अटल बिहारी वाजपेयी के वो सपने जो नहीं हुए पूरे, रह गए अधूरे

संक्षेप:

  • पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का अंतिम संस्कार आज
  • उनके ये सपने नहीं हुए पूरे
  • लखनऊ से रहा खास नाता

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का गुरुवार को निधन हो गया। आज यानि शुक्रवार को उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा। इस बीच हम आपको बताने जा रहे हैं उनके सपनों से जुड़ी बातें जो पूरे नहीं हुए।

1. लखनऊ में घर

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का यूपी की राजधानी लखनऊ से खास नाता रहा। लखनऊ में यूं तो उनके कई ठिकाने रहे। लेकिन उनका खास लगाव अपने हजरतगंज क्षेत्र में स्थित राज्य संपत्ति विभाग की कालोनी ला प्लास में अपने फ्लैट नंबर-302 से रहा। वे जब भी लखनऊ आते गेस्ट हाउस में कम ही ठहरते। अपने फ्लैट से उन्हें खासा लगाव था।

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यह फ्लैट उनके लिए खासा भाग्यशाली भी साबित हुआ। क्योंकि इसी फ्लैट में रहते हुए वे लखनऊ से सांसद, नेता विपक्ष और प्रधानमंत्री तक रहे। लंबे समय तक यह फ्लैट उनका आशियाना रहा।

अटल बिहारी वाजपेयी की हार्दिक इच्छा थी कि लखनऊ में उनका अपना एक घर हो। इसके लिए उनकी पहली पसंद बख्शी का तालाब क्षेत्र था। वे यहां की हरियाली से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने एक चुनावी सभा में ऐलान तक कर दिया कि वे इस क्षेत्र में जमीन खरीदकर अपना आशियाना बनाएंगे। बख्शी का तालाब क्षेत्र की हरियाली ने उनका मन मोह लिया था। यह बात दीगर है कि अटलजी का लखनऊ में अपना घर बनाने का सपना पूरा नहीं हो सका।

यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और मध्यप्रदेश के राज्यपाल रहे राम प्रकाश गुप्ता का माल एवेन्यू स्थित बंगला गुप्ता के निधन के बाद अटल बिहारी वाजपेयी को आवंटित हुआ। लेकिन जब उनको मालूम पड़ा कि उस बंगले में राम प्रकाश गु्प्ता का परिवार रह रहा है तो उन्होंने मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए यह बंगला लेने से साफ इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि जिस बंगले में रामप्रकाश जी का परिवार रह रहा है वे उसे कैसे ले सकते हैं। उसमें राम प्रकाश जी के परिवार को रहना दिया जाए।

2. स्वर्णिम चतुर्भुज योजना

इसके अलावा वाजपेयी की कुछ उपलब्धियां ऐसी रही जिसके लिए वह आज भी लोगों के बीच लोकप्रिय हैं। इनमें से एक नदी जोड़ो योजना और एक स्वर्णिम चतुर्भुज योजना आदि महत्वपूर्ण रही। ये दोनों योजनाएं भले ही उनकी पूरी नहीं हो पाई लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी।

स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना भारत की सबसे बड़ी और दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी राजमार्ग परियोजना है। 2001 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी शुरुआत की थी और यह परियोजना 2012 में पूर्ण हुई। स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना पर करीब 60,000 करोड़ रूपये का खर्च हुआ। स्वर्णिम चतुर्भुज की कुल लंबाई 5,846 किलोमीटर है और यह भारत के 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से होकर गुजरती है।

स्वर्णिम चतुर्भुज देश के चार सबसे बड़े शहर नई दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता को एक दूसरे से जोड़ दिया। स्वर्णिम चतुर्भुज ने अहमदाबाद, बेंगलुरु, कटक, जयपुर, कानपुर, पुणे, सूरत, विजयवाड़ा, अजमेर, विशाखापत्तनम, बोध गया, बनारस, आगरा, धनबाद, गांधीनगर, उदयपुर जैसे शहरों को भी जोड़ा। स्वर्णिम चतुर्भुज को चार भागों में बांटा गया है – पहला दिल्ली से कोलकाता 1454 किलोमीटर, दूसरा कोलकाता से चेन्नई 1684 किलोमीटर, तीसरा भाग 1290 किलोमीटर और चौथा भाग 1419 किलोमीटर का है।

स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के तहत आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक 1014 किलोमीटर की सड़क बनाई गई। इसके साथ उत्तर प्रदेश में 756, राजस्थान में 725, कर्णाटक में 623, महाराष्ट्र में 487, गुजरात में 485, ओडिशा में 440, पश्चिम बंगाल में 406, तमिलनाडु में 342, बिहार में 204, झारखंड में 192, हरियाणा में 152 और दिल्ली में 25 किलोमीटर सड़क बनाई गई।

3. नदी जोड़ो योजना

नदी जोड़ो योजना में गंगा सहित 60 नदियों को जोड़ने की योजना है। इससे सरकार को उम्मीद है कि कृषि योग्य लाखों हेक्टेयर भूमि की मॉनसून पर निर्भरता कम हो जाएगी.

देश में भीषण बाढ़ और सूखे की समस्या को दूर करने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की नदी जोड़ो परियोजना पर गंभीर हो गई है। सरकार नदी जोड़ो परियोजना पर तेजी से काम कर रही है। 87 अरब डॉलर की इस परियोजना की औपचारिक शुरुआत केन-बेतवा के लिंकिंग योजना से होगी। इस विशाल परियोजना के तहत गंगा सहित 60 नदियों को जोड़ने की योजना है। इससे सरकार को उम्मीद है कि कृषि योग्य लाखों हेक्टेयर भूमि की मॉनसून पर निर्भरता कम हो जाएगी।

आपको बता दें कि, भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने नदी-लिंकिंग परियोजनाओं को पहली बार 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी जी के सरकार ने प्रस्तावित किया था। देश के आधे हिस्से में बाध के कारण तबाही फैली है ऐसे में हर कोई यह नहीं मानता है कि परियोजनाएं प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत, जिसकी आबादी दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत है यहां उपयोग किये जाने वाले जल का केवल 4 फीसदी ही जल है। हाल के कुछ दिनों में बिहार, बंगाल, असम,उत्तरप्रदेश राजस्थान ,गुजरात जैसे राज्यों को भीषण बाढ़ से दो-चार होना पड़ा था। नदियों में जलीय अधिशेष को कम करने से बाढ़ से बचाव हो सकता है और इस अधिशेष को उपयुक्त जगह पहुँचाकर सूखे की समस्या से भी निज़ात पाई जा सकती है। यही कारण है कि कई दशकों से नदी जोड़ो परियोजना को अमल में लाने की बात होती रही है।

नदी जोड़ो परियोजना एक बार फिर से चर्चा में है क्योंकि केंद्र सरकार जल्द ही 87 अरब डॉलर की एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना आरंभ करने जा रही है। इस नदी जोड़ो परियोजना को बाढ़ और सूखे के हालातों का सामना करने के लिये उपयुक्त माना जा रहा है। नदी जोड़ो परियोजना एक ओर जहाँ संभावनाओं का द्वार खोल सकती है, वहीं दूसरी तरफ यह एक दिवास्वप्न भी साबित हो सकती है।

वर्ष 2003 तक इस योजना की रूपरेखा तैयार हो जानी चाहिये और वर्ष 2016 तक इस योजना को असली जामा पहना देना होगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक टॉस्क फोर्स का गठन किया था। टास्क फोर्स द्वारा इस परियोजना पर 560000 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान लगाया गया था।

एक बार फिर वर्ष 2012 में इस परियोजना पर चर्चा शुरू हो गई, क्योंकि यही वह समय था जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना पर समयबद्ध तरीके से अमल करे, ताकि विलंब के कारण इसकी लागत में और अधिक बढ़ोतरी न हो। गौरतलब है कि अदालत ने इस परियोजना पर अमल करने के लिये एक उच्च स्तरीय समिति भी बनाई थी।

वर्ष 2016 में कुछ पर्यावरणीय मंज़ूरियाँ प्राप्त होने के साथ ही सरकार ने केन-बेतवा लिंक परियोजना पर गम्भीरता से अमल करना शुरू किया। इसके साथ ही एक बार से फिर से देश की सभी नदियों को एक-दूसरे जोड़ने की कवायद शुरू हो गई।

केंद्र सरकार जल्द ही 87 अरब डॉलर की महत्त्वाकांक्षी परियोजना को प्रारंभ करेगी। यदि इस योजना पर अमल किया जाता है तो फिर बिहार में नेपाल की ओर से आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकेगा।

साथ ही बांग्लादेश की ओर से आने वाले बाढ़ से भी लोगों को निजात मिल सकती है। विदित हो कि इस योजना के तहत करीब 60 नदियों को जोड़ा जाएगा। इन नदियों में गंगा नदी जैसी महत्त्वपूर्ण और बड़ी नदी भी शामिल है। हालाँकि इस परियोजना को लेकर कुछ लोग विरोध भी कर रहे हैं, जिनमें पर्यावरणविद् तक शामिल हैं। मगर माना जा रहा है कि नदी जोड़ो योजना का बड़ा लाभ होगा। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश के धार्मिक पर्यटन नगर उज्जैन में बहने वाली शिप्रा नदी को नर्मदा नदी से जोड़ा गया है और इसका लाभ यह हुआ है कि पर्याप्त बारिश न होने के बावज़ूद भी इस क्षेत्र में पेयजल का प्रबंध किया जा सकता है।

नदी जोड़ो योजना के लाभ?

1. इससे पीने के पानी की समस्या दूर होगी।
2. आर्थिक समृद्धि आएगी और लाखों परिवारों की आर्थिक बदहाली दूर होगी।
3. नदियों को जोड़ने से देश में सूखे की समस्या का स्थायी समाधान निकल सकता है।
4. सिंचित रकबे में वर्तमान के मुकाबले उल्लेखनीय वृद्धि होगी।
5. जल ऊर्जा के रूप में सस्ती एवं स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त हो सकती है।
6. नहरों का विकास होगा।
7. नौवहन के विकास से परिवहन लागत में कमी आएगी।
8. टूरिस्ट स्पॉट में वृद्धि होगी।
9. बड़े पैमाने पर वनीकरण को प्रोत्साहन मिलेगा।
10. साथ ही ग्रामीण जगत के भूमिहीन कृषि मजदूरों के लिये रोज़गार के तमाम अवसर पैदा होंगे, जो आर्थिक विकास को एक नई दिशा प्रदान करेगी।

परियोजना से संबंधित समस्याएँ

नदी जोड़ो परियोजना के संबंध में सरकार ने प्रारंभिक मंज़ूरी सहित कई मोर्चों पर महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। नदी जोड़ो परियोजना जो दशकों से शुरू होने की बाट जोह रही है, के मामले में विशेषज्ञों की राय हमेशा से विभाजित रही है। इस परियोजना के तहत 3,000 से अधिक जल भंडारण संरचनाओं तथा 15,000 किलोमीटर से अधिक लंबी नहरों के नेटवर्क के निर्माण में करीब 5.6 ट्रिलियन रूपए का खर्च आएगा। ये आँकड़े बताते हैं कि नदी-जोड़ो परियोजना अभियांत्रिकी के इतिहास में अब तक का सबसे साहसी कारनामा साबित हो सकता है। ज़ाहिर है कि जब योजना इतनी बड़ी है तो चुनौतियाँ भी बड़ी होंगी।

नदी जोड़ो परियोजना के आलोचकों का कहना है कि यह परियोजना विसंगतियुक्त जल विज्ञान और जल प्रबंधन की पुरानी समझ पर आधारित है। जिसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। आलोचकों के इस विचार के निहितार्थ को समझने के लिये हमें पहले यह जानना होगा कि जल प्रबंधन का वह कौन सा विचार है जिस पर यह परियोजना आधारित है। दरअसल, नदी जोड़ो परियोजना का मुख्य उद्देश्य यह है कि हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों को नहरों के एक नेटवर्क से जोड़ा जाए, ताकि जल अधिशेष वाली नदियों के जल को इन नहरों के नेटवर्क से उन नदियों तक पहुँचा दिया जाए जिनमें जल का स्तर निम्न है।

मुंबई और चेन्नई में स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के शोधकर्त्ताओं के एक नए अध्ययन ने एक अलग ही तस्वीर पेश की है। वर्ष 1901 से 2004 तक के बीच के 103 वर्षों के अध्ययन से मौसम संबंधी डेटा का विश्लेषण करने के बाद शोधकर्त्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पहले की तुलना में अब नदियों के जल अधिशेष में 10% से अधिक की कमी आई है।

जहाँ तक पर्यावरणीय चिंताओं का सवाल है तो यह माना जाना कि नदी जलापूर्ति का एक माध्यम मात्र है चिंतित करने वाला है। दरअसल, नदी एक संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है और इसमें लाया जाने वाला बदलाव सभी वनस्पतियों और जीवों को प्रभावित करेगा। साथ ही नदियों द्वारा निर्मित उत्तर भारत का विशाल मैदान उपजाऊ बना रहे, इसके लिये नदियों से अत्यधिक छेड़छाड़ को उचित नहीं कहा जा सकता है। यही कारण है कि कुछ हद तक पर्यावरणीय मंज़ूरी प्राप्त करने के बावज़ूद केन-बेतवा परियोजना, पन्ना टाइगर रिज़र्व में संभावित अतिक्रमण को लेकर अटकी पड़ी है।

आगे की राह

नदी जोड़ो परियोजना एक बड़ी चुनौती तो है ही, लेकिन साथ में यह जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले जल संबंधित मुद्दों को हल करने का एक अवसर भी है। अतः इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है और यह गंभीरता उस हद तक जायज़ कही जा सकती है, जहाँ नुकसान कम लेकिन फायदे ज़्यादा हों। दुनिया में जितना पानी उपलब्ध है उसका लगभग चार फीसद ही भारत के पास है। इतने से जल में ही भारत को अपनी आबादी, जो दुनिया की कुल आबादी का लगभग 17 फीसद है, की जल संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने का भार है। तिस पर यह कि करोड़ों क्यूबिक क्यूसेक पानी हर साल बहकर समुद्र में बर्बाद हो जाता है। ऐसे में नदी जोड़ो परियोजना वरदान साबित हो सकती है। हालाँकि ज़रूरी यह भी है कि इसे तब अमल में लाया जाए, जब विस्तृत अध्ययन द्वारा यह प्रमाणित हो कि इससे पर्यावरण या जलीय जीवन के लिये कोई समस्या पैदा नहीं होगी।

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