अनकही-अनसुनीः ‘बाग’ से चारबाग रेलवे स्टेशन बनने की कहानी
- Sonu
- Saturday | 5th August, 2017
- local
- चारबाग में ही हुई थी नेहरु-गांधी की पहली मुलाकात
- देश का सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशनों में से एक है चारबाग
- चारबाग 1916 तक वास्तव में एक ‘बाग’ था
By: अश्विनी भटनागर
लखनऊः जवाहरलाल नेहरू 26 दिसम्बर 1916 की सुबह बड़े जोश से चारबाग़ पहुंचे थे। साउथ अफ्रीका में सत्याग्रह आन्दोलन चलाने के बाद मोहन दास करमचंद गांधी हिंदुस्तान 1915 में लौट आये थे। बॉम्बे आने पर उनका कुछ महीने पहले ही बड़ा स्वागत हुआ था और मिस्टर गांधी के किस्से महशूर हो रहे थे। जवाहरलाल खुद इंग्लैंड से 1912 में ही लौटे थे और बैरिस्टर की डिग्री होने के बावजूद कांग्रेस से जुड़ गये थे।
जवाहरलाल के मन में कौतुहल था। वो उस मिस्टर गांधी से मिलना चाहते थे जिन्होंने शक्तिशाली अंग्रेज सम्राजवादी ताकत से लोहा ले कर बहुत हद तक जीत हासिल की थी। यह हमे नहीं पता कि जब मिस्टर नेहरू मिस्टर गांधी से मिले तो उन्होंने अपने पहले संपर्क में कौन सा पहला वाक्य कहा था। नमस्ते कहा था या फिर गुड मोर्निंग, पर इतना ज़रूर मालूम है कि नेहरु-गांधी की पहली मुलाकात लखनऊ के चारबाग में ही हुई थी और वहीं से इन युग पुरुषों की वो जोड़ी बनी थी जिसने 1947 में हमको अधीनता की बेडियो से मुक्त कराया था।
कांग्रेस का सेशन 26 से 30 दिसम्बर 1916 तक चारबाग में ही चला था। जवाहरलाल नेहरु ने यहां पर प्रस्ताव रखा था जिसमें भारत से दूसरे देशों में मजदूर भेजने की प्रथा को बंद करने की मांग की गयी थी। गांधी जी की मौजूदगी में यह प्रस्ताव पारित हुआ था। वो जगह जहां कांग्रेस सेशन हुआ था और जहां दोनों नेता अपन शुरुआती दिनों में मिले थे आज के चारबाग रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही है। एक छोटा सा बगीचा उस जगह को अपने में समेटे हुए है।
पर 1916 में चारबाग वास्तव में एक बाग ही था। अप्रैल 23, 1867, में 47-मील लम्बा लखनऊ–कानपुर रेल लिंक शुरू तो हो गया था पर लखनऊ स्टेशन ऐशबाग में था। आज जहां लखनऊ का विश्वविख्यात स्टेशन है वो चार महल के नवाबों की जागीर थी जिसमें कई बड़े बाग हुआ करते थे। इस इलाके को चार बाग कहा जाता था और यह मुन्नवर बाग के उतर में था। अंग्रेजों ने जब नया रेलवे स्टेशन बनाने का फैसला लिया तो इस इलाक़े को चार महल के नवाबों से ले लिया था। इस ज़मीन के बदले में उन्हें शहर में पुरानी इमली, मौलवीगंज, में ज़मीन दी गयी थी।
गांधी–नेहरू की पहली मुलाकात से दो साल पहले यानी 1914 में चारबाग रेलवे स्टेशन की नीव रखी गयी थी। इसका डिजाईन जेएच हार्नीमैन ने किया था पर जो शानदार अवधी–राजपूत–मुग़ल स्टाइल में लाल ईटों की बिल्डिंग हम आज भी देखते है उसकी परिकल्पना में चौबे मुक्ता प्रसाद की सबसे प्रमुख भूमिका थी। मुक्ता प्रसाद, लेनब्राउन एंड हुल्लेट, जिसको ईमारत बनाने का ठेका मिला था, उसके कंसल्टिंग इंजीनियर थे।
चारबाग की नीव लखनऊ के ईसाई बिशप ने रखी थी और उसका डिज़ाइनर भी अंग्रेज का था पर इमारत पूरी तरह से हिन्दुस्तानी बनी थी। इसमें कही भी पश्चिमी या फिर इंग्लिश वास्तु शास्त्र के प्रभाव की झलक नहीं मिलती है। मजे की बात है कि जब लखनऊ के नवाब और राजा अपने महल कोलोनियल स्टाइल में बनवा रहे थे तो अंग्रेज़ राजपूत–अवधी–मुग़ल स्टाइल का मिश्रण कर के वास्तु कला का नया नमूना इजात करने लगे थे।
चारबाग रेलवे स्टेशन 1925 में 70 लाख रुपये की लागत से बन कर तैयार हुआ था। यह देश का सबसे खूबसूरत स्टेशन ही नहीं है बल्कि भारत के दस सबसे व्यस्त रेलवे स्टेशन में से एक है। इस स्टेशन का साउंड सिस्टम इस तरह से डिजाईन किया गया है कि ट्रेनों की आवाजाही का शोर बाहर से सुनाई नहीं पड़ाता है। अंदर भी आवाज़ दब जाती है। यह अपने आप में मिसाल है।
चारबाग की इमारत में तमाम छतरिया और बुर्ज है। इन्हीं में पानी की व्यस्था छुपाई गयी है। रेलवे स्टेशनों पर भाप के इंजन के काल में पानी की बहुत ज़रूरत होती थी और उसके लिये बड़े-बड़े टैंक लाइन के निकट बनाये जाते थे। चारबाग में यह बड़ी कुशलता से छुपा दिए गए है।
पर सबसे हैरत की बात है कि जब हम स्टेशन को सामने से देखते है तो वो किसी राजपूत स्टाइल के महल की तरह नज़र आता है जिसमें खूबसूरत ऊचे खंबे है और उनपर छतरी बनी हुई है पर अगर हम असमान से देखे तो बिल्डिंग एक शतरंज की बिसात की तरह नज़र आता है जिसमें छोटी–बड़ी छतरिया मोहरों की तरह बिछी हुई दिखती है।
वैसे, इस शानदार इमारत से ही लखनवी तहज़ीब का खुलासा 103 साल से हो रहा है। जिसने भी तांगा, एक्का या रिक्शा यहां से पकड़ा है वो उनके हाकने वालों की जुबान पर कायल हुए बिना नहीं रह पाया है। वास्तव में, चारबाग लखनवी तहज़ीब का पहला दरवाज़ा है जिससे गुज़रते ही कोई भी ताउम्र लखनऊ का मुरीद हो जाता है और कह उठता हैः
एक लुत्फ-ए-खास दिल को तेरी आरजू में है
अल्लाह जाने कितनी कशिश लखनऊ में है!