मृत्यु शय्या पर स्वास्थ्य सेवाएं, सरकारी दावे वेंटिलेटर पर

संक्षेप:

  • सरकारें कान में तेल डाल कर बैठ जाती हैं
  • मासूमों की मौत से ज्यादा नेताओं की दिलचस्पी क्रिकेट स्कोर में है
  • नीतीश बाबू की सरकार आज कटघरे में होती

By: मदन मोहन शुक्ल

चरमराती स्वास्थ्य सेवाएं ,स्वास्थ्य पर सिकुड़ता बजट,स्वास्थ्य कर्मी और मरीज के परिजनों के बीच आये दिन इलाज को लेकर मारपीट रोज़ समाचार पत्रों की हैडलाइन बनती है। साथ-साथ स्वास्थ्य सेवायों की लचर व्यवस्था को लेकर सवाल भी लोक सभा से लेकर विधान सभा तक में उठते रहें है । लेकिन सरकारें कान में तेल डाल कर बैठ जाती हैं। इसका जीता जागता उदाहरण बिहार के मुजफ्फरपुर में ए ई एस(एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम यानि चमकी)से 167 मासूमों की मौत और हमारे राजनेता जिनकी दिलचस्पी केवल भारत के क्रिकेट स्कोर में है।हमारे प्रधानमंत्री जी तो बकायदा एक क्रिकेटर की चोट को लेकर ट्वीट करते हैं लेकिन बिहार में मर रहे है मासूमों और उनकी सिसकती बिलखती माँओं के लिए दो बोल भी नहीं यह कैसी मानसिकता है। यही चुनाव का समय होता तो नेता से लेकर राजनेता तक में हमदर्दी जताने के लिए होड़ लग जाती और नितीश बाबू की सरकार आज कठघरे में होती।

इसके लिए जनता ज्यादा दोषी है चुनाव में वह शिक्षा, बेरोजगारी,रोटी,आवास और स्वास्थ्य को मुद्दा न बनाकर नेताओं द्वारा दिए मुद्दे राष्ट्रवाद,हिन्दू-मुस्लिम,मंदिर-मस्जिद,बालाकोट,पुलवामा में उलझकर वोट देकर सरकार बनवा देती है। गरीब जनता के पास रह जाता है केवल कभी भूख से मरना तो कभी इलाज के अभाव में मरना। कोई बड़ा हादसा होता है तो जाँच कमेटी बनती है सुधार के सुझाव दिए जाते हैं। चंद रुपयों से उनके आंसू पोछे जाते है । सिस्टम चलता रहता है लोग मरते रहते है मीडिया टी आर पी बढ़ाता रहता है। राजनेता जातें हैं, घड़ियाली आंसू बहा कर चले जाते है कोई यह समझने की कोशिश नहीं करता जो योजनाएं संचालित हो रही है वह कितना प्रभावी हैं।

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अगर हम अस्पतालों की अंदरूनी हालात को देखें तो हालात रोंगटे खड़े करने वाले है ।चीखते चिल्लातें दर्द से तड़पते मरीज़ ,एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ते उनके परिजन कभी डॉ के सामने तो कभी नर्स या वार्ड बॉय से मरीज़ को देखने की विनती करते रोते गिड़गिड़ाते लेकिन डॉ प्रभावहीन ,हो सकता है मरीज़ों की भीड़ में दूसरें गंभीर मरीज़ को डॉ ज़्यादा वरीयता दे रहा हो। अगर यूपी की राजधानी लखनऊ की स्वास्थ्य सेवाओं का हाल लें तो तो वह व्यवथित करने वाले हैं, ट्रामा में ऑक्सीजन सिलिंडर के अभाव में नवजात की मौत।।

अभी गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज का मामला ठंडा नहीं पड़ा जहाँ 60 मासूमों की ऑक्सीजन के अभाव में मौत हो गयी और सरकार बेशर्मी से कहती है हमारे पास सप्लायर को देने के लिए 70 लाख नहीं है। अभी जो ताज़ा आंकड़े आयें हैं , स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा को लेकर वह चिंतित करते हैं। एक साल में प्रदेशभर में एक्सप्रेसवे और हाईवे पर मानवीय चूक के चलते करीब 42,568 हादसे हुए लेकिन इलाज के अभाव में करीब 22,256 लोगों की मौत हो गयी।कारण निश्चित दूरी पर ट्रामा सेंटर का ना होना।

खास बात यह है कि गोरखपुर मंडल में एक भी ट्रॉमा सेंटर नहीं है लिहाज़ा बी0एच0यू0 के एक ट्रॉमा पर मंडल के दस जिलों का बोझ है, ऐसे में आप खुद अंदाज़ा लगा सकते है, इलाज की कितनी गुंजाईश है। यहाँ लोगों की गलती से हादसे होतें हैं लेकिन प्रशासन की अनदेखी से मौतें, तो आप ही तय कीजिये यह हादसा है या हत्या ।

लखनऊ में बलरामपुर अस्पताल में वेंटीलेटर कपड़ों से ढकें हैं ऐसे ही के जी एम यू, लोहिया संस्थान के रेफरल हॉस्पिटल में कई वेंटीलेटर बंद है।इसके अलावा सिविल हॉस्पिटल में नौनिहालों के वेंटीलेटर दो वर्ष से डिब्बो में कैद हैं। जनपद के शहरों एवं ग्रामीण इलाकों में 143 छोटे बड़े हॉस्पिटल हैं जिसमे कुल 9403 बेड और वेंटीलेटर सिर्फ 419। अस्पतालों की इमरजेंसी में बेड केवल 787।

अधिकतर अस्पतालों में हेड इंजरी का इलाज ही नहीं।राजधानी में यह सुविधा केवल के जी एम यू,एस जी पी जी आई, लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में हैं।जनपद के किसी भी जिलें में न न्यूरोसर्जन है न न्यूरो के डॉ हैं। अब पूरे देश की स्वास्थ्य सेवाओं के स्वास्थ्य को आंकड़ो के शीशें से परखने कि कोशिश करतें हैं। यूनाइटेड नेशन और वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं में भारत 116 वे स्थान पर है। हमसे आगे भूटान ,म्यामांर, और श्रीलंका है।

  • यहां 730,000 मासूम जन्म लेने के एक महीनें के अंदर ही मेडिकल सुविधा के अभाव में मर जातें हैं।
  • 10,50,000 एक वर्ष के भीतर उम्र 5 वर्ष के अंदर मर जाते हैं।
  • 291,000 एक से पॉच वर्ष में प्रदूषण से मर जातें है।
  • 431,560 उम्र 14 वर्ष तक मौत होती है वायु प्रदूषण से।
  • 40%कुपोषित 5वर्ष पूरा नहीं कर पाते मर जातें हैं।
  • 15लाख मासूम डायेरिया से, प्रदूषित पानी के सेवन से मर जाते हैं।
  • शिक्षा, कुपोषण ,स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव में हमारा देश नीचे से 10वे पायदान पर है।और हमारे पी एम का सपना है 5ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था  का।

यह जो भयावह तस्वीर,क्या हमारे सत्ताधीशों को नहीं डराती? जबकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा है कि मेडिकल सुविधा आम आदमी का मौलिक अधिकार है। लेकिन अस्पताल नयूनतम सुबिधा भी देने की स्थीति में नहीं है क्योंकि संसाधन और मेडिकल स्टाफ की घोर कमी है।लेकिन सरकार इन सबसे बेखबर बनी रहती है।

अब जरा स्वास्थ्य के प्रति सरकारी चिंता पर नज़र डालते हैं 2009 में सरकार का स्वास्थ्य पर बजट 16543 करोड़ यानि कुल बजट का 1.5% जबकि अमेरिका कुल बजट का साढ़े आठ % खर्च करता है। वहीं प्राइवेट हॉस्पिटल का बजट लगभग एक लाख 43 हज़ार करोड़ था।
सरकार प्रति व्यक्ति प्रति दिन रु0 92.33 खर्च करती है। 2015 में सरकार ने 2009 से दुगनी रकम यानि रु033150 करोड़ खर्च किया वहीं प्राइवेट सेक्टर  में 5लाख26 हज़ार500 करोड़ रु खर्च किये गए जो पिछली रकम का दुगना रहा।

इसी तरह 2016 में सरकार ने 48817 करोड़ खर्च किये जबकि प्राइवेट सेक्टर में स्वास्थ्य पर 6लाख 50 हज़ार करोड़ खर्च हुए।
19 साल पहले प्राइवेट सेक्टर के अस्पताल जो खर्च करते थे।वो आज सरकार खर्च कर रही है। अब सवाल यह उठता है कि परिस्थीतिया ऐसी कैसे बन गई, देश 130 करोड़ का है लेकिन सियासत 15-20 करोड़ के लिए ही होती है और सिस्टम चुनिंदा लोगों के माफिक ही क्यों क्रियाशील है?
आंकड़े वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन और आई एम ए के बताते है कि 1700 मरीज़ पर एक डॉक्टर और 6 लाख की आबादी पर एक अस्पताल तथा 1833 मरीज़ पर एक बेड।

आई एम ए में करीब 10लाख26 हज़ार डॉ पंजीकृत है जिसका केवल 10% यानि 1लाख 5हज़ार डॉ ही सरकारी अस्पतालों में कार्यरत हैं बाकी 90% प्राइवेट हॉस्पिटल में हैं। जानकार हैरत होगी कि करीब साढ़े 6लाख गॉवो पर केवल 29635 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र। सीमित संसाधन में डॉ और अन्य स्वास्थ्य कर्मी एक आद अपवाद को छोड़कर पूरी कोशिश करतें है मरीज़ का इलाज करने में । लेकिन फिर भी बलि का बकरा डॉ ही बनता है जैसा की बिहार में चमकी से हुई मासूमोकी मौतों में हुआ। जिनकी जबाबदेही बननी चाहिये वह आँखों में पट्टी बांधे हुये है पटना से लेकर दिल्ली तक के राजनेता संवेदनशून्य बनें हुए हैं।

अब सवाल उठता है कि जो सत्ता पर है उनकी जबाबदेही कैसे तय हो उनको कैसे एहसास दिलाया जाये हालात बद-से-बदतर हैं।
भारत में खस्ताहाल सरकारी स्वास्थ्य ढ़ाचे  को सुधारने का एक ही तरीका है कि यह अनिवार्य कर दिया जाए कि नेता और वरिष्ट अधिकारी केवल सरकारी अस्पतालों में ही इलाज करा सकते हैं। प्राइवेट अस्पताल की सरकारी खर्चे पर सुविधा खत्म कर दी जाए। दूसरा अगर किसी बीमारी का इलाज देश में उपलब्ध हो तो उस स्थीति  में उन्हें विदेश भी न जाने दिया जाए।

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