Lok Sabha Election 2019: रुपये की चाशनी में लिपटा लोकतंत्र का महापर्व

संक्षेप:

  • राजनीतिक योद्धा अपने तरकश से चला रहे हैं तीर पर तीर
  • चुनाव प्रचार में दिख रहा है धनबल का प्रभाव 
  • धारा 370 और 35ए पर पांच साल क्यों खामोश रही बीजेपी?

By: मदन मोहन शुक्ला

लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है । लोकतंत्र के आगाज का बिगुल हुंकार लगाने लगा है। राजनीतिक योद्धा अपने तरकश से तीर पर तीर चला रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य लोकतंत्र का वह संसद के बुर्ज से होने वाली दुर्गति से बेहाल है। उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के बीच सभी दल जिस तरह आदर्श आचार संहिता की धज्जियां उड़ा रहे हैं वह चिन्ताजनक है। अपवाद छोड़कर सभी दलों ने न सिर्फ दागी पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों को टिकट दिये बल्कि चुनाव प्रचार में धनबल का प्रभाव दिख रहा है। जाति व धर्म के नाम पर जिस तरह सभा मंचों से बेखौफ अपीले की जा रही हैं, वह इस लुका छिपी बीमारी का आक्रमक अवतरण है। चिन्ता की बात यह भी है कि चुनाव आयोग ने अब तक जो रूख अख्तियार किया है वह भी सर्वोच्च न्यायालय की फटकार लगाने के बाद किया है और सर्वोच्च न्यायालय में अपने सीमित अधिकार का रोना रोया।

चुनाव आयोग ने नरेन्द्र मोदी के उस बयान पर खामोशी रखी जिसमें उन्होंने मतदाताओं से कहा था कि क्या आपका पहला वोट पुलवामा के शहीदों के नाम समर्पित हो सकता है? इसी तरह क्या राहुल गांधी यह बता सकते हैं कि वह इस नतीजे पर कैसे पहुंच गये कि सर्वोच्च न्यायालय ने राफेल सौदे से जुड़े मामले पर अपने हाल के फैसले में यह कहा कि चौकीदार ही चोर है? जो माहौल है उसमें राजनीतिक दलों से किसी अनुशासन की अपेक्षा करना बेमानी है। उनका उद्देश्य किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना है। ऐसे में चुनाव आयोग के कन्धे पर इन दलों पर लगाम लगाने की जिम्मेदारी आ गई है। यद्यपि आयोग का मौजूदा रूख ज्यादा उम्मीद नहीं दिखाता। टी एन शेषन और उनके बाद के कई चुनाव आयुक्तों के कार्यकाल में राजनीतिक दलों की कंपकंपी छूटती थी पर अब वैसी सख्ती नजर नहीं आती । संसद में लोकतंत्र है, संसद में भारत है वह किस रूप में ? 60 से 70 फीसदी सांसद अरबपति हैं, 90 फीसदी दागी है और 40 फीसदी की शिक्षा निरक्षर से लेकर न्यूनतम स्तर तक है। क्या यही देश का लोकतंत्र है कि सत्ता पर काबिज व्यक्ति जिसकी बुनियाद ही संदिग्ध रही है। गोधरा कान्ड की विभीषिका किसी से छिपी नहीं है।

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सत्ता का गुरूर उसका जुनून उसकी सोच जो आम जन से मेल नहीं खाती उसमें लोकतंत्र कहीं उलझ के रह गया है । मन की बात उस ही दिमाग और दिल के संगम, ब्रेन और हार्ट के मिश्रण को संबोधित करता है। हम उनकी बातों से सहमत हो या न हो लेकिन यह शिर्षक जरुर कहता है कि जो बात कही जा रही है वह समझ-बूझ कर कही जा रही है। लेकिन वह निजी भी है। जज्बाती मन से मन तक और साथ ही दिल से दिल तक। लोकतंत्र के महापर्व की बात हो रही है जो रूपये की चाश्नी में लिपटा हुआ है और रूप्या बोलता है। महापर्व जो 60 दिन का होगा उसमें कितने रूपयों का वारा न्यारा होगा वह आश्चर्य से परे है इसका आंकड़ा अगर 100 खरब को पार कर जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

इसी परिपेक्ष्य में नरेन्द्र मोदी का वह वक्तव्य जो 11 दिसम्बर 2018 को आये चुनावी नतीजों जिसमें भा.ज.पा. तीन प्रदेश छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान में कांग्रेस के हाथों परास्त हुई थी । ‘‘आज के नतीजे देश के विकास और लोगों की सेवा करने के लिये कठिन कार्य करने के हमारे संकल्प को आगे बढ़ायेंगे’’। लेकिन क्या मतदाता इन पर विश्वास करेगा हम भारत के लोग समझदार है, और भावुक भी । हम अक्लमंद हैं लेकिन दिल के गुलाम भी हैं। हमें बहकाना आसान है । चालाक दगाबाज कोई हमारे सामने आये तो हम उसे पहचानने में देर नहीं लगाते हैं । लेकिन मतदाता की सबसे बड़ी कमजोरी है कि लोक लुभावन जुमलों में सब कुछ लुटाने की प्रवृत्ति। इसी कमजोर नब्ज को पकड़कर राजनीतिक पार्टियां जाल बुनती हैं चाहें वह जाति का समीकरण हो या धार्मिक भावनाओं के उकसाने की तुष्टिकरण की प्रवृत्ति या एक जाति विशेष को अलग थलग करने की प्रवृत्ति । जिसमें भड़काऊ भाषण से वोटों का ध्रुवीकरण करने की सोची समझी चाल है. इन सबके पीछे बड़े-बड़े औद्यौगिक घराने का राजनीतिक लाभ लेने की चाह भी अब अप्रत्यक्ष तौर पर राजनीतिक दंगल में अपन-अपने प्यादे पर सब कुछ न्योछावर करने की इच्छा बलवती हो उठती है। दांव सही लगा तो बल्ले-बल्ले नहीं तो नये समीकरण में फिर जोर पैमाइश साम दण्ड, भेदभाव के साथ।

2014 के अच्छे दिन का जुमला शायद प्रधान सेवक भूल कर एक नये स्लोगन ‘‘मैं भी चौकीदार हूं’’ के साथ अपने चुनावी अभियान को गति दे रहे हैं। 2019 के लोकसभा के चुनाव के भा.ज.पा. के संकल्प पत्र में धारा 370 और 35ए को खत्म करने की बात कही गई है। सवाल उठता है कि केन्द्र में भा.ज.पा.सरकार पिछले पांच साल में इसको लेकर क्यों खामोश रही? क्यों भा.ज.पा. ने जम्मू कश्मीर में पी.डी.पी. के साथ मिल कर सरकार बनायी जहां पीडीपी की नीति विद्रोहात्मक है जो भा.ज.पा. की नीति से कही मेल नहीं खाती । इसी से इनकी मंशा पर संदेह होता है।
गरीबी, शिक्षा और सियासत, सियासत इन चीजों को खांचों में बांटती है। वह कौन सी सियासत है जिनसे गरीबी को लेकर, शिक्षा को लेकर, धर्म को लेकर देश के भीतर एक मोटी रेखा खींच दी गई है। आपको सत्ता पर आश्रित होना होगा जिन्दा रहने के लिये । गरीबी एक पब्लिक टूल है सत्ता में बने रहने का।

राजनेता किस तरह क्षेत्रवार जाति आधार पर चुनावी वायदे का जुमला फेंकते हैं और जनता सहज ही स्वीकार करती है। और मान लेती है कि यह वायदे पूरे होंगे। यहां भी राजनीतिक पार्टियां जाति समीकरण का तानाबाना बुनती हैं चुनाव में किस जाति का प्यादा चुनाव लड़ेगा यह मंथन का विषय होता है। राजनीतिक पार्टियां एवं इसके नेता बखूबी जानते हैं कि अमुक-अमुक क्षेत्र में उनके हित की बात कैसे करनी है और लोक लुभावन वायदे करने हैं खास तौर से दलित और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में जाकर लेकिन होता वही है कि वायदे कभी पूरे नहीं होते और जनता ठगी जाती है।
मुफ्त खोरी की प्रवृत्ति किस तरह अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है इसका एक प्रमाण यह है कि 2014 से अब तक 1.9 लाख करोड़ रूपये की कर्ज माफी की जा चुकी है। आम चुनाव से पहले केन्द्र सरकार छोटे किसानों को सालाना 6000 रूपये देने की योजना लेकर आयी इस योजना में सालाना 75000.00 करोड़ रूपये खर्च होंगे । खाद्य, पेट्रोल और उर्वरक सब्सिडी की मद में 2.84 लाख करोड़ रूपये दिये ही जाते हैं। सत्ता पर आने पर कांग्रेस भी प्रति गरीब परिवार लगभग 72000.00 सालाना की न्यूनतम आय देने का वादा कर रही है। साफ है कि सभी राजनीतिक दल समाज की भलाई के नाम पर मुफ्त खोरी का सहारा लेकर एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि इतना सारा पैसा कहां से आयेगा या तो करों को बढ़ाया जायेगा या फिर सरकारी घाटे में और वृद्वि होगी । अनुमान है कि राजकोषीय घाटा लगभग 8.5 लाख करोड़ रूपये का होगा जो 6.24 लाख करोड़ रूपये के अनुमान से कही ज्यादा है।

आम तौर पर गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी की ही बात होती है लेकिन हमे उद्योगों और अमीर लोगों को दी जाने वाली सब्सिडी पर भी ध्यान देना होगा हमारे यहां मुफ्त खोरी की प्रवृत्ति क्यों है? इस पर दो विरोधी विचार हैं एक यह है कि बढ़ती असमानता, कुपोषण की स्थिति और खेती के संकट के साथ भारत एक गरीब देश है। साब्सिडी के जरिये हम समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते सब्सिडी लोगों को आलसी बनाती है और काम के प्रति लगन को खत्म करने का काम करती है।

चुनाव के समय मुफ्त की बन्दरबांट का उपयोग नाटकीय रूप से बढ़ रहा है। दिखाया तो यह जाता है कि इसके पीछे जन कल्याण की मंशा है लेकिन इसके पीछे वास्तविक मंशा सरकारी पैसों से वोट खरीदने की होती है। हमने मुफ्त खोरी के प्रभाव का -शायद ही कभी अध्ययन किया है। हमने कभी किसी राजनीतिक दल से यह नही पूछा कि वह कौन से स्रोत है जहां से लोक लुभावन वायदे पूरे किये जायेंगे। सरकार द्वारा उपयोग किया जाने वाला धन जनता का धन है। और चुनावी उन्माद के दौरान हमें यह पता ही नहीं चलता कि धन कहा से आने वाला है।
लोक लुभावन घोषणा करने से पहले राजनीतिक दलों को यह बताना चाहिये कि पैसा कहां से आयेगा हमें पिछली लोक लुभावन योजनाओं के प्रभाव का अध्ययन भी करना चाहिये और इस क्रम में यह भी देखना चाहिये कि उन्होंने नीतिगत उद्देश्य को प्राप्त किया या नहीं ? यदि नहीं तो यह स्पष्ट रूप से लोक लुभावन वादे वोट पाने के लिये किये जा रहे हैं। जनता को, मतदाता को अपना समझना सपना देखना है मतदाता स्वाभिमानी है, स्वतंत्र स्वायत्त है, वह बहलाया जा सकता है कुछ समय के लिये लेकिन बहकाया नहीं जा सकता।

इस बार 2014 की मोदी लहर नहीं है । मतदान खामोशी से आगे बढ़ रहा है । मतदाता का रूख क्या है यह केवल अटकलों पर ही आधारित है। इस चुनाव में क्या कोई अन्डर करेन्ट है इसका आंकलन करने में राजनितिक विशलेषक भी कतरा रहे हैं। भा.ज.पा. हो या कांग्रेस दोनों पार्टियों के राजनेता में विश्वास की कमी और संशय ज्यादा है। इस चुनाव के हालात 1977 एवं 2004 के चुनाव से काफी मेल खाते हैं । जिसमें क्रमश: 1977 में इन्दिरा गंधी के विश्वास को झटका लगा था और वह बुरी तरह चुनाव हारी थीं । इसी तरह 2004 में अटल जी की शाइनिंग इंडिया गर्त में जा गिरी थी । और अटल जी बुरी तरह चुनाव हार गये थे। क्या 2019 का लोकसभा चुनाव उसी लीक पर जा रहा है क्या संदेश लेकर आ रहा है इसका 23 मई 2019 तक इन्तजार करना होगा।

 

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