सत्ता के आगे कानून कमजोर क्यों?

संक्षेप:

  • सत्ता की धमक के आगे कानून बन जाता दास
  • क्या मोदी सरकार वाकई में भ्रष्टाचार को लेकर संजीदा है?
  • क्या आम जन का विश्वास खोते जा रहे हैं मोदी ?

BY: मदन मोहन शुक्ला

यह तो मानना ही पड़ेगा कि सत्ता की धमक के आगे कानून दास बन जाता है। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है, हम भारत के लोग संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित, आत्मार्पित करते है इस प्रस्तावना में न तो भीड़ के न्याय के लिये कोई जगह है ना ही उसका परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन करने वाले नेताओं के लिये।  लेकिन प्रायः इसका उल्लंघन होता रहता है। दरअसल जब कानून बनाने वाले और उसका अनुपालन करने या कराने वाले एक भावभूमि में हो तो संविधान पुर्नपारिभाषित होने लगता है। ऐसी हालत में यदि अदालतें भी अपना काम सही ढंग से न करें तो स्थितियाँ और खराब हो जाती हैं ।

दुर्भाग्य से वर्तमान में ऐसी ही स्थिति नजर आती है। पिछले कुछ दिनों में जो घटनाएँ देश-दुनिया के राजनीतिक पटल पर घटीं और उसका मीडिया खास तौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने संज्ञान लिया ।

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 क्या मोदी सरकार वाकई में भ्रष्टाचार को लेकर संजीदा है? क्यों अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव के अंतिम कार्य दिवस में रविवार की अर्धरात्रि में सी.बी.आई. के 40 अधिकारी कोलकता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के बंगले पर रेड करते हैं भी बिना किसी वारंट के जबकि इस संदर्भ में कोलकता हाई कोर्ट द्वारा किसी भी तरह की गिरफ्तारी पर 13 फरवरी तक रोक लगी थी तो ऐसी भी क्या जल्दी थी? क्यों नहीं नये निदेशक का इन्तजार किया गया ?

उसके बाद जो राजनीतिक ड्रामे बाजी चली। कोलकता पुलिस द्वारा सीबीआई अधिकारियों की गिरफ्तारी से लेकर उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बीच में टी.वी. चैनलों द्वारा संवैधानिक संकट एवं राष्ट्रपति शासन लगाने की पैरवी के बीच संसद को न चलने देना। इस सारे घटना क्रम से सीबीआई एवं कोलकता पुलिस की साख पर जो दाग लगा तो सर्वोच्च न्यायालय की एक टिप्पणी याद आ गई जब कोर्ट ने सीबीआई को पिंजड़े का तोता कहा था । इसकी शुरूआत अक्टूबर 2018 से शुरू हुई थी जब तत्कालीन निदेशक आलोक कुमार के बंगले को दिल्ली पुलिस ने अर्धरात्रि में घेर लिया था और रातो रात सीबीआई दफ्तर  को खुलवाकर निदेशक आलोक कुमार को हटाकर नागेश्वर राव को लाया गया था । इसकी पृष्ठ भूमि में संयुक्त निदेशक राकेश अस्थाना और आलोक कुमार के बीच आपसी लड़ाई को माना जा रहा था । बाद में ठीक 77 दिन बाद उच्चतम न्यायालय आलोक कुमार को उनके पद पर कुछ शर्तों के साथ बहाल करता है और फिर तीन दिन बाद उनका स्थानांतरण और उनके इस्तीफे से इसका पटाक्षेप होता है।

मोदी क्या आम जन का विश्वास खोते जा रहे हैं? क्यों उन्हें विपक्ष में ही भ्रष्टाचार दिखाई देता है ?अपनों में नहीं ?

अरूण जेटली ने पूछा कि ममता बनर्जी क्यों कोलकता पुलिस आयुक्त को बचाना चाहती हैं, विपक्ष ने पूछा मोदी राकेश अस्थाना को क्यों बचाना चाहते है। सीबीआई संवैधानिक संस्थान नहीं है। दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत कार्य करती है इसलिये सीबीआई का दायरा परिभाषित है। दिल्ली से बाहर जाने पर राज्य सरकारों से अनुमति जरूरी होती है उनके इस कृत्य से संघीय-ढाँचे को जो नुकसान  पहुँचा उसकी भरपाई मुश्किल है। आज सीबीआई की साख इतनी गिर गई है कि लोग कहने लगे हैं कि यह सत्ता पार्टी की लठैत है। भ्रष्टाचार हुआ है तो उसकी जाँच होनी चाहिय लेकिन निष्पक्ष इसमें पारदर्शिता होनी चाहिये ऐसे नहीं जिससे संघीय-ढाँचे को नुकसान पहुँचे तथा अपने लोगों को बचाने की प्रक्रिया से परहेज करना चाहिये। पर ऐसा अमूमन नहीं होता ।

भा.ज.पा. ऐसी शुद्व गंगा है जिसमें पापी भी पवित्र हो जाता है। सुखराम जो नरसिम्हा सरकार में दूर संचार मंत्री थे टेलीकाम घोटाले में उनका नाम आने के बाद तब के प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव ने उन्हे पद से और पार्टी से बाहर निकाल दिया था । यही भा.ज.पा. थी जिसने भ्रष्टाचार को मुददा बनाकर 13 दिन संसद चलने नहीं दी थी बाद में वही सुखराम ने हिमाचल प्रदेश में अपनी नई पार्टी बना ली जिससे भा.ज.पा. ने गठबंधन किया और भा.ज.पा. की सरकार बनने पर उन्हें उप मुख्य मंत्री बनाया बाद में वो भा.ज.पा. में शामिल हो गये।  दूसरा नाम सिबू सोरेन झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष जो खनन घोटाले में फंसने पर यू.पी.ए. प्रथम काल के समय यही भा.ज.पा. ने संसद 15 दिन चलने नहीं दी पर जब -सिबू सोरेन भा.ज.पा. में शामिल हुए तथा आगे झारखण्ड में इनके नेतृत्व में सरकार बनी तो वे पाक साफ हो गये। इसी तरह मुकुल राय, शारदा घोटाले के संदिग्ध रहे नवम्बर 2017 में भा.ज.पा. में शामिल हुए तो सीबीआई ने पूछताछ करने के बजाय उनकी फाइल ही बंद कर दी यही हाल हेमन्त विस्वा शर्मा जो असम में उप मुख्य मंत्री हैं जहाँ भा.ज.पा. की सरकार है जो कभी ममता बनर्जी के काफी करीबी रहे थे वह भी शारदा घोटाले के संदिग्धों में एक हैं। लेकिन भा.ज.पा. में शामिल होते ही उनके सारे दाग धुल गये। विपक्ष की बार बार माँग के बाद भी मोदी सरकार मौन और सीबीआई इनसे पूछताछ करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। क्या सियासत की चक्की में सीबीआई पिसने को अभिशप्त है? सीबीआई आज भी 1946 में बने दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबलिश्मेन्ट एक्ट के तहत काम कर रही है यह बड़ी हास्यास्पद बात है कि इतनी बड़ी ऐजेंसी को आज तक लीगल स्टेटस का आधार नहीं दिया गया ।

बंगाल बवाल के पीछे भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है । चन्द महीने के भीतर देश भर में लोक सभा चुनावों में पश्चिम बंगाल कितना महत्वपूर्ण है अंदाजा विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा प्रदेश में लगातार की जा रही रैलियों से लगाया जा सकता है यहाँ से केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ शक्ति प्रदर्शन किया जा रहा है तो दूसरी तरफ भा.ज.पा. अघोषित तौर पर ऐलान कर चुकी है कि पश्चिम बंगाल प्राथमिकता वाले राज्यों में शामिल है। और यहाँ सत्ता हासिल करना और अधिक से अधिक लोक सभा सीटे जीतना पार्टी का प्रमुख लक्ष्य है। यहाँ से जिस दल को सबसे ज्यादा सीटे मिलेंगी केन्द्र में सरकार बनाने का उसका रास्ता उतना ही साफ़ होगा।

सरकार जो भ्रष्टाचार दूर करने का राग अलाप रही है असल में भ्रष्टाचार एक राजनीतिक हथियार के तौर पर उपयोग में आ रहा है यह कृत्य हर सरकारें करती हैं। चुनाव आते ही जोर -शोर से इसका प्रपोगंडा किया जाता है मानों सत्ता पर बैठे लोग सबसे इमानदार हैं लेकिन अमूमन सरकारों की मंशा संदेह के घेरे में रहती है। 2014 के चुनाव से पहले मोदी ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया था कहा था ’’भ्रष्टाचारियों की खैर नहीं, विदेशों में जमा काला धन वापस आयेगा और यह धन गरीबों में बाँटा जायेगा। लेकिन आज 2019 में नतीजा सिफर है‘‘। 2014 चुनाव से पहले विदेशी बैंकों में पैसे के अलग अलग आँकड़े दिये गये थे । मनमोहन सरकार ने कहा था कि विदेशों में काला धन 23374 करोड़, सीताराम येचुरी ने कहा 10 लाख करोड़, स्विस बैंक का आँकड़ा है 14 हजार करोड़ और बाबा रामदेव ने कहा चार लाख करोड़। मोदी ने घूम-घूम कर इसको कैश कराया था और 2014 में भारी बहुमत से सरकार बनायी थी। इसकी पृष्ठ भूमि में 2 जी घोटाला जो मनमोहन सरकार के पतन का कारण बना था और भा.ज.पा. इसी को मुददा बनाकर सरकार में आयी थी लेकिन 2 जी घोटाला का अन्त जज की इस टिप्पणी के साथ हुआ जो 2जी घोटाले को देख रहे थे ’’पिछले चार साल से मैं रोज सुबह-शाम इन्तजार करता रहा कि सरकार अब कोई सबूत पेश करेगी लेकिन अफसोस, भारी मन से सारे अभियुक्तों को सबूतों के अभाव में छोड़ना पड़ रहा है‘‘। तो यह रही भा.ज.पा. सरकार की भ्रष्टाचार से लड़ने की सोच।

विदेशी बैंकों में जमा धनराशि पर विस्तृत रिपोर्ट पहले 2008 में लिंचिसटाइन पेपर से लीक हुई जिसमें कई भारतीय उद्योगपति और राजनीतिज्ञों के नाम थे लेकिन नाम उजागर नहीं किये गये । 2010 में विकलिफट पेपर, 2011 में एच.एस.बी.सी. पेपर, 2013 में ऑफशोर 2014 में लकजमवर्ग पेपर लीक, 2015 में स्विस लिक पेपर, 2017 में पनामा पेपर लीक में विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के पैसे का जिक्र आया लेकिन सरकार का ढुलमुल रवैया। जब ज्यादा शोर-शराबा, एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगे तो वित्त मंत्री अरूण जेटली ने संसद में कहा कि करीब 450 लोगों को नोटिस दी गई है लेकिन उनका नाम नहीं बताया ।

 आज तक उस नोटिस के बारे में जानकारी नहीं है इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारें भ्रष्टाचार को दूर करने को लेकर कितनी संजीदा है। भ्रष्टाचार जो समाज में गहरी पैठ बनाये हुए है जिससे सत्ता नशीनों की रईसी बरकरार रहे तो वो कैसे कानून का डण्डा चलने देंगे भले ही कानून का भय दिखाकर राजनीति करें लेकिन कानून की प्रतिक्रिया से परहेज करते हैं। इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है जब 1974 में इन्दिरा गाँधी के काल में आपात काल लगा जो लोग उस समय जेल में डाले गये वह लोग जब सत्ता में आकर सत्ताधीशों की तरह हो गये, ऐसा जो हुआ। तो सत्ता कानून को अपने खिलाफ कार्यवाही कैसे करने देगी ? अगर ऐसा होगा तो संदेश जायेगा कि कानून सबके लिये बराबर है। राजनेता-अधिकारी का गठजोड़ जो दोनों पंच सितारा रईसी बनाये रखने के लिये सुविधानुसार कानूनी खेल करता है। वोहरा कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि अपराधी एवं भू-माफिया राजनीति को प्रभावित करते हैं। लेकिन वह खुद जब राजनेता बन गये तो यह भारतीय राजनीति के लिये खतरनाक स्थिति है। वे कभी नहीं चाहेंगे कि स्थितियाँ आपके अनुकूल रहें। उनकी मंशा रहेगी कि आमजन जरूरत की छोटी छोटी चीजों के लिये सिस्टम  लड़ता रहे और वह भ्रष्टाचार की खेल को पनपने दें और स्थितियाँ आपके प्रतिकूल बनी रहे। रईसी तथा अनाप -शनाप खर्चे सत्ताधारी कैसे करेंगे इसके लिये पैसा चाहिये वह पैसा तभी आयेगा जब उन कारपोरेट घरानों को लाभ पहुँचेगा वह भी आम आदमी की जेब काट कर ।

क्या हमको पता है कि पेट्रोलियम पदार्थ से एक दिन की कमाई 6 अरब 65 करोड़ मुनाफा एक अरब बीस करोड़ पेट्रोलियम कम्पनी   को जाता है।

इसका एक बड़ा हिस्सा सत्ताधारियों की रईसी पर खर्च होता है इसी तरह वैट से चार अरब छप्पन करोड़ राज्य सरकारों को मिलता है। क्या हमें पता है कि प्रधान मंत्री के एक दिन के विदेशी दौरे पर दो करोड़ दस लाख का खर्चा आता है।  सरकारी विज्ञापन पर प्रतिदिन का खर्चा चार करोड़ है । संसद के चलने पर एक दिन का खर्चा 15 करोड़। बैंक के एनपीए के तहत दो अरब चैबीस करोड़ प्रतिदिन बटटे खाते में चला जाता है। राष्ट्र के नाम पर जो प्रधान मंत्री संदेश देते हैं उस पर आठ करोड़ तीन लाख का खर्च आता है। सांसदों के एक दिन का वेतन रू 48.00 लाख । राज्य के मुख्य मंत्रियों के एक दिन के चाय पानी का खर्चा रू 25.00 लाख। इस रईसी की गणित है ’’जब हम सत्ता में आएँगे आपके अनुकूल कार्य होता रहेगा तथा राजनीतिक दखलंदाजी नहीं होगी इसी आड़ में बड़े बड़े घोटाले होते रहते हैं। सरकारे आती जाती रहती हैं जाँचे होती रहती हैं विरोधियों को साधा जाता है आम आदमी ठगा जाता रहता है वो नेताओं के लुभावने वायदों से मोहित होता रहता है। आस में सरकारें बनती हैं खेल चलता रहता है। सरकारे समकालीन सामाजिक-राजनितिक परिवेश में समावेश के विचार को बड़ी तरजीह देती हैं । राजनेता इस लोक-लुभावनी अभिव्यक्ति का खूब उपयोग करते हैं इसका आशय समाज के अधिकाँश भाग को लोक कल्याणकारी योजनाओं की परिधि में शामिल करना होता है।

सुविधाओं, लाभों और अवसरों की उपलब्धता सभी के लिये सुनिश्चित करना सभी राजनीतिक दलों का आग्रह बन रहा है। हाँलाकि अपने और पराये को पारिभाषित करने के साँचे सबके अलग-अलग होते हैं और अपनी सुविधानुसार वे विभाजन करने वाली रेखा खींचते हैं। अपनों की पहचान और अपने से इतर को बहिष्कृत करना ही इन सीमा रेखाओं की खास भूमिका होती है। असली समस्याओं के समाधान की जगह आये दिन नई-नई सीमा रेखायें खड़ीकर नये समूह और नये भेद पैदा करना राजनीतिक दलों की वर्चस्व स्थापित करने की युक्ति बनती जा रही है। इसके फलस्वरूप हित और लाभ की योजना अलग-अलग समूहों को लाभ पहुँचाती है और अन्य समुदायों का बहिष्कार कर उन्हें हाशिये पर भेजने की प्रक्रिया जारी रहती है।

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