेकर अगले पचास सालों में शेरवानी दिल्ली दरबार होते हुए पूरे उत्तर भारत फ़ैल गयी और फिर दक्षिण में भी, खासकर हैदराबाद में। लगभग 150 साल यह एक तरह का स्टाइल स्टेटमेंट था और हिंदु भी इसे उसी शौक़ से पहनते थे जैसे मुस्लिम इसको अपने पर सजाते थे।

हिन्दुस्तानी और अंग्रेजी परंपरा का शेरवानी अनूठा मिश्रण है। हालांकि रोज़मर्रा के ज़िन्दगी में इसका चलन 1970 के बाद काफी कम हो गया पर आज भी शादी–विवाह से ले कर दवात-ए-वलीमा तक शेरवानी पहली पसंद है।   

शेरवानी से पहले अचकन थी। इसको बग़ल बांधी भी कहते है क्योकि शुरू-शुरू में इसमें बटन नहीं होते थे और इसको बाये हाथ के नीचे डोरे से बंधा जाता था। अचकन शब्द संस्कृत के अंगरखा से निकला है और इसका चलन करीबन 2200 साल पुराना है। अंगरखे के तरह अचकन भी पटका, कमरबंद या डोरे से बांधा जाता है और उसके नीचे धोती या चूड़ीदार पैजामा पहना जाता था।

यह शेरवानी से लंबा होता है लगभग घुटनों के नीचे तक और इसमें गोटे या बदले की एम्ब्रायडरी होती है। इसको औपचारिक समारोहों में भी पहनते थे और घर में भी। अचकन में हल्का कपड़ा लगता है और भरी भी। 1947 के बाद भी अचकन का चलन काफी था, विशेषकर राजघरानों में, पर वक़्त के साथ-साथ यह रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से गायब हो गया है पर शादियों में अब भी पहना जाता है।

अचकन और शेरवानी के इतिहास को सबसे रोचक मोड़ जवाहरलाल नेहरु ने दिया है। उन्होंने ही अपनी ड्रेस सेंस से भारत के इस पारंपरिक पहनावे को अंतर राष्ट्रीय ख्यति दी और आज जो हम पहनते है वो उन्हीं की देन है। नेहरु जैकेट अचकन शेरवानी की वंशज है।

इसके जन्म के पीछे रोचक कहानी है। आज़ादी के बाद, नीरद चौधरी जैसे जाने-माने लेखकों और दक्षिण पंथी वर्गों ने नेहरु की इस बात पर आलोचना शुरू कर दी थी कि वो अचकन और शेरवानी जैसे मुस्लिम स्टाइल के कपड़े पहनते है जबकि उनको परंपरागत भारतीय पौशाके पहना चाहिये।

इस आलोचना के चलते बंद गले का कोट और फिर नेहरु अचकन का इजात हुआ। नेहरु की अचकन घुटनों तक थी, जिसमें चायनीज कालर था और बाई नीचे की तरफ एक जेब थी, बंद गले की तरह। ज्यादातर यह अचकन काले, सफ़ेद या भूरे रंग में बनती थी और चूड़ीदार पजामे के साथ पहनी जाती थी।

मज़े की बात यह है कि बंध गले का कोट जिसको हम नेहरु जैकेट कहते है नेहरु ने कभी पहना ही नहीं था। बंद गला कुल्हों तक होता है जबकि नेहरु-बंदगला, अचकन की तरह घुटनों तक था। 

नेहरु ने लंबे बंदगले अचकन का फैशन शुरू किया था। 1964 में नेहरु ने इसे प्रसिद्ध पत्रिका वोग के फोटो शूट के दौरान पहना था और यह कवर फोटो के रूप में छपी थी। जल्द ही यह नेहरु अचकन इतनी लोकप्रिय हो गई की मशहूर पॉप ग्रुप बीटल्स ने इसे 1967 के अपने कॉन्सर्ट में पहना था। जेम्स बांड भी इसे पहन चुका है। शौन कोन्नेरी ने इसे डॉक्टर नो में पहना था और हॉलीवुड के कई बड़े अभिनेता इसको अपनी पसंदीदा पौशाक मानते थे।

नेहरु की अचकन का प्रभाव इतना व्यापक रहा है कि 2012 में टाइम मैगज़ीन ने इसे टॉप 10 पोलिटिकल फैशन स्टेटमेंट्स में सातवे नंबर पर रखा था। वास्तव में इस पौशाक से लोग इतना रोमांचित हो जाते थे कि कार निकोबार द्वीप के आदिवासी नेता एडवर्ड कुट्चत ने भारतीय वायु सेना को अपने द्वीप पर हवाई अड्डा बनाने की 1959 में इज्जाजत तभी दी जब जवाहरलाल नेहरु ने उनके लिये अपनी जैसी अचकन सिलवा कर भेट की थी।

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