जानिए काशी में गणपति उत्सव का इतिहास

संक्षेप:

  • मुंबई में गणपति उत्सव का इतिहास लगभग 400 साल पुराना है
  • गणपति उत्सव का काशी से भी पुराना नाता है
  • मुंबई के बाद शिव की नगरी काशी में गणेश उत्सव की नींव पड़ी

मुंबई समेत देश भर में गणेशोत्सव की धूम है। देश के अलग अलग शहरों में आज गणपति बप्पा मोरया के नारे गूँज रहे है। मुंबई में गणपति उत्सव का इतिहास लगभग 400 साल पुराना है। गणपति उत्सव का काशी से भी पुराना नाता है। मुंबई के बाद शिव की नगरी काशी में गणेश उत्सव की नींव पड़ी। पिता की नगरी में पुत्र के उत्सव का श्री गणोश हुए अबकी 118 साल पूरे हो जाएंगे। काशी में इस परंपरा की नींव ब्रह्माघाट में काशी गणेशोत्सव समिति ने 1899 में रखी थी। 

काशी में गणोशोत्सव बाल गंगाधर तिलक के काशी आगमन के बाद शुरू हुआ था। उस दौर में मिट्टी और पुआल से बने गणेश प्रतिमा की पूजा होती थी। जो  धीरे धीरे अब भव्य रूप में परिवर्तित हो गया। काशी के गणेशोत्सव को वर्तमान स्तर तक पहुंचाने में जिन संगठनों ने अविस्मरणीय योगदान किया।  

काशी में गणेश उत्सव का इतिहास 

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काशी में सबसे पहले गणेशोत्सव की शुरुआत 1899 में ब्रह्माघाट पर काशी गणेशोत्सव समिति ने की थी।  इसके बाद ब्रह्मचारिणी मंदिर स्थित नूतन बालक गणोशोत्सव सेवा समिति भी है।  1909 में  गणोशोत्सव मनाना शुरू किया। बनारस में तीसरा गणोशोत्सव अब से 93 वर्ष पूर्व रामघाट स्थित सांगवेद विद्यालय में शुरू हुआ। यह आयोजन अब भी पारंपरिक रूप में होता है। चौथा स्थान है अगस्तकुंडा स्थित शारदा भवन के गणोशोत्सव का। अबकी 89 वर्ष पूरे करने वाले इस आयोजन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि आयोजन अब भी बिना किसी चंदे के किया जाता है। अगला नाम जंगमबाड़ी मठ के गणोशोत्सव का आता है। यहां पूजन की शुरुआत 88 वर्ष पूर्व हुई थी। 

इन पांच संस्थाओं ने कई वर्षों तक अपने दम पर गणोशोत्सव को नित नए आयाम प्रदान किए। बीते तीन दशकों में काशी में गणोशोत्सव का चलन काफी तेजी से बढ़ा।

आजादी में गणेशोत्सव ने निभाई आंदोलन की भूमिका 

गणेशोत्सव का आरम्भ आजादी के लिए  आंदोलन बनाने की रणनीत बनाने के लिए की गयी। पूजा के माध्यम से लोग एक जगह एकजुट हो आजादी की लड़ाई के लिए नए प्लान बनाया करते थे।  गणोशोत्सव की परंपरा पेशवाओं के जमाने चली आ रही है। इस मौसम में आमतौर पर युद्ध नहीं हुआ करते थे। ऐसे में पेशवा अपने आराध्य भगवान गणोश का उत्सव मना कर आगामी युद्ध में विजय की कामना भी करते थे। वर्ष 1892 में बालगंगाधर तिलक ने इस आयोजन को सार्वजनिक रूप दिया। लाल, बाल, पाल की तिकड़ी में से एक विपिनचंद्र पाल से वार्ता में तय हुआ कि पाल बंगाल में दुर्गा पूजा का और हम दक्षिण में गणोशोत्सव का सार्वजनिक आयोजन करते हैं।

 

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