आज भगत सिंह होते तो क्या करते?

संक्षेप:

  • भगत सिंह का पहला मतलब है साहस और ईमानदारी.
  • भगत सिंह ने तय किया कि वे अदालत के मंच का इस्तेमाल अंग्रेज़ी हुकूमत से अपने विरोध के कारण बताने और आज़ादी के अपने खयाल को तफसील से बताने के लिए करेंगे.
  • इसमें वे कामयाब रहे.

- अपूर्वानंद

‘अंग्रेज़ी हुकूमत में राजद्रोह का आरोप कई लोगों पर लगा था : गांधी, तिलक, एनी बेसेंट..’, शशि थरूर ने इतना कह कर सांस भी नहीं ली थी कि बात खाली न जाने देने की आदत से मजबूर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने जोड़ा : भगत सिंह. हंसी की लहर दौड़ गई. हंसी इसलिए कि देखिए आप भूल ही गए थे, आखिर कांग्रेसी ठहरे! भगत सिंह का नाम कैसे याद आता! हमने आपको पकड़ लिया. शशि थरूर ने भी इसका मज़ा लिया और कहा, ‘हां! भगत सिंह उस दौर के कन्हैया ही थे.’ जिस घटना की बात हो रही है वह करीब 4 साल पहले की है. भारतीय जनता पार्टी को यह तुलना नागवार गुजरी. कहां भगत सिंह, कहां कन्हैया! कन्हैया से भगत सिंह की तुलना करके भगत सिंह का अपमान किया गया है, ऐसा पार्टी ने कहा. उसके मुताबिक भगत सिंह ने देश पर सब कुछ न्योछावर करके और ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हुए फांसी का फंदा चूम लिया था. कन्हैया तो जनता के टैक्स के पैसे पर जेएनयू में मौज कर रहा है और देश की पहली राष्ट्रवादी सरकार पर हमले कर रहा है! ( हालांकि भगत सिंह के आख़िरी पलों के ब्योरे में जिस नारे का जिक्र है, वह है : इन्कलाब जिंदाबाद! साम्राज्यवाद का नाश हो! लेकिन राष्ट्रवादियों को कुछ भी कह देने की अनुमति है, उनके लिए तथ्यों की छान-फटक की क्या ज़रूरत) राष्ट्रवाद से घबराई हुई कांग्रेस पार्टी ने थरूर से पल्ला झाड़ते हुए कहा, यह शशि थरूर की अपनी राय है. भगत सिंह एक ही हैं, एक ही रहेंगे, उनसे किसी की तुलना ठीक नहीं.

बेचारे शशि थरूर! कथाकार ठहरे! तुलनाओं से साहित्य का कारोबार चलता है, उपमा, उपमान के बिना कोई लेखक कितनी दूर चल सकता है! चांद सा मुखड़ा कहने पर न तो चांद मुखड़ा हो जाता है और न मुखड़ा चांद! शशि थरूर ने समझाया, भगत सिंह भी बीस के बस पार हुए थे, मार्क्सवादी थे, ऊर्जा से भरे नौजवान थे, कन्हैया भी बीस के कुछ आगे हैं, मार्क्सवादी हैं और ऊर्जा से भरे जवान हैं. तुलना की वजह यही थी! बात निकली तो कह दिया, इसे इससे अधिक खींचने की ज़रूरत नहीं.

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कन्हैया पर भी राजद्रोह का आरोप लगा जिसके चलते कुछ लोग अंग्रेज़ी हुकूमत और भाजपा सरकार में भी तुलना कर रहे हैं. कहीं न कहीं भाजपा के दिमाग में यह बात थी. इधर एक जगह कन्हैया ने भी कह दिया था, अगर यह सरकार अंग्रेज़ सरकार बनना चाहती है तो हम भी भगत सिंह बनने को तैयार हैं!

इसलिए इस तुलना की आशंका से भाजपा की चिढ़ समझ में आती है लेकिन अंग्रेज़ी सरकार और भाजपानीत सरकार की तुलना दूर तक नहीं जाती. उस सरकार पर हिन्दुस्तानियों का कोई बस न था, यह सरकार अपनी चुनी है, चुन लिए जाने के बाद अब जैसी भी निकल गई हो!अगर भगत सिंह नौजवानी के प्रतीक हैं तो हर नौजवान उनकी तरह का होना चाहेगा. लेकिन भगत सिंह होना क्या आसान है! उसके लिए दिन-रात का चैन भुला देना होता है. खुद को जोड़ देना होता है उनसे जिनसे आपका कोई खून का रिश्ता नहीं, जाति का सम्बन्ध नहीं, धर्म का जुड़ाव नहीं.

भगत सिंह का पहला मतलब है साहस और ईमानदारी. जो किया उसकी पूरी जिम्मेदारी लेना, उसके नतीजे से कतराना नहीं. यह गुण आज़ादी की लड़ाई के लगभग सभी नेताओं में दिखता है. इस लिहाज से देखें तो भगत सिंह को गांधी के करीब रखा जा सकता है. सबसे पहले चम्पारण, लेकिन उसके बाद के सभी मौकों पर अदालतों में गांधी ने सिर उठाकर कहा था कि उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के कानूनों को तोड़ा है और इसके लिए जो भी सजा हो, भुगतने को वे तैयार हैं. न उन्होंने, न तिलक ने, न मौलाना आज़ाद ने, न नेहरू ने अपने किए की व्याख्या में दाएं-बाएं करने की कोशिश कभी की और न अपनी सज़ा को कम करवाने की कभी अपील की. इनमें से किसी ने किसी भी वक्त हुकूमत से किसी तरह की माफी की दरख्वास्त कभी नहीं की.

भगत सिंह और उनके साथियों के सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकने की कार्रवाई पर गौर करने की ज़रूरत है. चाहते तो बम फेंकने के बाद की अफरा-तफरी में वे भाग निकल सकते थे. ऐसा उन्होंने नहीं किया, बम के साथ एक पर्चा भी फेंका गया जिसमें इस कार्रवाई का जिम्मा लिया गया और उसकी व्याख्या भी की गई.

भगत सिंह ने तय किया कि वे अदालत के मंच का इस्तेमाल अंग्रेज़ी हुकूमत से अपने विरोध के कारण बताने और आज़ादी के अपने खयाल को तफसील से बताने के लिए करेंगे. इसमें वे कामयाब रहे. बम कांड पर सेशन कोर्ट में अपने बयान पर भगत सिंह ने कहा, ‘मानवता को प्यार करने में हम किसी से भी पीछे नहीं हैं. हमें किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है और हम प्राणी मात्र को हमेशा आदर की निगाह से देखते आए हैं... यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ या विद्वेष की भावना से नहीं किया है. हमारा उद्देश्य केवल उस शासन व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिवाद प्रकट करना था जिसके हरेक काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन अपकार करने की असीम क्षमता भी प्रकट होती है.’

यह अपकार क्या था? आगे इस बयान में कहा गया: ‘... सरकार ट्रेड डिस्प्यूट बिल लेकर सामने आई...वह क़ानून जिसे हम बर्बर समझते हैं, देश के प्रतिनिधियों के सिर पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्षरत भूखे मजदूरों को प्राथमिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया और उनके हाथों से उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया... हमने वह काम मजदूरों की तरफ से प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिए किया था. उन असहाय मजदूरों के पास अपने मर्मान्तक क्लेशों को व्यक्त करने का और कोई साधन भी तो नहीं था.’

भगत सिंह ने साफ़ कहा कि बम बहुत सावधानी से तैयार किए गए थे और उन्हें फेंकते वक्त भी ध्यान रखा गया था कि किसी व्यक्ति को नुकसान न हो. बम फेंकने की अपनी कार्रवाई से वे इन्कार नहीं कर रहे थे लेकिन अपने ऊपर मनगढ़ंत सरकारी आरोपों को मानने से उन्होंने इनकार किया : ‘षड्यंत्रों का पता लगाकर या गढ़े हुए षड्यंत्रों द्वारा नौजवानों को सजा देकर या एक महान आदर्श के स्वप्न से प्रेरित नौजवानों को जेल में ठूंसकर क्या क्रान्ति का अभियान रोका जा सकता है?’

गढ़े हुए षड्यंत्रों का पता लगाकर नौजवानों को जेल में ठूंसने का सिलसिला जारी है : आज़ाद हिंदुस्तान में भी. फिर जानना तो होगा कि ये जवान कौन हैं? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों को गिरफ्तार किया गया, राजद्रोह का षड्यंत्र करने और अंजाम देने के आरोप में. भारत के गृहमंत्री ने पाकिस्तान में बैठे एक दहशतगर्द से कन्हैया के रिश्ते का उद्घाटन किया. उनके यह बताने के अगले क्षण पता चल गया कि यह झूठ था. गृह मंत्री ने इतने बड़े झूठ के लिए खेद प्रकट करना आवश्यक नहीं समझा. दिल्ली पुलिस ने कहा कि गिरफ्तार किये गए छात्र किसी बड़ी भारत विरोधी साजिश का हिस्सा हैं. यह सरकार जानती है और उसकी पुलिस भी कि यह झूठ है. कन्हैया और बाकी छात्र गिरफ्तार होने के पहले जो कुछ कह रहे थे, जेल से छूटने के बाद भी वही कह रहे हैं.

गिरफ्तार और लोग भी हो रहे हैं, प्रताड़ित और लोग भी किए जा रहे हैं : छत्तीसगढ़ इस राष्ट्रवादी षड्यंत्रवादी सरकारी दिमाग की प्रयोगशाला है. सोनी सोरी, लिंगा, प्रभात की प्रताड़ना सिर्फ इसलिए कि वे असहाय कर दिए गए आदिवासियों के हक में काम कर रहे हैं, आवाज़ उठा रहे हैं. ओड़िसा में सारंगी, छत्तीसगढ़ में डॉक्टर जाना! सूची बढ़ती जा रही है. अक्सर किसी पिछली पीढ़ी के आदर्श व्यक्ति का संदेश अपने वक्त के लिए समझने के लिए एक सवाल किया जाता है, आज वे होते तो क्या करते? आज भगत सिंह होते तो क्या करते? क्या वे इस दमनकारी राज्य का विरोध करते या चुप मार बैठ रहते क्योंकि यह सरकार आठों पहर भारत माता की जय का नारा लगाते हुए यह सब कर रही है? जवाब हमें खोजना होगा. तभी हम भगत सिंह की किसी से तुलना और उसकी उपयुक्तता पर भी बात कर पाएंगे.

- लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं

साभार- सत्याग्रह.कॉम

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