लखनऊ अनकही-अनसुनी: जानिए 160 मसालों से बने `लखनवी कबाब` का क्यों बदल जाता है हर मौसम मिजाज़

संक्षेप:

  • जानिए 160 मसालों से बने `लखनवी कबाब` के हर मौसम मिजाज़ बदलने की क्या है वजह
  • जानिए क्यों सिर्फ मई के महीने में ही सबसे लजीज़ लगता है `शामी कबाब`
  • काकोरी कबाब के शाह अबी अह्दर साहिब दरगाह में पहली बार पकाए जाने की ऐतिहासिक कहानी
     

अश्विनी भटनागर

लखनऊ में कबाब खाने का मौसम आने वाला है। वैसे तो कबाब सारे साल खाए जाते हैं, लेकिन उनका असली मज़ा अप्रैल–मई में ही है क्योंकि उस समय अमिया में ठीक वो खटास आ जाती है। जोकि लखनवी कबाबों को और जगहों के कबाबों से एकदम अलग दर्जा देती है। वैसे कबाब हो या कोरमा या फिर कोई और तरह का खाना, लखनऊ की बेगमों और बाकों का हाथ लगने से उसकी लज्ज़त सौ गुनी बढ़ गयी है। हिंदुस्तान में लखनऊ के तरह की शायद बहुत कम जगह ऐसी होंगी, जहां पर खाना बनाने को वैसा ही दर्जा नवाज़ा जाता रहा है जैसे कि और जगहों में शास्त्रीय कलाओं को दिया जाता है।

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अमूमन जब लखनऊ की बात आती है तो आजकल टुंडा कबाबी और काकोरी कबाब जैसी कुछ चीजों पर आकर ही ठहर जाती है। टुंडे के कबाब के बारे में सब जानते है -– शुरुआत में सिर्फ ‘बड़े’ (गायभैस) के गोश्त से ही बनता था और चौक में उसकी पहली दूकान सौ साल पहले खुली थी। रोचक बात यह है कि इस कबाब में 160 तरह के मसाले डाले जाते है जिनकी पूरी लिस्ट टुंडे के परिवार वालो के पास ही है। मसाले मिलाने का काम पर्दानशी घर की औरते किया करती थी जिससे मसाले की रेस्पी बाहर न जा सके।

काकोरी कबाबों के बारे में कहा जाता है वो पहली बार काकोरी गाँव में स्थित हज़रत शाह अबी अह्दर साहिब के दरगाह में पकाए गये थे और वो इतने लज़ीज़ इसलिये है क्योंकि उन पर पीर ही मेहर हुयी थी। पर इन दोनों के अलावा गलावटी कबाब, शामी कबाब, सीक कबाब, पसंदा कबाब, बोटी कबाब, गिलाफ़ी कबाब, पतीली के कबाब, घुटवा कबाब का अपना अलग ज़ायका है। हर कबाब अपने में एकदम अलग किस्म का है और उसका स्वाद ऐसा है कि एक को दूसरे से अदला –बदला नहीं जा सकता।

पर लखनऊ में सबसे अच्छे कबाब शामी कबाब बनते है। बारीक़ कुटा हुआ कीमा इसके लिये बहुत ज़रूरी है। वैसे कबाब कैसे भी हो लखनऊ में उन्हें दस्तरख्वान पर तभी रखा जाता है जब वो मुंह में रखते ही घूल जाये। अगर चबाना पड़े तो कबाब बेकार है। शामी कबाब सबसे लजीज मई के महीने में बनते है क्योंकि अमिया, जिसको कैरी या कच्चा आम भी कहते है, उसी समय अपनी खट्टी-सी मिठास पर होता है। वैसे भी लखनऊ अपने आमो के लिये मशहूर है –- लगभग 1500 तरीके के आम यहाँ के बगीचों में मिलते है जिनमे हरदिल अज़ीज़ दशहरी आम है।

शामी में कैरी को बहुत महीन घिस कर मासलो में मिलाया जाता है और फिर कीमे में लपेटा जाता है। ताज़ी पेड़ से तोड़ी हुयी कैरी, शामी कबाब को उसका बेहतरीन जयका देती है। वैसे साल के और महीनों में कैरी की जगह कमरख या करौंदे का इस्तमाल होता है पर मई में बने शामी की शान ही अलग है। कबाब में खट्टापन लाने के लिये नीबू का इस्तमाल नाकाबिले बर्दाश्त है।

जहां शामी गर्मी के दिनों में सबसे बढ़िया पकता है तो बरसात नहरी कबाब का मौसम है। नहरी खास तरह के सरसों के तेल में बनते है। इसके लिये सरसों फरवरी –मार्च में काट ली जाती है और उसका तेल निकाल कर कढ़ावो में तब तक गर्म किया जाता है जब तक उसमे से धुआ न उठने लगे। उसके बाद उसको मलमल के कपड़े से छाना जाता है और मिट्टी के मर्तबानो में बंद करके किसी पेड़ की छाया में नौ महीनो के लिये गाढ़ दिया जाता है। बरसात के मौसम में मिट्टी नम्म रहती है और इसलिये तेल की तासीर और भी बढ़ जाती है। अगली बरसात से पहले मर्तबानो को खोला जाता है और फिर जब काली घटाए घिरी हो तो इस दानेदार सरसों के तेल से नहरी कबाब बनते है।

शाह देग जाड़ो में बनता है और वो लखनऊ में बसे कश्मीरियों के देन है। जौज़ी हलवा सोहन भी इसी मौसम में बनता है क्योंकि गेहूं को कई रात जाड़े की शबनम (ओस) में तर करना इसके बनाने की ज़रूरी शर्त है। ज़र्दा, चावल की एक दिश, वसंत में परोसा जाता था और गोश्त के कुंदन कलिया में असली सोने का तड़का दिया जाता था क्योंकि खाने का रंग बसंती होना ज़रूरी था।

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