जन्मदिन विशेष : जानिए कांग्रेस के कृष्ण क्यों कहे जाते थे दादाभाई नौरोजी

संक्षेप:

  • कांग्रेस के कृष्ण कहे जाते थे दादाभाई नैरोजी
  • 1851 की गुजराती साप्ताहिक `रास्त गोफ्तार`
  • दादाभाई ने `ड्रेन थ्योरी` दी थी

By- अनंत श्रीवास्तव

देश में स्वतंत्रता की नींव रखने वाले दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर 1825 को बंबई(मुम्बई) के एक पारसी परिवार में हुआ था। आइए 3 बार कांग्रेस के अध्यक्ष और संस्थापकों में वयोवृध्द नेता दादाभाई नौरोजी के जीवन से जुड़ी रोचक और अनकही बातें जानते हैं।

जब दादाभाई नौरोजी 4 साल के थे तो उनके पिता नौरोजी पलांजी डोरडी का देहांत हो गया था। दादाभाई की माता मनेखबाई(जो खुद अनपढ़ थी), ने दादाभाई को मन लगाकर कर पढ़ावाया था। 27 साल की उम्र में ही दादाभाई गणित और भौतिक विज्ञान के प्रधानाचार्य बन गए थे।

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दादाभाई हमेशा शिक्षा पर ज़ोर देते थे। उन्होने 1851 में `रास्त गोफ्तार` नाम का गुजराती साप्ताहिक शुरु किया था। वो 1885 में बंबई विधान परिषद के सदस्य बने थे। 1886 में फिन्सबरी क्षेत्र से संसद चुने गए। दादाभाई लंदन विश्वविद्यालय में गुजराती के प्रोफेसर भी रहे।



1892 में दादाभाई लंदन असेंबली में चुने जाने वाले पहले भारतीय थे। जहां पर वो सिर्फ भारत और भारतीयों की स्थिति को लेकर बार-बार ब्रिटिश सरकार से उलझते रहे। 1886 और 1906 में वो कांग्रेस के अध्यक्ष बनें। जब 1906 में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में होने वाला था, तब तक कांग्रेस 2 हिस्सों में बंट गई थी, गरम दल और नरम दल। पर दोनों दल अपना अध्यक्ष चाहते थे। जिससे उनका दबदबा बढ़ जाए। पर स्थिति को खराब होता देख कर दादाभाई को तार भेजकर लंदन से वापस बुलाया गया। जिसके बाद दोनों दल के लोगों ने दादाभाई की बात मानते हुए आपसी विचारधारा को साथ लड़ने के सुझाव को माना।

दादाभाई नौरोजी भारत में होनी वाली सिविल सेवा की परिक्षा में होने वाली कठिनाई को देखते हुए ब्रिटेन सरकार से ब्रिटेन और भारत में एक साथ सिविल सेवा की परीक्षा की बात कही। हालांकि ब्रिटिश सरकार ने यह मांग 1922 में उनकी मौत से 2 महीने पहले मानी थी। दादाभाई नौरोजी के सिर पर बाल कम थें। इसका कारण कैंसर रहा पर वो कभी ना थके ना ही रुके।

महात्मा गांधी ने एक बार दादाभाई को ख़त में लिखा था कि भारतीय आपकी ओर ऐसे देखते हैं जैसे पिता की ओर बेटा। बाल गंगाधर तिलक भी इस बात से सहमत थे। दादाभाई ने ड्रेन थ्योरी दी थी। जिसमें उन्होने उड़ीसा में अकाल और उससे हुई मौत पर पूरा विशलेषण दिया था। इस घटना को ब्रिटिश सरकार ने दबाने की पूरी कोशिश की थी पर दादाभाई ने इस जनसंहार को छुपने नहीं दिया था। 30 जून 1922 में दादाभाई नैरोजी ने दुनिया को अलविदा कह दिया पर उनकी जलाई मशाल आधुनिक भारत को रौशन कर रही कर रही है।

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