नई दृष्टि और विमर्श के दरवाजे खोल गया दिल्ली में संपन्न हुआ तीन दिवसीय मैथिली लिटरेचर फेस्टिवल

संक्षेप:

  • दिल्ली में मैथिली लेखक संघ के बैनर तले साहित्य अकादेमी के सभागार में मैथिली लिटरेचर फेस्टिवल का भव्य आयोजन पिछले दिनों संपन्न हुआ.
  • खास बात यह है दिल्ली में लगातार दूसरे साल फेस्टिवल का सफल आयोजन हुआ.
  • मैथिली लिटरेचर फेस्टिवल कई अर्थों में एक बार फिर से चर्चित और ऐतिहासिक रही.

नई दिल्ली: राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में मैथिली लेखक संघ के बैनर तले साहित्य अकादेमी के सभागार में मैथिली लिटरेचर फेस्टिवल का भव्य आयोजन पिछले दिनों संपन्न हुआ. खास बात यह है दिल्ली में लगातार दूसरे साल फेस्टिवल का सफल आयोजन हुआ. तीन दिनों के इस साहित्यिक कुंभ में मैथिली साहित्य जगत के नामचीन कवि, कथाकार, समीक्षक, आलोचक, नाटककार, रंगकर्मी, शिक्षाविद और संस्कृतिकर्मियों की गहमागहमी से साहित्यक और सांस्कृतिक राजधानी दिल्ली की आबोहवा मैथिली संस्कृति के सुगंध से सुवासित होती रही.

मैथिली लिटरेचर फेस्टिवल कई अर्थों में एक बार फिर से चर्चित और ऐतिहासिक रही. चर्चित रही घाघ मैथिलों के स्वभाविक (षडयंत्रकारी) गुणों की वजह से और ऐतिहासिक रही सही साहत्यिक विमर्श की वजहों से. इस फेस्टिवल में दो-तीन ऐसे सत्र की चर्चा सबसे ज्यादा रही जिनसे मैथिली साहित्य के विमर्श का एक नया रास्ता खुलता दिख रहा है. खास कर मैथिली आलोचना पर आयोजित सत्र `समीक्षा सँ आलोचना` में. इस सत्र के मॉडरेटर थे मैथिली के मनीषी आलोचक डॉ. तारानन्द वियोगी. पैनल में शामिल थे उदय नारायण सिंह ` नचिकेता`, शिवशंकर श्रीनिवास, विभा रानी और अजित आजाद.

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मैथिली आलोचना पर चर्चा करते डॉ. तारानंद वियोगी ने कहा कि मैथिली आलोचना अतीतजीवी होती जा रही है. इतना ही नहीं उन्होंने यह भी सवाल पैनलिस्टों के सामने रखे कि आखिर क्या वजह है कि मैथिली आलोचना ने अभी तक अपना सौंदर्यशास्त्र नहीं गढ़ सका. उदय नारायण सिंह नचिकेता ने बांग्ला साहित्य की आलोचना से मैथिली आलोचना की तुलना करते कहा कि बांग्ला साहित्य का आलोचना काफी समृद्ध है और आलोचकों की एक महती परंपरा है. जबकि मैथिली में आलोचना विधा पर कोई काम ही नहीं करना चाहता है. आलोचना की जब भी बात होती है तो हम अतीत में झांकने लगते हैं, जबकि आलोचना को अपनी जमीन समकालीनता में तलाशनी चाहिए. इसी सत्र में हद तो तब हो गई जब श्रोता दीर्धा से मैथिली के एक कथाकार हीरेंद्र कुमार झा आलोचना की उपादेयता और उपयोगिता पर सवालिया निशान खड़े कर दिए. उन्होंने भरी सभा में अपने तईं यह घोषणा कर डाला कि मैथिली के कवि-कथाकारों को आलोचकों की कोई जरूरत नहीं है. अजित आजाद ने इस पर प्रतिवाद करते स्पष्ट किया कि आलोचना किसी रचना की पैमाइश होती है और वो सबसे जरूरी है.

कवि और कविता पर आयोजित सत्र में भी मैथिली के वरेण्य कवि नारायणजी की काव्य भूमि और काव्य चिंता पर गंभीर विमर्श किया गया. इस सत्र के मॉडरेटर का जिम्मा युवा कवि गुंजन श्री के कंधो पर था. मैथिली के चर्चित कवि विद्यानन्द झा ने नारायणजी की कविता पर चर्चा कहते कहा कि जब कभी भी मैथिली शब्दों की अपनी डिक्शनरी होगी उसमें नारायणजी के शब्दों को सबसे पहले शामिल किया जाएगा. उन्होंने कहा कि नारायणजी गाम घर के कवि हैं और वो सही अर्थों में मैथिली को जीते हैं.

मैथिली लिटरेचर फेस्टिवल की विधिवत शुरूआत 8 नवम्बर ससमय सुबह 10 बजे "मोन पड़ैत छथि" सत्र से हुई. इस सत्र का संचालन प्रवीण भारद्वाज ने किया. प्रसिद्ध आलोचक आ साहित्यकार मोहन भारद्वाज के स्मृति में आर.एन.भारद्वाज जी ने, प्रफुल्ल कुमार :मौन` के स्मृतिमे महेंद्र नारायण राम, हरे कृष्ण झा के स्मृति में मनोज मनुज, विवेका नंद ठाकुर जी के स्मृति में किशोर केशव, नरेश मोहन के स्मृति में वंदना झा, अमरेश पाठक के स्मृति में संजीव सिन्हा और डॉ मुनीश्वर झा के स्मृति में प्रो.बंसीधर झा ने जीवन परिचय के संग श्रद्धांजलि अर्पित किया. उद्घाटन सत्र के संचालक किसलय कृष्ण ने अपने मनमोहक अंदाज में फेस्टिवल का श्रीगणेश किया. इस सत्र में मंत्रेश्वर झा, नरेंद्र झा, महेंद्र मलंगिया, शेफालिका वर्मा, नीरज पाठक, अशोक, बुद्धिनाथ मिश्र शामिल रहे. बाबा यात्री द्वारा रचित और संजीव कश्यप के स्वर में मिथिला गीत `भगवन हमर ई मिथिला` की प्रस्तुति से उद्घाटन सत्र की विधिवत शुरुआत हुई.

उसके बाद कथा आ कथाकार सत्र में मॉडरेटर शुभेन्दु शेखर और प्रतिभागी विभूति आनंद, अशोक, श्रीधरम और पन्ना झा ने अशोक की कहानियों पर गंभीर चर्चा किया. समकालीन समाजिक परिपेक्ष्य में अशोक की कहानियों पर चर्चा हुई.

10 नवंबर को यानि फेस्टिवल के अंतिम दिन समकालीन भारतीय साहित्य और मैथिली पर एक सत्र का आयोजन था. इस सत्र के मॉडरेटर चंदन कुमार झा थे. सत्र में अन्य भारतीय भाषा साहित्य के समकक्ष मैथिली साहित्य की स्थिति पर विभा रानी, सतीश वर्मा और विभा कुमारी ने बहस कर सत्र को गंभीर परिणति तक पहुंचाने का काम किया. वर्तमान परिदृश्य में मैथिली साहित्य भारतीय भाषा साहित्य के सामने कहां खड़ी है इस पर विमर्श के कई नए दरवाजों और खिड़कियों को खोला गया.

अंतिम दिन जिस सत्र में सबसे ज्यादा गहमागहमी और बहस होती रही वो थी मैथिली सिनेमा. इस सत्र के संचालक मैथिली मंच के चर्चित उद्घोषक और फिल्मकर्मी किसलय कृष्ण ने मैथिली सिनेमा से जुड़े पैनलिस्ट से काफी तीखे सवाल पूछे. खास कर उन्होंने जब यह पूछा कि क्या मैथिली सिनेमा को भी त्वरित और बाजारू लोकप्रियता को हासिल करने के लिए भोजपुरी सिनेमा के नंगई पर उतर जाना चाहिए या फिर मैथिली सिनेमा को अपने निजता और स्वभावगत संस्कृति को सहेजते हुए धीरे-धीरे ही सही अपनी एक अलग धाक जमानी चाहिए. इस सत्र में मनोज श्रीपति, सागर झा, संदीप झा, जानबी झा और प्रज्ञा झा शामिल रहीं.

 

अंत में अगर इस यज्ञ के कर्ता धर्ता विनोद कुमार झा यानि `सरकार` जिनके जिद और जुनून की वजह से दिल्ली में मैथिली साहित्यकारों का जुटान संभव हो रहा है और उनकी चर्चा नहीं की जाए तो यह बेमानी होगी. आयोजन के पीछे जिनका एक स्पष्ट विजन है और जो मैथिली के प्रति हमेशा समर्पित रहते हैं. उन्होंने एक बार फिर यह साबित किया कि सांस्थानिक सहयोग नहीं मिलने के बाद भी वो किसी यज्ञ को ठान लेते हैं तो उसे सफलतापूर्वक संपन्न कराके ही दम लेते हैं.

- रामबाबू सिंह की रिपोर्ट (लेखक मैथिली के युवा कवि और संस्कृतिकर्मी हैं)

फोटो साभार: Drishyam Media

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