अनकही-अनसुनीः शान-ए-अवध है लखनऊ का सिकंदर बाग

  • Sonu
  • Saturday | 13th January, 2018
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संक्षेप:

  • इश्क, दर्द और हैवानियत की अज़ीम मिसाल,
  • वाजिद अली खेला करते थे रहस्य और रासलीला,
  • लखनऊ के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार यहीं हुआ

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः हजरतगंज को गोमती पार निशातगंज से अशोक मार्ग जोड़ता है जिसका सबसे बड़ा चौराहा सिकंदर बाग का है। चौराहे के ठीक बगल में एक दरवाजा खड़ा है जिसे सिकंदर बाग का दरवाजा कहते हैं। इस बाग के तीन ऐसे दरवाजे हुआ करते थे पर 1857 की जंग में दो गोलाबारी की भेंट चढ़ गये थे।

सिकंदर बाग आज नेशनल बॉटेनिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट को अपने दामन में समेटे हुए है पर इसकी कहानी इश्क, दर्द और हैवानियत की अज़ीम मिसाल है। लखनऊ का सबसे बड़ा नरसंहार सिकंदर बाग में हुआ था। जहां पर 1857 में अंग्रेज़ फौजों ने लगभग 2200 आज़ादी के सिपाहियों को गोलियों और संगीनों से बुरी तरह से मौत के घट उतारा था। कहते हैं कि उनकी लाशें यहां पर तब तक पड़ी रहीं जब तक उनको चील कौवों ने पूरी तरह से नोच नहीं लिया। आज़ादी की पहली लड़ाई की यह सबसे विभत्स घटना थी। ऐसा कहा जाता है कि वो आत्माएं इस इलाके में भटक रही है। बहुत सारे लोग मानते है कि सिकंदर बाग में आज भी चीखने और कराहने की आवाजें सुनाई पड़तीं हैं। वो भुतहा है।

पर इससे पहले सिकंदर बाग एक दिलकश इश्ककियों का मंज़र पेश करता था। इसका निर्माण नवाब सआदत अली खान ने लगभग 1800 में शुरू किया था लेकिन इसको वास्तव में सजाया और संवारा अवध के आखरी ताजदार नवाब वाजिद अली शाह ने जिन्होंने इसको 1847 में गर्मियों की रिहाइश में तब्दील किया था। साढ़े चार एकड़ में फैले हुए इस बाग के बीच में एक मंडप बना हुआ है जिसमें वाजिद अली शाह रहस्य और रास लीला खेला करते थे। अपनी चहेती बेगम सिकंदर महल के नाम पर उन्होंने इस बाग का नाम रखा था। सिकंदर का असली नाम उमराव था पर जब वो नवाबी हरम में आईं तो सिकंदर बेगम हो गयीं और निकाह के बाद सिकंदर महल ने नाम से जानी जाती थीं।

सिकंदर बाग को बनवाने के लिये वाजिद अली शाह ने पांच लाख रुपए खर्च किये थे। इसमें एक मंडप, छोटी सी मस्जिद और रहने के लिये कोठी थी। बाग ऊंची कंगूरेदार दीवारों से घिरा हुआ था। इसमें दाखिल तीन दरवाजों से हुआ जा सकता था। एक दरवाजा गोमती नदी की तरफ था। दो दरवाजे अंग्रेजों ने ध्वस्त कर दिये थे। राणा प्रताप मार्ग की तरफ खुलने वाला दरवाजा ही बस बचा है। जिस पर नवाबी वक़्त का दो मछली वाले प्रतीक के साथ-साथ फ़ारसी, हिंदुस्तानी, यूरोपियन और आश्चर्यजनक रूप से चाइनीज वास्तु कला का उपयोग किया गया है। यह मिश्रण अजीब सा नहीं लगता है बल्कि दरवाजे की ख़ूबसूरती बढ़ता है।

वाजिद अली शाह के दरबार में काशी राम हुआ करते थे जिनको चित्रकला में महारत हासिल थी। सिकंदर बाग के दरवाजे के अंदर और उसके आस-पास उन्होंने बेहतरीन बूटे उखेरे जो लखनऊ की चिकनकारी की नफ़ासत की याद दिलाते है। नवाब साहब काशी राम के हुनर पर ऐसे फ़िदा हुए थे कि उन्होंने कलाकार पर खिल्लत निछावर कर दी थी। काशी राम की चित्रकारी आज भी सुरक्षित है और दरवाजे के अंदर देखी जा सकती है।

सिकंदर बाग सिर्फ दस साल तक खुशनुमा रहा था। वाजिद अली शाह के लखनऊ से रुख्सत होने के बाद, बेगम हज़रत महल ने अंग्रेजी दमन के खिलाफ बग़ावत कर दी थी। अंगेजों को शहर से खदेड़ दिया गया था और बाग में बागियों ने अपना कैंप बना लिया था।

सिकंदर बाग की लड़ाई 16 सितम्बर 1857 को शुरू हुई थी। अंग्रेजों का एक दस्ता इसके पूरब की तरफ से दक्षिण की ओर जा रहा था जब उस पर हिंदुस्तानी सिपाहियों ने ज़बरदस्त फायरिंग की थी। अंग्रेज़ बुरी तरह से फ़ंस गये थे। अंग्रेजों ने अपना तोपखाना लगाया और बाग पर भीषण गोलाबारी की जिसकी वजह से वो बाग की दीवार तक पहुंचने में कामयाब हो गये थे। बागियों ने दरवाजा बंद करने में देर कर दी और अंग्रेज़ अंदर गुस गये। उन्होंने 2000 सिपाहियों को एक दो मंजिला इमारत में धकेल दिया था और इसके बाद लखनऊ के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार हुआ था। लार्ड फ्रेडरिक रोबर्ट, जो इस घटना के चश्मदीद गवाह थे, ने लिखा है कि शव छः फुट की ऊंचाई तक एक पर एक लदे थे। घायल उसमें दब कर मार गये या फिर तड़प-तड़प कर शहीद हो गये थे।  कहते हैं उनकी चीख पुकार आज भी बाग में गूंजती है।                     

सिकंदर बाग दरवाजे में अंदर उदा पासी की मूर्ति लगी हुई है। वो वाजिद अली शाह की बॉडी गार्ड थीं और जब बाग में लड़ाई शुरू हुई थी तो वो एक पेड़ पर चढ़ गयी। जहां से उन्होंने अपनी बंदूक से अंग्रेजों को निशाना बनाया था। अंग्रेजों ने अंत में उन्हें  मार तो दिया पर उनकी वीरगाथा आज भी कायम है। वास्तव में सिकंदर बाग की लड़ाई में अंग्रेजों को भारी जान और माल का नुकसान उठाना पड़ा था। यह लड़ाई कितनी मुश्किल थी इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ब्रिटिश हुकूमत के इतिहास में एक दिन की जंग में इतने विक्टोरिया क्रॉस कभी नहीं नवाजे गये थे। कुल मिला कर वीरता और साहस के लिये अठारह विक्टोरिया क्रॉस दिये गये थे।

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