गोरखपुर उपचुनाव क्या ब्राह्मण बनाम ठाकुर की राजनीति में हारी बीजेपी ?

संक्षेप:

  • गोरखपुर में ब्राह्मण बनाम ठाकुर की राजनीति का इतिहास
  • गोरखपुर के पिछले उलटफेर वाले चुनाव जब ब्राह्मण ने ठाकुर प्रत्याशियों को हराया
  • सपा और बसपा के साथ आने से बीजेपी की हार हुई ?

By: आशीष तिवारी

गोरखपुर में रहना है तो योगी योगी कहना है ये नारा पिछले 20 सालो से वहां की गलियों में गाहे बगाहे सुनने को मिल जाता है। हार के बाद कई जगह इसको ब्राह्मण बनाम ठाकुर का रंग दिया गया लेकिन गौर से देखें तो आप को ये कुछ नज़र आएगा।

आइये जानते है आखिर क्या है गोरखपुर में ब्राह्मण बनाम ठाकुर की राजनीति का इतिहास?

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बताया जाता है कि ये कहानी उस वक्त की है जब गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजय नाथ हुआ करते थे और गोरखपुर के ब्राह्मणों का एक चर्चित चेहरा थे पं. सुरति नारायण मणि त्रिपाठी। 1957 में गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना करने और गोरखपुर में अन्य शिक्षा संस्थानों की नींव रखने में दोनों लोगों का अहम योगदान रहा है। सुरति नारायण मणि त्रिपाठी ने उस वक़्त के तत्कालीन DM  के रूम में गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना में काफी काम किया और बाद में वो विश्वविद्यालय की स्थापना समिति के अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष भी रहे। महंत दिग्विजय ने भी मदन मोदन मालवीय इन्जीनियरिंग कॉलेज, गोरखपुर विश्वविद्यालय, महाराणा प्रताप पॉलीटेक्निक, महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् जैसी कई संस्थाओं को बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया।

ऐसा कहा जाता है एक बार किसी वजह से दिग्विजय नाथ और सुरति नारायण मणि त्रिपाठी की किसी बात पर अनबन हुई, जो बाद में नाक की लड़ाई में तब्दील हो गई और वहीं से क्षत्रिय बनाम ब्राह्मण का गणित गोरखपुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में शुरू हुआ। इसके बाद ये वर्चस्व की लड़ाई हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही के बीच रही, वीरेंद्र शाही की मौत के बाद ये लड़ाई `हाता` (हरिशंकर तिवारी का घर)और `मठ` (गोरखनाथ मंदिर ) के बीच कई सालो तक चलती रही। इसके अलावा जब वीरबहादुर सिंह UP के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तब भी हरिशंकर तिवारी से उनके राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई के किस्से काफी मशहूर रहे हैं।

गोरखपुर के पिछले उलटफेर वाले चुनाव जब ब्राह्मण प्रत्याशियों ने ठाकुर प्रत्याशियों को हराया

गोरखपुर संसदीय सीट के लिए हुए उपचुनाव के नतीजे भले ही योगी आदित्यनाथ के लिए असहज करने वाले हों लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है । 1971 में भी ये देखने को मिल चुका है। उस साल हुए लोकसभा चुनाव में तत्कालीन महंत अवैद्यनाथ को कांग्रेस उम्मीदवार नरसिंह नारायण पांडेय से 37,578 वोटों से हारकर ये सीट अपने नाम की थी जो महंत अवैद्यनाथ को अपने गुरु और तत्कालीन सांसद महंत दिग्विजय नाथ की असामयिक मृत्यु के बाद 1970 में हुए उपचुनाव में जीत कर मिली थी.

1971 में ही गोरखपुर के मानीराम विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ,  क्योंकि मानीराम से 1962, 1967 और 1969 में हिंदू महासभा से महंत अवैद्यनाथ विधायक चुने गये थे पर जब तत्कालीन सांसद महंत दिग्विजय नाथ की असामयिक मृत्यु हुई तो अवैद्यनाथ लोकसभा के लिए चुन लिये गये और उन्होंने यह सीट छोड़नी पड़ी। इस चुनाव में मुख्यमंत्री रहते हुए त्रिभुवन नारायण सिंह उर्फ टीएन सिंह चुनाव में उतरे और उन्हें हार का सामना करना पड़ा। त्रिभुवन नारायण सिंह ने 1957 में चंदौली लोकसभा चुनाव में मशहूर समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी डॉ. राम मनोहर लोहिया को हराया था। लोहिया कोई मामूली नेता नहीं थे, उनको हराना बहुत ही बड़ी बात थी। उन्हीं त्रिभुवन नारायण सिंह को अमर उजाला में संवाददाता रहे रामकृष्ण द्विवेदी ने हरा दिया था।

जब ठाकुर ने हराया ब्राह्मण को

1980 में वीरेंद्र शाही महाराजगंज के नौतनवा इलाके वाली लक्ष्मीपुर विधानसभा से खड़े हुए चुनाव निशान था दहाड़ता हुआ शेर। उनके सामने आए हरिशंकर तिवारी का इलाके में काम देखने वाले अमरमणि त्रिपाठी जिनका चुनाव निशान था नाव। वीरेंद्र शाही ने चुनाव जीता। ऐसा कहा जाता है चुनाव जीतने से पहले शाही ने हरिशंकर तिवारी खेमा द्वारा बनाये जा रहे एक टॉकीज को पब्लिक से ध्वस्त करा दिया था।

योगी ने 2009 में दो ब्राह्मणों को एक साथ हराया था एक सपा के उम्मीदवार भोजपुरी सुपर स्टार मनोज तिवारी और बसपा के उम्मीदवार हरिशंकर तिवारी के बेटे विनय शंकर तिवारी को.

जब ब्राह्मण ने हराया ब्राह्मण को

2007 के चुनाव में हरिशंकर तिवारी ने पहली बार बसपा के राजेश त्रिपाठी से हार का स्वाद चखा। राजेश त्रिपाठी ने उन्हें चिल्लूपार में ही हरा दिया जहां से हरिशंकर तिवारी 22 वर्षों तक विधायक रहे।

ठाकुर मुख्यमंत्रियों के मंत्रिमंडल में ब्राह्मण को जगह

हरिशंकर तिवारी ब्राह्मण होते हुए भी कल्याण सिंह की सरकार में मंत्री बने और फिर राजनाथ सिंह की सरकार में भी यहाँ गौरतलब है दोनों मुख्यमंत्री ठाकुर थे। कल्याण सिंह लोध है लेकिन लोध भी खुद को लोधी राजपूत ही मानते हैं।

तो क्या सपा और बसपा के साथ आने से बीजेपी की हार हुई ?

पिछले दो चुनावों पर नज़र डालें तो आप को खुद ब खुद समझ आ जायेगा । गोरखपुर में 2009 में सपा उम्मीदवार मनोज तिवारी को 11 फीसदी वोट मिले थे और बसपा के विनय शंकर तिवारी को 24.4 फीसदी वोट मिले थे।  दोनों मिल कर भी योगी आदित्यनाथ को हरा नहीं पाये उन्हें लगभग 54 फीसदी वोट मिले थे।  2014 में सपा के 22 और बसपा के 17 फीसदी वोट मिले थे दोनों को मिला भी दिया जाये तो योगी को हराना नामुमकिन था.

तो क्यों हुई उपचुनाव में हार ?

दरअसल इस उपचुनाव में समजवादी पार्टी के पास हरने को कुछ नहीं था तो वही दूसरी तरफ BJP की साख दांव पर लगी थी। ग़ौर से देखें तो BJP के हार के कई कारण नज़र आएंगे जैसे-प्रत्याशी चयन में ग़लती, पार्टी संगठन से कार्यकर्ता का नाराज होना, सरकार के कामकाज से भी है लोगों में नाराज़गी, सामनेवाले प्रत्याशी को हलके में आंकना। गोरखपुर के पार्टी कार्यकर्ता जितनी सरलता और आसानी से पहले योगी से मिल पाते थे अब मुख्यमंत्री बनने के बाद उतनी सरलता नहीं है। बार बार लाव लशकर के साथ योगी का गोरखपुर पहुंचना भी वहां के लोगो को नागवार गुजर रहा है क्योकि रास्तों के बंद होने से और जाम लगने से लोग काफी परेशां हैं। शायद शहर से योगी का दूर जाना शहर को पसंद नहीं आ रहा.

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