मुगलकाल से लेकर अब तक बदलती रही मेरठ के बाजार की तस्वीर, कुछ ऐसा रहा इतिहास

संक्षेप:

  • अंग्रेजों के आने से पहले तक चहारदीवारी के अंदर घिरा था मेरठ का बाजार
  • अंग्रेजों ने मेरठ में छावनी बनाने के बाद बाजार को किले से बाहर निकाला
  • 80 के दशक में आबूलेन बाजार ने पूरा स्वरूप बदल दिया

मेरठ: भारत के आजादी में मेरठ का अपना ही एक महत्व है। मेरठ का बाजार अंग्रेजों के आने से पहले तक चारदीवारी के अंदर घिरा होता था और छावनी क्षेत्र में फैला हुआ था। गंगा-यमुना के बीच का इलाका होने की कारण मेरठ शुरु से ही व्यापार के लिए अहम माना जाता रहा है। यहां के बाजार मुगलकाल या उससे पहले से ही डेवलप हो गए थे। मेरठ के बाजार में एक विशेष सामग्री का बाजार ही सजता था यानि सराफा बाजार में लंबी दूरी तक सर्राफ ही हुआ करते थे। इसी तरह नील की गली में सिर्फ नील का व्यापार होता था।

स्टेशनरी की सामग्री का बाजार भी केंद्रित ही था। इसकी बड़ी वजह थी ट्रांसपोर्टेशन। यातायात के साधन शून्य थे। सामान को लाना ले-जाना बड़ी चुनौती होती थी, लिहाजा बड़ी संख्या में एक जगह ही एक तरह का सामान उतरता था और वहीं बाजार डेवलप हो जाता था। बाजार की यह तस्वीर लगभग सन् 1800 तक चली। अंग्रेजों ने मेरठ में छावनी बनाने के बाद पहली बार बाजार को किले से बाहर निकाला। यहां तीन रेजीमेंट भारतीय सिपाहियों की और तीन गोरों की खड़ी की गई थी। उन दिनों आर्मी सप्लाई कोर भी इस तरह काम नहीं करता था, लिहाजा रोजाना शाम को फौज के लिए खरीदारी होती थी।

अंग्रेज यह भी नहीं चाहते थे कि खरीद-बिक्री के उद्देश्य से भी भारतीय सिपाही आम नागरिकों के साथ घुले-मिले, लिहाजा छावनी में भी खुदरा और थोक बाजार डेवलप किए गए। इसी का नाम सदर बाजार पड़ा। बाजार तो बाहर निकला लेकिन इसकी शक्ल भी हूबहू शहर के अंदर के बाजार जैसी ही थी। वहीं मोहल्लावार सामानों की बिक्री और बाजार का विशुद्ध रूप से व्यवसाय-व्यापार का केंद्र रहना। पत्ता मोहल्ला, सदर थाने के सामने की स्टेशनरी मार्केट, सराफा बाजार, बजाजा आदि शहर के बाजार की तरह ही काम कर रहे थे। इनका अस्तित्व आज भी दिखता है।

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मेरठ के बाजार का स्वरूप आजादी के बाद बड़ा हुआ। यहां 50-60 की दशक में मोहल्लों से निकलकर बाजार सड़कों पर बसने लगे। इस तरह के पहले बाजार के रूप में मेरठ में बेगमपुल बाजार अस्तित्व में आया। अब बाजार व्यापार के साथ ही मनोरंजन का केंद्र भी बनने लगे थे। खाने-पीने की दुकानें, मनोरंजन के अन्य साधन बाजार में समाने लगे। लोग अब शाम के समय घूमने-फिरने के लिए भी निकलने लगे थे। टीवी और रेडियो की गैरमौजूदगी में यह कांसेप्ट चल पड़ा और तब मेरठ के बेगमपुल बाजार की तुलना लखनऊ के हजरतगंज से होने लगी। समय के साथ इसमें और सुधार होता गया और 80 के दशक में आबूलेन बाजार ने तो मानों पूरा स्वरूप ही बदल दिया। आज इस बाजार की तुलना कनॉट प्लेस से की जाती है।

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