‘अ’ से अमिताभ मतलब ‘म’ से महानायक को कभी अपने ही देश में घुटन होने लगी थी!

संक्षेप:

  • हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री में अमिताभ बच्चन एकाधिकारवाद का दूसरा नाम है.
  • अमिताभ बच्चन सिनेमा के महानायक हो सकते हैं, लेकिन समाज के महामानव नहीं.
  • क्या अमिताभ को महानायक कहना जायज नहीं है?

- सतीश वर्मा

हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री में अमिताभ बच्चन एकाधिकारवाद का दूसरा नाम है. यह एकाधिकारवाद पिछले चार दशक से कायम है. जबकि इन 40-42 सालों में बड़े-बड़े से बड़े सूरमा स्टार आए, कुछ समय तक दर्शकों के दिल पर छाए रहे और फिर दर्शकों के जेहन से उतरते चले गए. मगर इतने सालों तक लगातार अमिताभ बच्चन न सिर्फ पर्दे पर दिखते आ रहे हैं बल्कि लोगों के दिलों पर भी लगातार राज करते आ रहे हैं. अमिताभ बच्चन विरले ऐसे एक्टर हैं जिन्हें यह सौभाग्य हासिल हुआ है जिन्हें सिनेमा इंडस्ट्री में काम करते हुए दादा साहेब फालके अवार्ड मिलने जा रहा है. अभी तक जिनको जिनको यह अवार्ड मिला है वो उस समय एक्टिंग को अलविदा कह चुके थे. मगर अमिताभ बच्चे पहले ऐसे एक्टर हैं जो अभी भी सिनेमा की, विज्ञापन की, टीवी शो की शूटिंग करते हुए फिल्म इंडस्ट्री का सबसे सीनियर मोस्ट अवार्ड दादा साहब फालके अवार्ड लेंगे.

इन चार दशकों में अमिताभ को बहुत सारे तमगे मिले. सुपरस्टार से लेकर सदी के महानायक तक का. यह तमगा उन्हें दर्शकों के प्यार से मिला है या फिर बाजार से! इस पर बहस पहले भी चली और एक बार फिर दादा साहब फालके अवार्ड मिलने के बाद जाने- अनजाने अमिताभ के नायकत्व पर लोग सवाल दागने लगे हैं. क्या अमिताभ को महानायक कहना जायज नहीं है? बिल्कुल. महानायक तो वो होते हैं जिनसे हम प्रेरणा लेते हैं, जिनसे समाज को सीख मिलती है और जो समाज-देश में अपने क्रांतिकारी विचारों के दम पर अभूतपूर्व बदलाव लाते हैं. महानायक तो महात्मा गांधी हैं, महानायक तो मार्टिन लूथर किंग है, महानायक तो बाबा साहब अंबेडकर हैं, महानायक तो नेल्सन मंडेला है. भला एक सिनेमा का हीरो कैसे हमारा महानायक हो सकता है? वो भी एक एंग्री यंग मैन. जो सिनेमा के पर्दे पर एक जमाने में हिंसा का महिमामंडन करते नजर आ रहे थे. जंजीर, दीवार, त्रिशूल, शक्ति जैसी फिल्मों में अमिताभ ने हिंसा को एक नए मेलोड्रामा में बदलने का काम ही किया है.

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अमिताभ बच्चन सिनेमा के महानायक हो सकते हैं, लेकिन समाज के महामानव नहीं. भले वो कॉरपोरेट हाउस की तर्ज पर कभी-कभार थोड़े बहुत सीएसआर की जवाबदेही भी निभा लेते हैं. अभी बिहार में बाढ़ से हुई तबाही के लिए अमिताभ बच्चन ने 50 लाख की राशि राहत के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भेजी है. कुछ दिन पहले अमिताभ बच्चन ने बिहार के 2100 किसानों का कर्जा भी अपने पैसे से चुकाया था. किसानों के प्रति अमिताभ की इस सदाशयता और दानवीर होने के पीछे जो संवेदना अचानक उमड़ गई है उसके पीछे अचानक 2007 में विवाद में आया जमीन घोटाला याद आता है. हम आप जैसे आम लोगों के लिए यह खबर आठवें आश्चर्य से कम नहीं है कि एक्टर अमिताभ बाराबंकी तहसील का किसान भी है. जिस देश में उस जमाने में हजारों किसान खुदकुशी कर रहे थे, वहां अमिताभ बच्चन नामक किसान पूरे 70 हजार वर्गफीट जमीन पर अपने नाम पर आवंटित कर लिए थे. अमिताभ बच्चन पर यह कृपा हुई थी उनकी राजनीतिक यारी- दोस्ती की वजह से. तत्कालीन यूपी सरकार ने अमिताभ बच्चन के नाम पर 70 हजार वर्ग फुट जमीन आवंटित कर दी. यह कथित जमीन घोटाला तब सामने आया जब जमीन के असली मालिक और किसान करतार सिंह खड्ग ने दावा किया कि 1970 से उक्त जमीन पर उसका मालिकाना हक है. मजे की बात तो यह है कि अमिताभ ने प्राधिकार और अधिकारी को झांसा देकर अपना पेशा खेती-किसानी तक बता दिया था. यह अमिताभ का बहुत बुरा दौर था जब वो दिवालिएपन से उबरने के लिए अमर सिंह जैसे दलाल और जुगाड़िए का सहारा लेकर मुलायम सिंह यादव जैसे नेता को अपने पिता तक मान बैठे थे.

अमिताभ बच्चन का कद तब और छोटा हो गया था, जब उन्होंने कहा था कि वो एक उद्योगपति के घर में उनके कहने पर झाड़ू तक लगा सकते हैं. यह कहना कहीं से भी गलत नहीं है कि एबीसीएल के डूबने और दिवालिया होने के बाद अमिताभ ने खुद को पैसे कमाने की मशीन बना लिया था, जो आज तक लगातार बाजार के लिए और खुद के लिए खटते जा रहा है. एक लिहाज से यह गलत भी नहीं है, क्योंकि अमिताभ ने अपने वजूद को बचाने के लिए और एक्टिंग की ऊर्जा को जवां और जिंदादिल रखने के लिए ही 76 साल की उम्र में भी लटके-झटके वाले किरदार पर्दे पर निभा लेते हैं. कल्याण ज्वैलर्स के घर जाकर दिवाली में पूजा कर लेते हैं, मुकेश अंबानी की बेटी की शादी में जाकर नाच-गा लेते हैं. अपने 75 साल के लंबे ऐतिहासिक नायक जीवन में अमिताभ बच्चन ने शायद ही ऐसा कोई कदम उठाया होगा, जिसमें उनका व्यक्तिगत आर्थिक हित न हो. अमिताभ बच्चन का करियर ही दरअसल राजनीतिक परिवार की दोस्ती के कृपा से शुरू हुआ.

कांग्रेस पार्टी के इतिहास पर और सोनिया गांधी की ऑटोबायोग्राफी लिख चुके लेखक और जाने माने पत्रकार रशीद किदवई लिखते हैं कि हिंदी फ़िल्मों में अमिताभ ने पहली बार केए अब्बास की फ़िल्म `सात हिंदुस्तानी` में अभिनय किया था, यह फ़िल्म गोवा की आज़ादी पर आधारित थी. माना जाता था कि अब्बास तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के क़रीबी थे और इंदिरा गांधी ने ही संघर्ष कर रहे अमिताभ की सिफ़ारिश के ए अब्बास से की की थी.

द हिन्दू के पूर्व स्थानीय संपादक और पीएम मनमोहन सिंह के सलाहकार रह चुके हरीश खरे ने अमिताभ बच्चन के बारे मे कहीं लिखा है कि किसी को मिस्टर बच्चन के करोड़पति होने पर शिकायत नहीं होनी चाहिए. किसी भी दूसरे व्यवसायी की तरह उन्हें भी पैसे कमाने का अधिकार है. लेकिन दिक्कत है कि वो केवल एक दूसरे व्यवसायी नहीं हैं. उन्हें हमारे हाल के समय के शुभंकर(Mascot) के तौर पर समझना होगा.

1980 के दशक में वो प्रतीक बने उस सपने का, जो ग़लत हो गया. 1990 के दशक में वो अभिजात वर्ग के स्तर पर निष्ठा की उड़ान के प्रतीक बने, जब उन्होंने एक एनआरआई बनने का विकल्प चुना. और अब दशक के दूसरे भाग में वो इस बात की अकड़ दिखाते हैं कि वो वन-मैन कॉरपोरेशन हैं, जो एक अर्ध-वैश्वीकरण, फ़्री मार्केट अर्थव्यवस्था में एक नई भूमिका में ख़ुद को ढाल चुके हैं. अमिताभ ने खुद को बाजार के हवाले कर मिंट मशीन में ढ़ाल दिया है. मिंट मशीन यानी वो मशीन जो पैसे उगलती है.

मगर आपको याद होगा कि भी नहीं जब एक जमाने में एक व्यक्ति जिन्होंने भारत में बहुत कमाया और फिर अचानक उसी इंसान को भारत में घुटन भी होने लगी. यह दौर 1995 का था, जब उन्हें राजीव गांधी के साथ की दोस्ती की कीमत चुकानी पड़ी थी. बोफोर्स घोटाले में नाम आने के बाद उनका करियर अचानक से ढलान पर आ गया था. एक व्यक्ति जो `मिले सुर मेरा तुम्हारा` में भारतीय भावना की एकता के शुभंकर बने, ऐसे व्यक्ति का भारत में दम घुटना उनके अंदाज़ में ऐंठन पैदा करता है. मिस्टर बच्चन एनआरआई बन गए. शायद इसकी वजह उस दोस्त से अनजाने में मिला विश्वासघात हो, जिसने क़रीब पांच सालों तक भारत पर शासन किया था. बच्चन की एनआरआई बनने की इच्छा, उनकी विभाजित वफ़ादारी, उच्च वर्ग के दोहरे चरित्र को दर्शाता है. अपने पूरे समय में ये दिखाकर कि वो समाज सेवा कर रहे हैं, दरअसल उन्होंने सार्वजनिक पैसे से ख़ुद की मदद की. फिर उच्च वर्ग के बच्चन ने बड़े आराम से अपनी ही मातृभूमि को उस वक़्त छोड़ दिया जब सब कुछ बदसूरत और भयावह होने लगा. ये ख़ूबसूरत लोग अयोध्या, सूरत, अहमदाबाद और मुंबई की बदबू को बर्दाश्त नहीं कर सके.

मगर आपको अचरज नहीं होना चाहिए कि यही अमिताभ बच्चन जो 1995 में राजनीति को गंदी नाली कह कर न्यूयॉर्क भाग गए और बजाब्ते एनआरआई बन गए थे, को अचानक से राजनीति में ही ऑक्सीजन मिलने की संभावना दिखने लगी. एबीसीएल कंपनी डूबने के बाद वो वापस भारत ही भागे- भागे आए और दोबारा राजनीति की ही शरण ली. अगर साल 2000 में अमिताभ बच्चन ने समाजवादी पार्टी के राजनीतिक मित्रों का हाथ नहीं थामा होता तो शायद ही पार-घाट लगना संभव होता. अमिताभ बच्चन का यह नया राजनीतिक अवतार बिल्कुल अलग भूमिका में था. नेहरू- गांधी परिवार के साथ अनबन होने के बाद समाजवादी पार्टी में उनकी मौजूदगी खासी नाटकीयता का आवरण लेकर आई. नई भूमिका में वो जन-प्रतिनिधि तो नहीं थे लेकिन उन्हें सत्ता-सुख, ऐश्वर्य, पद लाभ जैसी सारी चीजें मिल रहीं थी जो एक राजनेता को मिलती है.

सार्वजनिक जीवन में अमिताभ बच्चन की कोई एक नेक काम अभी याद नहीं आ रही है, जिससे हम उन्हें महानायक या महामानव कह सकें. सार्वजनिक जीवन में अमिताभ रूढ़िवादी, ईश्वर से भयभीत, पुत्रमोह में जकड़ा हुआ और स्त्री को अपमानित करने वाले इंसान के रुप में भी दिखते हैं. उनके किस आचरण का अनुसरण करने जनता. इस आचरण का कि नंगे पैर सिद्धि विनायक मंदिर जाओ, वह तुम्हें सुखी बनाएगा. उन्होंने तो अपने बहू ऐश्वर्या जैसी प्रतिभावान स्त्री तक का अपमान कर दिया था. उन्होंने ऐश्वर्या को मांगलिक कह दिया था.

अमिताभ का एक बुत मैडम तुसाद के अजायबघर में मौजूद है. क्या हम इस बुत को सिर्फ एक सुपरस्टार का बुत मान लें या फिर सच में एक महामानव का? वैसे अब अमिताभ के पास उम्र के इस ढलान में ज्यादा वक्त तो नहीं है, लेकिन अगर अभी भी वो अपने छवि के प्रति सचेत हो जाएं तो वास्तविक महानायक हो सकते हैं. वास्तविक महानायक वही होता है जो जनता का आदमी होता है.

 

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