इतिहास बदलने से भी नहीं मिटेगी नेहरू की महान शख़्सियत

संक्षेप:

  • आज नेहरू को भुलाने के लिए कुछ ताक़तें लगी हुई हैं.
  • कुछ तथाकथित इतिहासकारों के सहारे भारत के इतिहास के पुनर्लेखन का कार्य चल रहा है. 
  • जिसमें बच्चों के दिमाग़ से नेहरू सहित बहुत सारे लोगों के नाम ग़ायब करने के प्रयास किए जा रहे हैं. 

- शेष नारायण सिंह

आज यानी 14 नवंबर को जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन है। और बाल दिवस भी। यानी नेहरू और देश के निर्माण में उनके योगदान को याद करने का दिन। लेकिन आज उनको भुलाने के लिए कुछ ताक़तें लगी हुई हैं। कुछ तथाकथित इतिहासकारों के सहारे भारत के इतिहास के पुनर्लेखन का कार्य चल रहा है, जिसमें बच्चों के दिमाग़ से नेहरू सहित बहुत सारे लोगों के नाम ग़ायब करने के प्रयास किए जा रहे हैं जिससे कि वे नेहरू के बारे में कुछ जान ही नहीं पाएँ। क्या इससे नेहरू के नाम को मिटाया जा सकेगा? महात्मा गाँधी की अगुवाई में देश ने 1942 में ` अँग्रेज़ों भारत छोड़ो` का नारा दिया था। उसके पहले क्रिप्स मिशन भारत आया था जो भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन किसी तरह का डॉमिनियन स्टेटस देने की पैरवी कर रहा था। देश की अगुवाई करने की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को साफ़ मना कर दिया था। कांग्रेस ने 1929 की लाहौर कांग्रेस में ही फ़ैसला कर लिया था कि देश को पूर्ण स्वराज चाहिए। लाहौर में रावी नदी के किनारे हुए कांग्रेस के अधिवेशन में तय किया गया था कि पार्टी का लक्ष्य अब पूर्ण स्वराज हासिल करना है। उस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष थे। 1930 से ही देश में 26 जनवरी के दिन स्वराज दिवस का जश्न मनाया जा रहा था। इसके पहले कांग्रेस का उद्देश्य होम रूल था, लेकिन अब पूर्ण स्वराज चाहिए था। कांग्रेस के इसी अधिवेशन की परिणति थी कि देश में 1930 का महान आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ। नमक सत्याग्रह या गाँधी जी का दांडी मार्च कांग्रेस के इसी फ़ैसले को लागू करने के लिए किए गए थे।

वास्तव में 1942 का `भारत छोड़ो` आन्दोलन एक सतत प्रक्रिया थी जो 1930 में शुरू हो गयी थी। जब 1930 के आन्दोलन के बाद अँग्रेज़ सरकार ने भारतीयों को ज़्यादा गंभीरता से लेना शुरू किया लेकिन वादाख़िलाफ़ी से बाज़ नहीं आए तो आंदोलन लगातार चलता रहा। इतिहास के विद्यार्थी के लिए यह जानना ज़रूरी है कि जिस कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे उसी अधिवेशन में देश ने पूर्ण स्वराज की तरफ़ पहला क़दम उठाया था।

ये भी पढ़े :


"आजकल एक दिलचस्प बात देखी जा रही है। जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है तब से देश के निर्माण और आज़ादी की लड़ाई में जवाहरलाल नेहरू के योगदान को नज़रंदाज़ करने का फ़ैशन हो गया है। सवाल है कि नेहरू के योगदान का उल्लेख किये बिना भारत के 1930 से 1964 तक के इतिहास की बात कैसे की जा सकती है?"

जिस व्यक्ति को महात्मा गाँधी ने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, जिस व्यक्ति की अगुवाई में देश की पहली सरकार बनी थी, जिस व्यक्ति ने मौजूदा संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद रखी, जिस व्यक्ति ने संसाधनों के अभाव में भी अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भरता की डगर पर डाल कर दुनिया में गौरव का मुकाम हासिल किया उसको अगर आज़ाद भारत के राजनेता भुलाने का अभियान चलाते हैं तो यह उनके ही व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता है। आजकल कुछ तथाकथित इतिहासकारों के सहारे भारत के इतिहास के पुनर्लेखन का कार्य चल रहा है जिसमें बच्चों के दिमाग़ से नेहरू सहित बहुत सारे लोगों के नाम ग़ायब कर दिए जाएँगे जो बड़े होकर नेहरू के बारे में कुछ जानेंगे ही नहीं। लेकिन ऐसा संभव नहीं है क्योंकि गाँधी और नेहरू विश्व इतिहास के विषय हैं और अगर हमने अपनी आने वाली पीढ़ियों को नेहरू के बारे में अज्ञानी रखा तो हमारा भी हाल उतर कोरिया जैसा होगा जहाँ के स्कूलों में मौजूदा शासक के दादा किम इल सुंग को आदि पुरुष बताया जाता है।

अब कोई उनसे पूछे कि क्या किम इल सुंग के पहले उत्तर कोरिया में शून्य था? दुनिया जानती है कि उत्तर कोरिया के शासकों की इसी बेवक़ूफ़ी के कारण आज वह देश दुनिया का सबसे ग़रीब देशों में है, वहाँ के लोग भूख से तड़पने को अभिशप्त हैं।

महात्मा गाँधी की अगुवाई में आज़ादी की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें नेहरू रिपार्ट का अतुल्य योगदान है। यह रिपोर्ट 28-30 अगस्त 1928 के दिन हुई ऑल पार्टी कांफ्रेंस में तैयार की गयी थी। यही रिपोर्ट महात्मा गाँधी की होम रूल की माँग को ताक़त देती थी। इसी के आधार पर डॉमिनियन स्टेटस की माँग की जानी थी। इस रिपोर्ट को एक कमेटी ने बनाया था जिसके अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे। इस कमेटी के सेक्रेटरी जवाहरलाल नेहरू थे। अन्य सदस्यों में अली इमाम, तेज़ बहादुर सप्रू, माधव श्रीहरि अणे, मंगल सिंह, सुहैब क़ुरेशी, सुभाष चन्द्र बोस और जी आर प्रधान थे। सुहैब क़ुरेशी ने रिपोर्ट की सिफ़ारिशों से असहमति जताई थी। एक बात और हमेशा ध्यान रखना होगा कि महात्मा गाँधी के सन 1942 के आन्दोलन के लिए बम्बई में कांग्रेस कमेटी ने जो प्रस्ताव पास किया था, उसका ड्राफ़्ट भी जवाहरलाल नेहरू ने बनाया था और उसको विचार के लिए प्रस्तुत भी नेहरू ने ही किया था।
नेहरू का विरोध करने वाले लोग कौन?

जवाहरलाल नेहरू को नकारने की कोशिश करने वालों को यह भी जान लेना चाहिए कि उनकी पार्टी के पूर्वजों ने जिन जेलों में जाने के डर से जंग-ए-आज़ादी में हिस्सा नहीं लिया था, आज़ादी की लड़ाई में उन्हीं जेलों में जवाहरलाल नेहरू ने सैकड़ों दिन काटे थे। ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दिन 9 अगस्त 1942 को उनको मुंबई से गिरफ़्तार किया गया था और 15 जून 1945 को रिहा किया गया था। यानी उस आन्दोलन में भी 34 महीने से ज़्यादा वे जेल में रहे थे। इसके पहले भी अक्सर जाते रहते थे। जो लोग उनको खलनायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं, ज़रा कोई उनसे पूछे कि उनके राजनीतिक पूर्वज सावरकर, जिन्ना आदि उन दिनों ब्रिटिश हुकूमत की वफ़ादारी के ईनाम के रूप में कितने अच्छे दिन बिता रहे थे। सावरकर तो माफ़ी माँग कर जेल से रिहा हुए थे। अंडमान की जेल में वी. डी. सावरकर सजायाफ्ता कैदी नम्बर 32778 के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने अपने माफ़ीनामे में साफ़ लिखा था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया गया तो वह आगे से अँग्रेज़ों के हुक्म को मानकर ही काम करेंगे और अँग्रेज़ साम्राज्य के हित में ही काम करेंगे।

"इतिहास का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि वी डी सावरकर ने जेल से छूटने के बाद ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे महात्मा गाँधी के आन्दोलन को ताक़त मिलती हो। बल्कि हिन्दू महासभा के नेता के रूप में अँग्रेज़ों के हित में ही काम किया।"

भारत छोड़ो आंदोलन की एक और उपलब्धि है। अहमदनगर फ़ोर्ट जेल में जब जवाहरलाल बंद थे उसी दौर में उनकी किताब `डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया` लिखी गयी थी। जब अँग्रेज़ हुक्मरान को पता लगा कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बारह सदस्य एक ही जगह रहते हैं और वहाँ राजनीतिक मीटिंग करते हैं तो सभी नेताओं को अपने राज्यों की जेलों में भेजा जाने लगा। मार्च 1945 में गोविंद वल्लभ पंत, आचार्य नरेंद्र देव और जवाहरलाल नेहरू को अहमदनगर से हटा दिया गया। बाक़ी गिरफ़्तारी का समय इन लोगों ने यूपी की जेलों, बरेली, नैनी, अल्मोड़ा में काटा। जब इन लोगों को गिरफ़्तार किया गया था तो किसी तरह की चिट्ठी-पत्री लिखने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई चिट्ठी आ सकती थी। बाद में नियम थोड़ा बदला। हर हफ़्ते इन कैदियों को अपने परिवार के लोगों के लिए दो पत्र लिखने की अनुमति मिल गयी। परिवार के सदस्यों के चार पत्र आ सकते थे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू को यह सुविधा नहीं मिल सकी क्योंकि उनके परिवार में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित और बेटी इंदिरा गाँधी ही थे। वे लोग भी यूपी की जेलों में बंद थे और वहाँ की जेलों में बंदियों को कोई भी चिट्ठी न मिल सकती थी और न ही वे लिख सकते थे।

इसलिए ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का ज़िक्र होगा तो महात्मा गाँधी के साथ इन बारह कांग्रेसियों का ज़िक्र ज़रूर होगा। हाँ, यह अलग बात है कि जब भारत में इतिहास को पूरी तरह से दफ़ना दिया जाएगा और शुतुर्मुर्गी सोच हावी हो जाएगी तब तो जवाहरलाल नेहरू को भुला देना संभव होगा और अहमदनगर के बाक़ी कैदियों को भी भुलाया जा सकेगा। लेकिन अभी तो यह संभव नहीं नज़र आता है।

साभार: सत्य हिन्दी.कॉम

If You Like This Story, Support NYOOOZ

NYOOOZ SUPPORTER

NYOOOZ FRIEND

Your support to NYOOOZ will help us to continue create and publish news for and from smaller cities, which also need equal voice as much as citizens living in bigger cities have through mainstream media organizations.