इलाहाबाद कल आज और...भाई-बहन यानी महादेवी और निराला की कहानी

  • Hasnain
  • Monday | 11th December, 2017
  • local
संक्षेप:

  • इलाहाबाद का ‘आनन्द भवन’ कभी जवाहर लाल नेहरू के वंशजों का था निवास
  • फिराक गोरखपुरी नहीं मानते थे जवाहर लाल नेहरू को ज्ञानी
  • राखी के दिन महादेवी वर्मा से 2 रुपये मांगते थे निराला

 

--वीरेन्द्र मिश्र

वैदिक शहर इलाहाबाद आज हाईटेक हो रहा है और ‘प्रयागराज’ नाम की पहचान के रूप में आगे बढ़ रहा है, किन्तु बीते दिनों में इलाहाबाद की पहचान पं. नेहरू और इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी के नाम की पहचान के साथ जुड़ी रही इनकी जन्म स्थली यही रही, तो आजादी की लड़ाई में नेहरू की पहचान रही और यहीं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने पं. नेहरू की पुत्री इन्दू (इंदिरा) को इंदिरा गांधी नाम भी दे दिया था। यही राजीव गांधी का भी जन्म हुआ। परन्तु आज कथानक भिन्न है। इलाहाबाद का ‘आनन्द भवन’ जो कभी निवास था। नेहरू जी के वंशजों का आज जनता जनार्दन का दर्शनीय स्थल है।

प्रयागराज

जनता जनार्दन यहां जो देखती है, उन कालखण्डों में नेहरू-गांधी परिवार की दास्तान ही छिपी दिखाई जाती है, जबकि न जाने कितने ही लेखक, पत्रकार, समाज सेवी यहां से जुड़े रहे हैं, परन्तु समाज चक्र ने उन सभी काल खण्डों को धूल-धूसरित कर दिया है। जनाब रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी की बात की जाये अथवा डॉ. हरिवंश राय बच्चन की। कैसी अद्भुत बात मानी जायेगी। फिराक गोरखपुरी जहां उर्दू के महान शायर थे और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे और डॉ. हरिवंश राय बच्चन हिन्दी के ‘मधुशाला’ जैसी रचना करने वाले महान कवि थे और वह भी अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे। बाहर उन्हें ‘बच्चन’ कहकर भले ही बुलाया जाता था, किन्तु विश्वविद्यालय कैम्पस में उन्हें डॉ. हरिवंश राय के नाम से ही जाना जाता था। ऐसा उन्होंने अपने संस्मरण में भी लिखा है।

इन्दिरा गांधी और पं. नेहरू

अंग्रेजी के इन विद्वानों से पं. नेहरू की खूब पटती थी अमरनाथ झा तब केन्द्र में बताये जाते थे। कई बार तो ऐसा भी कहा गया कि फिराक गोरखपुरी ‘जीनियस’ अंग्रेजी के पुरोधा थे। वह नेहरू को कतई ज्ञानी नहीं मानते थे। अंग्रेजी बोलने में उन्हें कमतर आंकते ही नहीं कहते भी थे। बच्चन जी तो बाद की श्रेणी में थे, किन्तु उनकी पहचान इस घर से अन्तरगता में बदल गई थी। वह दौर ऐसा रहा कि इलाहाबाद के महान रचनाकारों में फिराक गोरखपुरी और डॉ. बच्चन की पहचान से आगे बढ़ा था, ऐसा नहीं कि यह शहर और आनन्द भवन इन्हीं दो जनों तक सिमटा रहा यहां सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, डॉ. सुमित्रा नन्दन पन्त, डॉ. महादेवी वर्मा, डॉ. राम कुमार वर्मा जैसे महान लेखक और कवियों की पहचान से भी गुलजार रहता था।

आनंद भवन, इलाहाबाद

इसी आनन्द भवन के करीब ही है मुहल्ला ‘कर्नल गंज’ है, जो अपने नाम अनुरूप कर्नल जवानों की पहचान से चैथम लाइन्स के करीब का मुहल्ला था। महादेवी जी तो अशोक नगर में रहती थी, किन्तु बात उन दिनों की है जब सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ और इलाचन्द जोशी दोनों एक साथ कर्नल गंज के एक छोटे से घर में रहते थे। जैसा महादेवी वर्मा जी ने अपने उन दोनों साहित्य भाइयों के बारे में बताया था। दोनों साहित्य जगत के पुरोधा-धुरन्धर कवि और लेखक उपन्यासकार थे, जिनमें जीवन्तता थी। एक लेखक उत्तरी ध्रुव रहे, तो दूसरा दक्षिणी ध्रुव। दोनों जनों में साहित्य की चर्चा पर आये दिन बहस छिड़ जाती। तब आलम ये होता कि कौन बनाये खाना और खाना बन गया, तो कौन साफ करे बर्तन! दोनों जनों में ठन जाती तो बस ठन जाती, फिर समझौता के लिए ‘निराला-जोशी’  दोनों जन महादेवी वर्मा के घर पहुंचते।

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

उन दिनों प्रयाग महिला विद्यापीठ से महादेवी जी जुड़ चुकी थी। वह विद्यालय से घर पहुंची ही थी कि दोनों तमतमाए से पहुंच गये और लगे अपना-अपना राग अलापने। उन दोनों का झगड़ा बढ़ते देख महादेवी ने पहले उन्हें गरमा-गरम चाय पिलाई, फिर बोली कि भाई ऐसा करों एक-एक दिन में बाट लो, एक खाना बनाये, तो दूसरा बर्तन मांजे, फिर दूसरा खाना बनाये, तो पहला बर्तन मांजे।

महादेवी वर्मा

बहरहाल कुछ अन्तराल के बाद दोनों में समझौता हो गया और हंसते-बोलते घर पहुंचे। परन्तु दो साहित्य सेवी, ज्ञानी सृजनशील में से ‘निराला जी’ ने पहले खाना बनाया, ‘खिचड़ी’ जो कि सर्वाधिक रुचिकर और स्वादिष्ट और आसान सुपाच्य भोजन था। किन्तु खिचड़ी पकी भी न थी कि दोनों जनों मे साहित्य चर्चा की जंग छिड़ गई। अब उस बहस में किसी को ध्यान नहीं रहा कि खिचड़ी जल रही है। जोशी जी ने अचानक ठहाका लगाया। और बोले लो खिचड़ी पकी ही नहीं, जल भी गई और हम बहस करने में ही जुटे हैं, तब निराला जी बोले, तो भइया हमने तो खाना बना दिया। अब बारी है तुम्हारी। तुम मांजो ‘बर्तन’। इस जली बटुली की सफाई इलाचन्द अब तुम करो। यही समझौता हुआ हैं। दोनों ने मिलकर ठहाके लगाये और इलाचन्द घुन्नाते-घुन्नाते जली बटुली मांजते रहे।

रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी

ये दो महान साहित्यकारों के जीवन में अन्तरगता से जुड़ा प्रसंग रहा, जिसे महादेवी जी प्राय: मिलने पर सुनाया करती थीं। लेखकों-कवियों का जीवन प्रसंग इस इलाहाबाद शहर में और भी रोचक मनमोहक, भावनात्मक गुणात्मक रहा। निराला जी तब गंगा किनारे दारागंज में रहते थे। साल भर कैसे भी रहते हों, किन्तु अपनी बहन महादेवी जी को बेहद प्यार करते थे और रक्षा-बंधन के दिन उनसे राखी बंधवाने घर जरूर पहुंंचते। राखी के दिन बन ठन कर दारागंज से अशोक नगर पहुंचते और पहुंचते ही बोलते - महादेवी 2 (दो) रुपये ले आओ। महादेवी ने तुरन्त उनको 2 (दो) रुपये लाकर दे दिये। निराला जी एक रुपये रिक्शा वाले को देते और बाकी बचा एक रुपये महादेवी जब राखी बांध देती, तो उन्हें भेंट स्वरूप देते और आशीर्वाद देते। महादेवी जी ने बताया करती थीं कि ऐसे थे हमारे भाई निराला, जो प्यार में निर्मल गंगा जल की तरह छलकते थे और पूरे शहर के प्यारे थे। निर्भीक थे उनके जाने के बाद दारागंज की गलियां सूनी हो गयीं। आज वक्त बदल गया है, न निराला जी हैं और न ही महादेवी जी हैं। किन्तु उन दोनों भाई-बहनों की अनेक कहानियां है, यादें हैं। जो कवि और कवयित्री दोनों के ज्ञान-विवेक के साथ मार्मिक सृजनशीलता की पाठ पढ़ाती है। चाहे ‘गिल्लू’ हो महादेवी की या फिर निराला की ‘कुकुरमुत्ता और गुलाब’ उनकी रचनाओं में डुबकी लगाने पर ही गंगा में डुबकी लगाना होता रहा है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय

यह बात भी गौर करने वाली है कि पं. जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे, किन्तु सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला यदि किसी बात पर नाराज हो जाते, तो उन्हें मनाना नेहरू जी के वश में नहीं होता था। पीली कोठी के राय साहब के आने पर ही शान्त होते थे बहरहाल दारागंज से अशोक नगर तक यही नहीं पूरे शहर में साहित्यकारों की रचनाओं और उनके उन्मुक्त विचारों को लेकर आम चर्चा बनी रहती थी और सिविल लाइन्स स्थित काफी हाउस तब, तो उन लेखकों, पत्रकारों, साहित्य-सेवियों की वैचारिक  बहसों की गवाह बनता था। आज सूनी-सूनी सी हैं दारागंज की गलियां और उदास है काफी हाउस!

हरिवंश राय बच्चन

परन्तु सिविल लाइन्स सज-धज तो बेइन्तहा गया है। खूबसूरती में बेमिसाल जरूर लगता है, किन्तु उसमें जीवन्तता का अभाव है। नई पीढ़ी को अब इस हाईटेक होते शहर में ‘साहित्यकार संस्कारधानी’ को नये सिरे से पुनःप्राण प्रतिष्ठित कराना होगा। भले ही उनके जीवन के प्रसंगो से जुड़ी गोष्ठियों के बहाने हो अथवा उनकी रचनाओं पर नई पीढ़ी का अनुभव मंथन-विचारशाला का बहाना। चाहे प्रेमचन्द की कहानियों की प्रासन्गिकता पर हो या फिर धर्मवीर भारती के ‘गुनाहों का देवता’ के कथानक पर चर्चा हो। देखें हाईटेक होता शहर आगे क्या कुछ कर पाता है! आज की साहित्य सेवा इस ओर सार्थक कदम। बढ़ाने में कितना कामयाब हो पाती है।

महात्मा गांधी

(अगले अंक में फिर भेंट होगी खास ‘अनकही-अनसुनी’ के साथ)

Related Articles