इलाहाबाद: कल आज और... लल्लन टॉप है दारागंज

संक्षेप:

गंगा-जमुनी तहजीब से दीदार करना है, तो वैदिक शहर इलाहाबाद के `हाईटेक` होने की पेंग के साथ दारागंज मुहल्ले में भ्रमण करना होगा, जहां एक ओर संस्कृत देववाणी के श्लोकों की अनुगूंज मिलेगी तो इस्लाम की आयतें भी सुनाई पड़ेगी। पूरे दारागंज में कब्र, दरगाह भी खूब मिलेंगे। वैदिक विद्वानों की ज्ञान शालाओं में पाठ प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों ब्राह्मणों का समाज भी मिल जुलकर जीवन जीता दिखाई पड़ेगा।

- वीरेन्द्र मिश्र

 अरे ! लल्लनटॉप है, दारागंज

क्या नहीं है यहां।

मौज, मस्ती, मानजी, लाढ़े (पैसा), सबकुछ गंगा मइया की कृपा से।

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अधिकांश तीर्थ पुरोहित यहां बाशिंदे हैं, तो जजमान भी स्वयं चलकर आते हैं और ज्ञानी-विज्ञानी ही नहीं ज्योतिष-तांत्रिक भी यहां हैं। लेखक गलबहियां करते कलमकार, कलाकार, पतंगबाज, स्वांग रचयिता या फिर मूंछो पर ताव ही नहीं मूंछ नृत्य भी यहां देखा जा सकता है। पान-सुपारी दोहरो के लबाब में डूबे लोग मिल सकते हैं। कोई किसी से कम नहीं है।

अब यही देखिये। नाम `दूकान जी` काम मूंछों पर ताव देना नहीं। बल्कि अपनी राजपूताना सी मूंछों को हाइटेक रूप में नचाना है। वह भी मूंछों में जलती मोमबत्ती बांध कर।

 है न दुनिया का अजूबा।

पर यह तो दारागंज की आम जुबान पर है। तभी तो `गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड` में भी नाम दर्ज है उनका। दारागंज में ही एक अखाड़ा से जुड़े हैं। महाकुम्भ अवसर पर तो वह मुख्य आकर्षण होते हैं।

 गीतकार प्रदीप जी के गीत - ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी...

लता जी की आवाज में जब भी गूंजता है, तो आंखें नम हो जाती हैं।

क्या आप जानते हैं। फिल्म गीतकार प्रदीप जी इसी दारागंज के बाशिंदे थे। यहीं उन्होंने इस गीत की रचना की।

 

दशकों तक मुम्बई से प्रकाशित `धर्मयुग` जैसी पत्रिका के सम्पादक धर्मवीर भारती `अंधायुग` वाले इलाहाबाद के ही थे और उनका विवाह पुष्पा जी संग इसी दारागंज में ही ब्राह्मण कुल में हुआ था।

 

निरालेपन भरा अंदाज `निराला` जी की प्राणस्थली भी दारादंज ही है। जहां न जाने कितने ही ऐतिहासिक कालछन्दों की कहानियां सुनी जा सकती है। सच!

ये दारागंज है। वैदिक शहर इलाहाबाद के वेणी बोध पर बसा है।

दाराशिकोह, गंगा तट पर मस्जिद बनवा कर यही पढ़ा करता था। और तो और वहीं भ्रमण करते संस्कृत श्लोकों का गायन और सस्वर वाचन भी करता था। आज वही स्थली दारागंज के नाम से स्थापित है।

 

दारागंज मुहल्ले के कालछंदों में आइये, झांकते हैं और जानते है कि इस वैदिक शहर की पहचान अब किस तरह की है। यह जीता जागता `हाईटेक` मुहल्ला भी बनता जा रहा है।

 

सम्राट अकबर ने 1553 में जब यहां किला बनवाने के लिए नींव रखी तो इस क्षेत्र की पहचान ने आकार ग्रहण करना शुरू कर दिया। बाद में दाराशिकोह ने ही इसे दारागंज के रूप में आबाद कर दिया।

 

7वीं शताब्दी में आदि जगद्गुरू शंकराचार्य जी त्रिवेणी तट पर पहुंचे तो उन्होंने महाकुम्भ स्थली के रूप में इस क्षेत्र को स्थापित करने का निर्णय किया, तभी `अखाड़ा` भी यहां बनाए ही नहीं स्थापित भी किये गये। 

 

इस पावन क्षेत्र को `वेदवती` क्षेत्र कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि ये क्षेत्र वैदिक ज्ञान-विज्ञान से जुड़ी रहा है।

वेदवती क्षेत्र बड़ा ही पावन क्षेत्र रहा है। त्रिवेणी तट का दशाश्वमेध और वेणी माधव मंदिर यहीं पर हैं। यही नहीं `नाग` क्षेत्र भी यही रहा है, तभी तो यहां `नागवासुकी` का प्राचीनतम् मंदिर भी बना है। भोगवती कुण्ड, प्रदूषण मुक्त जल क्षेत्र भी यहां है।

 

वास्तव में त्रिवेणी की प्राण स्थली वैदिक बस्ती भी यहीं रही, जहां वैदिक विद्वानों का ज्ञान-विज्ञान हो अथवा ज्योतिष शास्त्र, तंत्र साधना या फिर संस्कृत भाषा का विशद् अध्ययन केन्द्र हो सभी यहीं `वेदवती` में जी रहे हैं, जिनकी राष्ट्रीय परिधि में पहचान परिकल्पित रही हैं।

 

आज यह क्षेत्र `दारागंज` के नाम से आबाद है, जहां धूल-धूसरित ही क्यों चटक इन्द्रधनुषी रंगों में वैदिक शहर की पहचान समाहित है। हमारे अनुसंधानकर्ता लाल कटार की पहचान वाले तीर्थ पुरोहित श्याम सुन्दर शर्मा `बण्टू प्रयागी` ने अनेक कालछंदों को सहेजा हैं।

आदि जगद्गुरुशंकराचार्य ने जिन अखाड़ों की पहचान को कुम्भ मेले से जोड़ कर स्थापित करवाया उनमें निरंजनी अखाड़ा, पंचायती अखाड़ा, पंचदाशनामी अखाड़ा के मुख्यालय यहीं पर हैं।

 

यह सब वैदिक शहर इलाहाबाद के दारागंज मुहल्ले से ही जुड़ा है।

आइये दारागंज के मुहल्ले की गलियों में घूमते हैं और जानते है क्या-क्या है यहां लल्लनटॉप।

 

गंगा-जमुनी तहजीब से दीदार करना है, तो वैदिक शहर इलाहाबाद के `हाईटेक` होने की पेंग के साथ दारागंज मुहल्ले में भ्रमण करना होगा, जहां एक ओर संस्कृत देववाणी के श्लोकों की अनुगूंज मिलेगी तो इस्लाम की आयतें भी सुनाई पड़ेगी। पूरे दारागंज में कब्र, दरगाह भी खूब मिलेंगे। वैदिक विद्वानों की ज्ञान शालाओं में पाठ प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों ब्राह्मणों का समाज भी मिल जुलकर जीवन जीता दिखाई पड़ेगा।

 

हिन्दी साहित्य के पुरोधा महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी की कवितायें मुक्त छन्द के साथ उनकी मस्ती और जीवन्त भ्रमण से जीने की कला भी खूब-चढ़कर यहां बोलती सुनाई पड़ती है।

 

निराला चौराहा से अन्दर गली में घुसिये, वेणी माधव मन्दिर मिलेगा ही इसी के साथ अन्तिम छोर पर अहिल्याबाई होल्कर का बनवाया नागवासुकी मंदिर भी मिल जायेगा।

 

जो इतिहास के पन्नों में दर्ज है। यही नहीं वेणी बोध से नीचे की ढलान पर उतरिये दशाश्वमेध घाट और शिव मंदिर मिलेगी। और टोडरमल का बनवाया श्री गणेश मंदिर भी अपने इतिहास की यहां गवाही देता है।

 

गंगा से वापस ढलान चौक पहुंचिये `निराला चौक` की पहचान निराली है, लुंगी-गमछा पहने, मुंह में पान और सुपाड़ी का दोहरा भरे युवा- प्रौढ़ मिल ही जाते हैं।

 

ये जगह सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जैसे महाकवि के विचरण की भी रही है। वह स्वयं धन-दौलत से परे ज्ञान-साहित्य का खजाना थे।

 

कल्पना ही नहीं किजिए अनुभव भी सहेजिये। निराला जी जिस भी दुकान पर पहुंचते, जो कुछ मांगते उन्हें अवश्य मिल ही जाता। एक बार की बात है। चौराहे वाली मिठाई की दुकान (अब नहीं है) से उन्होंने कुछ मांगा। हलवाई दुकानदार ने मना कर दिया। बस फिर क्या था क्रोध उनका जो आभूषण था। सिर चढ़कर बोला। नंगे बदन वहां से निकले, कहीं गये और कुछ अंतराल के बाद लौटे तो एक बड़ी पोटली उनके हाथ में थी, उसे उस दुकानदार की ओर फेंकते हुए बोले, ले लेना जितना चाहना बाकी कल के लिए बचाय के धर लेना। बेचारा डर के मारे वह दुकानदार कांप रहा था। मांफी मांगी, पर बात नहीं बनी।

 

निराला जी अपने घर गल्ली में पहुंच गये।

ऐसे ही यहां जो भी तीर्थ पुरोहित हैं ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि से सभी के पुरखे जुड़े रहे हैं।

जरा `हाईटेक` हो चुके उनके वंशजों की पहचान पर दृष्टि डाले तो आप चौंकियेगा नहीं। नाम के साथ उनके झण्डों की पहचान चौंकाती है।

 

सुकहा ध्रुव नारायण `तोप वाले पण्डा`, लल्लन प्रसाद `रेलवाले-पण्डा`, लाल मोहरिया `नेपाल के पण्डा`। ये झण्डे उनकी शान और पहचान हैं।

 

पंच भइया `मोरपंख वाले पण्डा`, की पहचान तो महाराजा शिवाजी से जुड़ी मानी जाती है। सन् 1666 में अपने पुत्र संभा जी के साथ जब महाराजा शिवाजी यहां आये थे, तो दारागंज में इन्हीं के घर पर रूके थे। बाद में संभा जी ने जब राज गद्दी संभाली थी, तो उन्हें ताम्र पत्र भी दिया था। आज भी उनके पास धरोहर है।

 

ऐसे ही `चार चक्र वाले` लोकनाथ भरद्वाज पण्डा हैं।

 

तो सिन्ध प्रांत के तीर्थ पुरोहित अजय पांडे हैं जिनको `पान वाले पण्डा` के रूप में जाना जाता है। यानी यहां के पण्डों के झण्डों की निशानी भी बेमिसाल है।

 

इन पण्डों को `हाईटेक` अर्थात बही-खाता सबकुछ कम्प्यूटर में अब दर्ज है। `व्हाट्सअप` से वर्चुअल बुकिंग के साथ स्नान भी करवाते है। प्रसाद भी पहुंचाते हैं।

 

पुरानी परंपरा रईसी में कोई किसी से कम नहीं है।

 

दारागंज की राजनीतिक परिधि के राष्ट्रीय परिदृश्य में अच्छी पैठ थी। यहां की पीली कोठी कहें या फिर राय साहब की कोठी। प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू जब भी इलाहाबाद आते, विरोध का सामना करना पड़ता ऐसी स्थिति में वह आनन्द भवन से दारागंज की बड़ी कोठी पहुंचते। पण्डित नेहरू की गाड़ी राय साहब ही चलाया करते थे और आपस में बहस-मुबाहसा में व्यस्त होते। राय अमरनाथ की कोठी के रंग निराले थे।

 

एक बार निराला जी से मिलने की उत्कंठा पण्डित जी को बहुत हुई सन्देश गया। निराला जी पहुंचे, परन्तु पुलिस वालों ने उन्हें अन्दर नहीं जाने दिया।

 

अब क्या था, निराला जी का गुस्सा ऐसा फूटा कि वहीं अपनी बातें व्यक्त कीं। और वापस लौट गये। दारागंज की गलियों से अपने घर पहुंचे। कुछ ही अंतराल के बाद जब उनकी नाराजगी की बात पण्डित जी को पता चली तो वो परेशान हो गये। बाद में राय साहब उनको मनाने के लिए उनके घर स्वयं पहुंचे। काफी जी-हुज्जत करने के बाद निराला जी नेहरू जी के पास गये थे।

 

ऐसे ही लाल बहादुर शास्त्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा का काल भी दारगंज में भी बीता था।

 

वर्ष 1965 में जब पाकिस्तान से युद्ध समाप्त हो गया, तो प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी वहां पहुंचे थे। तब वहीं साहित्य प्रेमियों से उनकी मुलाकात भी हुई बतायी जाती हैं।

 

दारागंज का सीधा तालमेल हिन्दी साहित्यकारों से जुड़ा रहा है। `परिमल` संस्था के संयोजक डॉ. जगदीश गुप्त यहीं नागवासुकी के बगल में ही रहते थे। उनके वंशज हैं।

 

जहां पहले धर्मवीर भारती। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना। बी.डी.एन. साही, लक्ष्मीकान्त वर्मा, नरेश मेहता जैसे विद्वानों की बैठकी होती थी। परिमल की बैठक में ठहाकों और साहित्य चर्चा का जो सिलसिला चलता घण्टों खत्म नहीं होता था।

 

साहित्यकारों में श्रीनारायण चतुर्वेदी `दद्दा जी`। सीताराम गुण्ठे। प्रदीप जी। जैसी हस्तियां भी इसी दारागंज से जुड़ी रही हैं।

 

वैदिक शहर इलाहाबाद के दारागंज में अनेक तंत्र साधकों में तीन प्रमुख यहीं के थे। पं. देवी दत्त शुक्ल जो सरस्वती के सम्पादक रहे। ज्ञानी-विज्ञानी पण्डित जयदेव मिश्र और जस्टिस एस.एन. काटजू। इनकी साधना सिर चढ़कर बोलती थी। इनसे मिलने वालों में नामचीन हस्तियां प्राय: जुड़ी रहती थीं।

 

मजे की बात ये है कि इन्हीं त्रिकुट साधकों के चलते ही अकबर के किले में पाताल मंदिर और अक्षयवट के कुछ अंश को जनहित में बाद में खुलवाया जा सका था। जो आज भी है।

 

स्वामी बल्लभाचार्य जी यहीं दारागंज में आकर ठहरा करते थे। उनकी पहचान के निमित्त एक पत्थर भी वहां गड़ा रहा है। वास्तव में दारागंज तीर्थराज प्रयाग का मुख्य तीर्थ माना जाता रहा है। जंगमबाड़ी मठ यहीं है।

 

दारागंज निवासी पत्रकार, अध्यात्म जीवी माधवकान्त मिश्र ने आधुनिक युग में अपनी अच्छी पैठ बनाई है। भारत, सूर्या इण्डिया से लेकर न जाने कितने ही समाचार पत्रों की देखरेख की। आध्यात्मिक चैनलों की शुरुआत करवाई। और आज पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के महामण्डलेश्वर मार्तण्ड पुरी के नाम से स्थापित हैं।

 

आशय ये है कि दारागंज के बालू से तेल निकालना अधिकांश को आता है। तभी तो आज यहां का बालू से `हाईटेक` पत्थरों का निर्माण हो रहा है। गंगा यहां जरुर सूख चुकी है। परन्तु कछार की सब्जी उपलब्ध रहती है। बाहर भेजी जाती हैं। हस्तशिल्प हो अथवा जीवन अक्षय से जुड़े संसाधन सभी यहां उपलब्ध है। `काली मां` का मुखौटा पहनकर स्वांग, नृत्य, दशहरे पर यहां देखा जा सकात है। ये अपने आप में अजूबा है।

 

शंकराचार्य पीठ परम्परा से जुड़े अखाड़ों में निरंजनी। पंचायती पंचदशनामी और महानिर्वाणी अखाड़ा के मुख्यालय यहीं स्थापित है।

 

दारागंज से गंगा की ढलान की ओर उतरिये बहता नाला यहां के दु:खद पक्ष को उजागर करता है। गंगा यहां से दूर झूंसी और छत्रनाग छोर चली गयी है। गंगा छिछली सूखी होकर यहां पहचान, बताती है। रेत ही रेत। बाप रे बाप जेठ-वैशाख की दुपहरी में पांव तो बढ़ाइये, पता चल जायेगा.. !!!

 

परन्तु गंगा का यही बालू आज विकास यात्रा का कथानक बना रहा है। अपनी पहचान के साथ लेखकों और ज्ञानियों का पलायन स्वाभाविक है। किन्तु तीर्थ पुरोहित जो गंगा तट के वासी है वहीं रहेंगे। युगीन बदलाव के साथ उनके बही-खाते अब `हाईटेक` हो चले हैं। ऑन-लाइन स्नान पिण्डदान की व्यवस्थायें भी अंजाम पाई जा रही हैं। ऋषिकुल की परम्परायें अपनी पहचान की कद्र करते हुए आगे बढ़ती हैं।

 

अपनी मस्ती और ठसक के साथ `गुरू` कहलाने की चाहत में और तो और पान-तम्बाकू दोहरा ने जरूर यहां के यौवन को प्रभावित किया है। यही नहीं ज्ञान-विज्ञान का पलायन भी हो रहा है। ऐबपन ने अब नई पहचान बना ली है। बावजूद इसके लल्लनटॉप है अपने वैदिक शहर का दारागंज।

 

(...... जारी .......)

अगले अंक में इलाहाबाद के कीटगंज मुहल्ले के तमाम कालछन्दों और पीड़ा से हम रुबरू करायेंगे

 

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