अनकही-अनसुनी लखनऊः सआदत अली खान के मकबरे की खासियत

  • Sonu
  • Saturday | 16th September, 2017
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संक्षेप:

  • चंद खास मकबरों में से एक है सआदत अली खान के मकबरे
  • इस इमारत की कारीगरी बड़े इमामबाड़े से भी बेहतरीन है
  • इसके पूर्व में उनकी बेगम खुर्शीद ज़दी का भी मकबरा है

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः अगर छत्तर मंजिल पर छतरी है तो लखनऊ की किस मशहूर इमारत की गुंबद पर फूलों का गुलदस्ता सजा हुआ है? हम इस इमारत को अच्छी तरह से पहचानते है पर उसकी खूबी को नहीं जानते है। शायद यह भी नहीं जानते कि इस इमारत की कारीगरी बड़े इमामबाड़े से भी बेहतरीन है।  

सआदत अली खान के मकबरा के सामने से हम अक्सर गुजरते है पर न तो उसमें दफ़न व्यक्ति को अच्छी तरह से जानते है न ही उसकी ख़ासियत को। हम नहीं जानते कि जिस लखनऊ के बारे में बात करते हुए उन इमारतों का नाम लेते है जो की हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शामिल है वो इन्हीं नवाब साहब की इनायत है। वास्तव में कैसरबाग (जो उनके ज़माने के खास बाज़ार के नाम से जाना जाता था) से लेकर दिलकुशा कोठी तक लगभग सभी विशेष इमारतें इन्हीं की बनवाई हुई है। हयात बख्श कोठी (राज भवन), फरहत बख्श कोठी (छत्तर मंजिल), लाल बारादरी, दिलकुशा, ला मार्टिनियर, आदि नवाब सआदत अली खान की देन है। हजरतगंज की सीधी सड़क भी उन्होंने ही बनवाई थी।

सआदत अली खान अवध के छठे नवाब थे और आसफ उद दौला के बेटे थे। उनका पूरा नाम यामिन उद दौला नवाब सआदत अली खान था। उनकी ताज पोशी इक्कीस जनवरी 1798 में लखनऊ के बिबियापुर पैलेस में शानदार तरीके से हुई थी। मजे की बात यह है कि उनको अवध का नवाब मुग़ल बादशाह ने फरमान के जरिये मुक़र्रर नहीं किया था बल्कि एक अंग्रेज़ सर जॉन शौर ने उनके सर पर ताज रखा था। नवाब साहब इस दोस्ती और ख़ुलूस से इतने गदगद हुए थे कि 1801 में उन्होंने अंग्रेजों पर अवध हुकूमत की आधी मिल्कियत निछावर कर दी थी। 

पर सआदत अली खान एक अच्छे नवाब थे। अपनी नवाबी के 16 साल के दौर में उन्होंने जहां राज-काज में बड़ी नफासत दिखाई तो दूसरी ओर लखनऊ की शानों शौक़त को बढ़ाने के लिये तमाम इमारते भी बुलंद की थी जिनसे शहर को आर्किटेक्चर का नया स्टाइल मिला था। कोठी हयात बख्श बनाने का काम उन्होंने फ्रेंच साहसी क्लाउड मार्टिन को दिया था जिन्होंने यूरोपियन और हिन्दुस्तानी वास्तु शिल्प को मिला कर एक नया प्रयोग कर के दिखाया था।

मार्टिन ने गोमती नदी के किनारे अपने लिये एक और कोठी भी बनायीं थी जिसका नाम कोठी फरहत बख्श था। नवाब सआदत अली खान ने इसको मार्टिन से पचास हज़ार रुपये में खरीद कर और आलीशान किया। यह कोठी छत्तर मंजिल ने नाम से मशहूर है। नवाब साहब इसी कोठी में रहते थे और बगल में उनकी बनवाई हुयी लाल बारादरी में दरबार लगता था। इस पूरे शाही इलाके को क़सर उल सुल्तान कहा जाता था। गाज़ी उद दीन हैदर की ताज पोशी सआदत अली खान की मौत के बाद लाल बारादरी में ही हुई थी।

लखनऊ के आखरी नवाब वाजिद अली शाह ने लगभग चालीस साल बाद जब कैसरबाग का निर्माण करवाया तब नवाब की रिहाइश छत्तर मंजिल से निकल कर वहां पहुंची थी। सआदत अली खान ने नदी किनारे कोठी दिल आराम, मुनावर बख्श कोठी, खुर्शीद मंजिल (आज का लामार्टिनियर गर्ल्स स्कूल) और चौपड़ घुड़साल (लॉरेंस टेरेस और लखनऊ क्लब) भी बनवाया था।   

1814 में नवाब साहब ने इस दुनिया से रुखसत ली। उनसे पहले उनकी बेगम खुर्शीद ज़दी का इंतकाल हो चुका था और सआदत अली खान ने उनका मकबरा बनवाना शुरू कर दिया था। उनके वारिस ग़ाज़ी उद दीन हैदर ने कैसरबाग में अपने महल को तुड़वा कर उसकी जगह सआदत अली का मकबरा बनवाया था। नवाब और उनकी बेगम का मकबरा आज के बेगम हज़रत महल पार्क के ठीक सामने है और अपने आप में नायब है।

इतिहासकार नन्द लाल चटर्जी अपनी किताब ग्लोरिस ऑफ़ उत्तर प्रदेश में लिखते है कि लखनऊ का बड़ा इमामबारा अपनी कारीगरी के लिये बहुत मशहूर है परन्तु अगर असल काम देखना हो तो वो सआदत अली खान के मकबरे में ही मिलता है।

मकबरा तीन मंजिला है और मुग़ल शैली के आखरी दौर का बेहतरीन नमूना है। यह इमारत लखौरी ईट से बनी है जिसको जोड़ने के लिये चूने का इस्तमाल हुआ है। मकबरे का फर्श बलुआ पत्थर (सैंडस्टोन) का बना हुआ है। इसके चारों तरफ मेहराबे है जिनसे अंदर दाखिल होते है और उनके साथ छत्तरियां है। इसके कोनों में घुमावदार सीढ़ियां है जिन से छत तक या तहखाने में पहुंचा जा सकता है। ऊंची शानदार गुंबद पर उलटे कमल को उखेरा गया है और उसके ऊपर एक कंगूरा है। अगर हम गुंबद को देखे तो उसके ऊपर का हिस्सा फूलों के गुलदस्ते जैसा है।

मकबरे का फर्श काले और सफ़ेद मार्बल का है और उसको देख कर ऐसा लगता है जैसे शतरंज की बिसात बिछी हो। पीछे की तरफ सआदत अली खान की तीन बीवियों की कब्रे है और पूरव की तरफ उसकी तीन बेटिया दफ़न है। गुंबद के ठीक नीचे वो जगह रेखांकित है जहां पर नवाब साहब दफ़न है पर उनकी मज़ार तहख़ाने में है। उसके साथ दो और कब्रें है जो शायद उनके भाइयों की है।  सआदत अली के मकबरे के साथ पूर्व दिशा में उनकी बेगम खुर्शीद ज़दी का मकबरा भी है। दोनों मकबरे ग़ाज़ी उद दीन हैदर ने बनवाये थे।

एक रोचक बात यह 1857 के गद्दर के दौरान अंग्रेजों का एकलौता गिरजाघर सेंट मैरी चर्च ध्वस्त हो गया था। 1860 में क्राइस्ट चर्च बनने तक सआदत अली खान के मक़बरे में ही अंग्रेज़ अपनी इतवार की प्राथना सभा करते थे। यहां तक की बड़ा दिन यानी क्रिसमस भी इसी मक़बरे में धूमधाम से मनाया जाता था।

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