इलाहाबाद कल आज और.... `मैग्नाकार्टा` से `महामना उद्यान` तक
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- Monday | 29th May, 2017
गोरी सरकार ने कितने ही रणबांकुरों को मौत के घाट तब उतार दिया था। कम्पनी बाग का क्षेत्र हो अथवा पुराने चौक का इलाका।
आज भी गवाही देता अपनी पहचान को बताता `नीम का विशाल वृक्ष` चौक में खड़ा है। इस वृक्ष पर दहशत फैलाने के लिए भारत मां के सपूतों की लाशें लटका दी गयीं थीं।
-- वीरेंद्र मिश्र
वैदिक सिटी इलाहाबाद के अतीत के कालछंदों की कहानी। युगों-युगों की कहानी से जुड़ी है। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत जिस भी युग के स्वर्णिम पन्नों को पलटिये। अनकही-अनसुनी कहानियां मिलेंगी। किंतु उनमें `मिट्टी और पानी` का प्रभाव बारीकी से पढ़ा और अनुभव किया जा सकता है। जहां ज्ञान की सलिला भी अपनी पहचान को मुखर कराने में कभी कहीं पीछे नहीं रही। तभी तो त्रिवेणी संगम तट पर बसा ये शहर, अपनी पहचान में भले ही रंग-रोगन लगा ले किंतु नींव में वहां की आब-ओ-हवा ज़रूर बोलती है। और अब तो यह `हाईटेक` सिटी बन रहा है।
1857 का जंग-ए-आजादी का जब बिगुल बजा तो कुछ ही अंतराल के बाद उस तूफान का झोंका इलाहाबाद भी पहुंचा। इलाहाबाद का किला उसका गवाह रहा, तो गंगा-यमुना का कछार भी उस काल के पन्नों से जुड़ा रहा।
गोरी सरकार ने कितने ही रणबांकुरों को मौत के घाट तब उतार दिया था। कम्पनी बाग का क्षेत्र हो अथवा पुराने चौक का इलाका।
आज भी गवाही देता अपनी पहचान को बताता `नीम का विशाल वृक्ष` चौक में खड़ा है। इस वृक्ष पर दहशत फैलाने के लिए भारत मां के सपूतों की लाशें लटका दी गयीं थीं।
पीड़ा का दंश भूला नहीं।
वक्त बदला तो आज यहां विशातखाना की दुकानें सज़ी हैं। लाल गिरजाघर है किंतु दुकानों की भीड़ में वो खो गया है। मेवा-मसाला से लेकर बांस-खपच्ची के हस्तशिल्प और मनमोहक श्रंगारिक दुकानों की चहलकदमी भी वहीं रहती है।
इलाहाबाद की संस्कृति की पहचान यहां इस क्षेत्र में बोलती है। ये पावन स्थली है। इसे सहेजने की बेहद ज़रूरत है।
सुहाग सिंदूर हो अथवा विवाह-श्रंगार की चीज़ें या फिर ज़रूरत का हर सामान सब कुछ आधुनिकतम सुविधाओं के साथ `ऑन-लाइन` भेजिए और घर बैठे पाइए अथवा यहां बुक कीजिए बाजार हाट का काम पूरा कीजिए तब तक पूरी पैकिंग के साथ आपके पास होगा।
यह चौक है प्यारे इलाहाबाद का और इलाहाबाद का कल क्या था। भले ही आप भुला चुके होंगे। किंतु आज का ये है `हाईटेक` इलाहाबाद।
वर्ष 1958 में महारानी विक्टोरिया का फरमान `मैग्नाकार्टा` जब इलाहाबाद पहुंचा। तो लॉर्ड मिण्टो ने उसको यमुना किनारे सरस्वती घाट के सामने के बगीचे में इलाहाबाद के बाशिंदों को इकट्ठा करवा कर पढ़ा था।
यह वही बगीचा है जहां `अशोक महान` की लाट का आधा ऊपरी हिस्सा आज भी अपनी बुलंदियों की ताकत बयां करता खड़ा है। जिसे सम्राट अकबर के बागी पुत्र जहांगीर ने किले के भीतर से निकलवाकर जमुना किनारे मनकामेश्वर के सामने की उसी बगिया में सोलहवीं शताब्दी में गड़वा दिया था। उस `अशोक महान` की लाट का आधा नीचे वाला हिस्सा आज भी शहर से 50 किलोमीटर दूर महाराजा उ्द्यन की राजधानी कौशाम्बी के किले के भीतर के कुएं की बगल में खंडहरों के बीच अपनी पहचान को बता रहा है। वहां मौजूद है।
दोनों लाट को मिलाकर ऊंचाई मापी जाए तो सम्भव होना नामुमकिन है।
यमुना किनारे सरस्वती घाट के सामने की जिस बगिया में महारानी विक्टोरिया का फरमान `मैग्नाकार्टा` वर्ष 1958 में पढ़ा गया था। उसे लॉर्ड मिण्टो ने पढ़ककर वहां की जनता को सुनाया था, आगाह किया था। तभी से उस बगीचे का नाम `मिण्टो पार्क` रख दिया गया था।
परन्तु शहर की बस्ती के कितने ही विद्वानों, मनीषियों ने बैठकर उन दरख्तों के साये के नीचे कल्पनाएं की थीं। वहां सुस्ताते भी थे। गिनती पता नहीं।
हां, अहियापुर निवासी सांवलदास खन्ना ने बताया था कि महामना जी हर दिन गंगा नहाने जाया करते थे और उस बगीचे में (मिण्टो पार्क में) उसी अशोक महान की लाट के नीचे बैठा भी करते थे।
वक्त बदला। युग भी बदला। इलाहाबाद की नई पीढ़ी ने 21वीं सदी में उस `मिण्टो पार्क` का नाम अब बदलकर `महामना पंडित मदन मोहन मालवीय उद्यान` रख दिया है।
`मैग्नाकार्टा` से `महामना` तक इस उद्यान की कहानी अतीत के पन्नों में है।
बस! आप घूमने के लिए यमुना किनारे पहुंचिए, तो महामना उद्यान ज़रूर जाइए। बगीचों में वृक्षों की छांव तले वक्त बिताने के बाद `अशोक महान` की लाट के नीचे भी ज़रूर जाईए। और बैठिए आपको अपने बीते कल की याद तो आएगी ही आप `महामना उद्यान` से स्वयं को जोड़कर पुराने इलाहाबाद को भी याद कर सकेंगे।
अब बातें इलाहाबाद के साहित्य संस्कार की। सलिला की।
साहित्य जगत की दो महान विभूतियां हिमालय की गोद से चलकर इलाहाबाद पहुंची थीं। कविवर सुमित्रा नन्दन पन्त और इलाचन्द जोशी।
एक कौशानी से तो दूसरे अल्मोड़ा से।
जब इलाहाबाद वो पहुंचे, तो अपना घर बसाया। सरदार पटेल मार्ग, रेलवे मंडल कार्यालय के सामने की पुरातन कोठी में।
जहां पूरब की ओर का दरवाज़ा पन्त जी के घर का खुलता, तो पश्चिम दिशा में इलाचन्द जोशी के घर का।
पन्त जी दो चोटी रखते थे तो इलाचन्द जी एक चोटी रखते थे।
दोनों जनों की स्मृतियों की चर्चा फिर कभी। आज इतना ज़रूर है कि इलाचन्द जी ने जब कलकत्ता में अपना प्रवास बनाया, तो `लॉण्ड्री` की दुकान खोली थी और वहीं उपन्यास `जहाज का पंछी` लिखा। फिर `मणिमाला` और `सन्यासी` भी लिखा, जिसने धूम मचा दी थी। इस नाम पर तो मनोज कुमार ने फिल्म भी बनाई थी। तब उन दिनों इलाचन्द जी ने कुछ अन्तराल मुम्बई में भी बिताया था। `धर्मयुग` में थे।
बाद में इलाहाबाद के अपने उसी घर में जब वापस आये तो उपन्यासों की कितनी ही कड़ियां जुड़ गयीं। उनके बेटे निखिल जोशी आकाशवाणी इलाहाबाद और वाराणसी में जुड़े रहे है और पीढ़ियों ने तरक्की के कई मानदण्ड अपनी मुट्ठी में बंद किये हैं।
ऐसे ही सुमित्रानन्दन पन्त जी की कविता....`फिर वसंत की आत्मा आई, अभिवादन करता भू का मन`...के बोल आज भी सुहाते हैं। उस छोटे से मैदान में लगे पीली कोठी नुमा घर को निहारिये और पहचानिये उस काल को। पन्त जी वाला घर बाद में `गोयल फोटोग्राफर` ने खरीद लिया। जो आजादी के जमाने के छायाकारों में नाम शुमार होते थे। उनका `गोयल स्टूडियो` सिविल लाइन्स में भी रहा है। वह अग्रवाल कॉलेज जीरो रोड के कोषाध्यक्ष भी लम्बे अंतराल तक रहे।
गोयल जी के छोटे पुत्र सुरेश गोयल विश्व प्रसिद्ध बैडमिन्टन खिलाड़ी `वर्ल्ड चैम्पियन` के रूप में स्थापित हुए और उनका पौत्र रवि गोयल तो आज चैनलों की दुनिया में `एनिमेशन` की दुनिया का बेताज बादशाह है। एबीपी न्यूज़ नेटवर्क का क्रियेटिव हेड है। सृजनशील कलाकारों में से वह एक हैं।
इलाहाबाद में उस घर के बाहर का मैदान आज छोटा ज़रूर लगता है, किन्तु है यही क्या कम है। यादगार रूप में इसे सहेजा जाना चाहिए और उनकी कविता के बोल यहां सुहाते हैं परन्तु पढ़ने वाले नहीं मिलेंगे। क्योंकि अब तो यहां सब कुछ खण्डहर सा हो चला है और सिविल लाइन्स का बस अड्डा विस्तारित होकर, फैलकर यहां इस रोड तक पहुंच गया है। शोरगुल/ चिल्लपों क्या कहा जाए। कविता-कहानी और फोटोग्राफी यहां सब खो गयी है। कुछ भी नहीं रहा।
ऐसे ही इलाहाबाद की धरती पर 8वां दशक `नई कहानियां` का था। उसके प्रमुख रहे- डॉ प्रमोद सिन्हा `कटरा बस्ती` वाले प्रमोद की कहानियों की दीवानी हुई, शिमला वासी प्रख्यात कहानीकार उषा चौधरी। जब उनका दामन थामने की उषा ने ठानी तो इलाचन्द जोशी जी ने ही उनका कन्यादान कर विवाह कराया था।
धर्मवीर भारती के गुरु थे इलाचन्द जोशी जी और डॉ हरिवंश राय बच्चन के अभिन्न मित्रों में भी रहे हैं। उन्होंने यह निर्णय बच्चन जी के निर्णय की तरह ही लिया था। जैसे कि बच्चन जी ने सोनिया गांधी को गोद लेकर राजीव गांधी से विवाह कराया था। इलाचन्द जी ने भी वही साकार कर दिखाया था।
ऐसे ही इलाहाबाद वासी धर्मयुग के सम्पादक धर्मवीर भारती ने `गुनाहों का देवता` इलाहाबाद की अपनी स्मृतियों पर ही लिखा था। वह उपन्यास आज भी प्रसंगिक है। बाद में `गुनाहों का देवता` पर ओंकार शरद की मदद से फिल्म बनाने का सिलसिला आठवें दशक में शुरु हुआ, जिसमें अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी ने काम किया था। तब फिल्म का नाम `एक था चन्दर, एक थी सुधा` रखा गया। उसकी शूटिंग भी इलाहाबाद में ही की गयी थी। परन्तु फिल्म पूरी नहीं हो सकी थी। हां.....अमिताभ को अपने बचपन की इलाहाबाद की यादें ज़रूर ताजा हो गई थीं।
ऐसे ही `बंद गली का आखिरी मकान` हो या फिर `रेत की मछली` कान्ता पन्त के उपन्यासों में खुशहाल पर्वत का जीवन उभर कर सामने आ जाता है।
वक्त बदला। अब तो कहानियां नये सन्दर्भों में जनम ले रहीं हैं।
इतना ज़रूर बता दूं कि इलाहाबाद कभी बाग-बगीचों का शहर था। जिनका नाम और पहचान भी समयकाल के अनुसार रहा है। किन्तु आज तो यहां कंकरीट के जंगल ही जंगल दिखाई पड़ेंगे। बचा-बचाया कम्पनी बाग और खुसरो बाग की ऐतिहासिक पहचान ज़रूर है।
किन्तु करैला बाग, शहरारा बाग, बाई का बाग, राम बाग, मुंशी राम प्रसाद की बगिया, सोहबतियां बाग और अलोची बाग सभी `बाग` हैं, किन्तु रिहायशी बस्ती और कॉलोनियों के रूप में हैं। अकेले कम्पनी बाग और खुसरो बाग का कुछ हिस्सा ज़रूर आज बचा है। पर हर बाग की अपनी कहानी है।
पर `रामबाग` की पहचान हनुमान मंदिर के रूप में रही है और यहां `पत्थरचटा` से इलाज होता था। `पाषाणभंजक` औषधि बनती हैं। परन्तु आज ऐसा कुछ नहीं है। यह स्थान `पत्थरचट्टी रामलीला कमेटी` की पहचान से जुड़कर `हाईटेक` रामायण दिखाने की पहचान और सौन्दर्यबोध कराने वाली `झांकी` की निर्माण कराने वाली संस्था के नाम से अब स्थापित हो चुका है।
यहां रामबाग हनुमान मन्दिर के एक ओर `सुन्दरम टॉवर` बन चुका है, तो दूसरी ओर पतंजलि ने `औषधि` दुकान खोल दी है। हां.... सरकार ने यहां की `छोटी लाइन` वाले `रामबाग-स्टेशन` को अब ज़रूर `हाईटेक` कर रहा है। बड़ी लाइन की गाड़ियों का आधुनिकतम् प्लेटफार्म रामबाग में बनाने का काम आगे बढ़ा दिया गया है। देखिये कल क्या होता है।
यही देखिये ऐतिहासिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन जो राजर्षि टण्डन जी के नाम से जाना जाता था फिर दारागंज वासी डॉ प्रभात शास्त्री जैसे विद्वान के नाम की पहचान से जुड़ा। किन्तु आज इसकी पहचान पर ग्रहण लगा जान पड़ता है।
(अगले अंक में आप पढ़ेंगे इलाहाबाद की गलियों में `बच्चन और मधुशाला` की मची धूम। और राजनीति की दुनिया की अनकही-अनसुनी` बस! इन्तज़ार कीजिए।)
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