लखनऊ: 1905 में खोली थी ‘टुंडे कबाब’ की दुकान, ऐसा रहा अब तक का सफर

संक्षेप:

  • 1905 में पहली बार अकबरी गेट में खोली थी ‘टुंडे कबाब’ की दुकान
  • नीचे पढ़े- क्या है टुंडे कबाब की कहानी
  • नीचे पढ़े- कैसे पड़ा टुंडे कबाब नाम

लखनऊ: नॉनवेज खाने के शौकीनों में जितनी शोहरत लखनऊ के टुंडे कबाब ने पाई है उतनी हैदराबादी बिरयानी या किसी और अन्य व्यंजन ने नहीं। लखनऊ के टुंडे कबाब की कहानी बीती सदी की शुरूआत से ही शुरू होती है, जब 1905 में पहली बार यहां अकबरी गेट में एक छोटी सी दुकान खोली गई। कहा जाता है लखनऊ आने वाला वो हर शख्स जो नॉनवेज का शौकीन है पता पूछते-पूछते अकबरी गेट की इस दुकान पर एक बार जरूर पहुंचता है।

लखनऊ के टुंडे कबाब की कहानी बीती सदी के शुरूआत से ही शुरू होती है, जब 1905 में पहली बार यहां अकबरी गेट में एक छोटी सी दुकान खोली गई। हालांकि टुंडे कबाब का‌ किस्सा तो इससे भी एक सदी पुराना है। दुकान के मालिक 70 वर्षीय रईस अहमद के अनुसार उनके पुरखे भोपाल के नवाब के यहां खानसामा हुआ करते थे। नवाब खाने पीने के बहुत शौकीन थे, लेकिन उम्र के साथ मुंह में दांत नहीं रहे तो खाने पीने में दिक्‍कत होने लगी। बढ़ती उम्र में भी नवाब साहब और उनकी बेगम की खाने पीने की आदत नहीं गई ऐसे में उनके लिए ऐसे कबाब बनाने की सोची गई जिन्हें बिना दांत के भी आसानी से खाया जा सके। इसके लिए गोश्त को बारीक पीसकर और उसमें पपीते मिलाकर ऐसा कबाब बनाया गया जो मुंह में डालते ही घुल जाए।

पेट दुरुस्त रखने और स्वाद के लिए उसमें चुन चुन कर मसाले मिलाए गए। इसके बाद हाजी परिवार भोपाल से लखनऊ आ गया और अकबरी गेट के पास गली में छोटी सी दुकान शुरू कर दी गई। हाजी जी के इन कबाबों की शोहरत इतनी तेजी से फैली की पूरे शहर भर के लोग यहां कबाबों का स्वाद लेने आने लगे। इस शोहरत का ही असर था कि जल्द ही इन कबाबों को अवध के शाही कबाब का दर्जा मिल गया। इन कबाबों के टुंडे नाम पड़ने के पीछे भी दिलचस्प किस्सा है। असल में टुंडे उसे कहा जाता है जिसका हाथ न हो। रईस अहमद के वालिद हाजी मुराद अली पतंग उड़ाने के बहुत शौकीन थे। एक बार पतंग के चक्कर में उनका हाथ टूट गया। जिसे बाद में काटना पड़ा।

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पतंग का शौक गया तो मुराद अली पिता के साथ दुकान पर ही बैठने लगे। टुंडे होने की वजह से जो यहां कबाब खाने आते वो टुंडे के कबाब बोलने लगे और यहीं से नाम पड़ गया टुंडे कबाब। खास बात ये है कि इन टुंडे कबाबों की प्रसिद्धी बेशक पूरी देश दुनिया में हो लेकिन हाजी परिवार ने इनकी कीमतें आज भी ऐसी रखी हैं कि आम या खास किसी की जेब पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। परिवार का ध्यान दौलत से ज्यादा शोहरत कमाने पर रहा। जब दुकान शुरू हुई थी तो एक पैसे में दस कबाब मिलते थे फिर कीमतें बढ़ने लगी तो लोगों को दस रुपये में भर पेट खिलाते थे।

आज दो रुपये में एक कबाब मिलता है तो पांच रुपये का एक परांठा। इन कबाबों को परांठों के साथ ही खाया जाता है। परांठे भी ऐसे वैसे नहीं मैदा में घी, दूध, बादाम और अंडा मिलाकर तैयार किए जाते हैं। जो एक बार खाए वो ही इसका दीवाना हो जाए। इस स्वाद का ही असर है कि शाहरुख खान, अनुपम खेर, आशा भौंसले जैसे और सुरेश रैना जैसे बड़े बड़े नाम टुंडे कबाब खाने यहां आ चुके हैं।

 

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