अनकही-अनसुनीः ‘आम’ को खास बनाने की पहल लखनऊ से हुई थी

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  • Saturday | 22nd July, 2017
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संक्षेप:

  • यही से शुरू हुआ छात्रों को आम से खास बनाने का सिलसिला
  • अतुल अंजान और रविदास मल्होत्रा का यही से हुआ उदय
  • आम छात्र को ताकत दो का आंदोलन चला

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः आम लोगों को राजनीति का सरताज बनाना लगभग पांच साल पहले ही सत्ता के गलियारों में फैशनेबल हुआ है। आम आदमी पार्टी इसी बिनाह पर आजकल दिल्ली सरकार चला रही है पर बाहुबली नेताओं और उनके निहित स्वार्थों से मोर्चा लेने की पहल लखनऊ यूनिवर्सिटी से शुरू हुई थी और उसका फोकस गुंडा और अराजक तत्वों से परेशान आम छात्र को ताकत देना था। यह एक अप्रत्याशित आंदोलन था पर बहुत हद तक अनकहा और अनसुना है।

जैसा मैंने पिछले हफ्ते कहा था कि सत्तर के दशक के पहले पांच सालों में लखनऊ की तहजीब और लियाक़त में बदलाव होने लगा था। आप-जनाब को बाहर से लखनऊ में बसने वाले लोग निगलने लगे थे और अबे-तबे तक पहुंच गयी थी। एकाएक लखनवी कल्चर के सामने काउंटर कल्चर मुंह बाये खड़ा हो गया था। मुलामियत और अदब इसके शोर और शक्ल से सकपका गये थे।

यूनिवर्सिटी में हिंसा बढ़ रही थी। छात्र नेता अपना दबदबा बढ़ाने की अफरातफरी में यूनिवर्सिटी को अखाड़ा बनाते जा रहे थे। रोज़ जलूस निकाले जाते थे, आपस में मारपीट और कट्टा बाज़ी होती थी। बसे जलाना और फिर पुलिस पर पथराव करना छात्र जीवन का थोपा हुआ ज़रूरी पाठ हो गया था।

जे पी आंदोलन के सम्पूर्ण क्रांति के नारे ने अराजकता को खूब हवा दी थी। गुंडे, बदमाश, लफंगे अपने आपको क्रन्तिकारी नेता बताने लगे थे और हर तरह की हिंसा कर के अपनी नेतागिरी ज़माने में लगे हुए थे। हाल इतने ख़राब हो गए थे कि दूर दराज के जिलों से चोर, डकैत, गिरोह तक लखनऊ यूनिवर्सिटी में नाम लिखा कर बगावत सिंह और क्रन्तिकारी पांडे बन गए थे।

1975 में इमरजेंसी लगी और हालात काबू में आये। यूनिवर्सिटी में पढ़ाई लिखाई फिर शुरू हुईं। छात्र-छात्राये कैंपस में हिलमिल कर बैठने उठने लगे और तमाम तरह के सोशल और कल्चरल प्रोग्राम होने लगे। वास्तव में सालों में पहली बार लखनऊ यूनिवर्सिटी के कैंपस में वो सब कुछ होने लगा था जो की सामान्य रूप से छात्र जीवन में होना चाहिए।

1977 में इमरजेंसी हटी और गुंडे छात्र नेता भूखे भेडियो की तरह यूनिवर्सिटी और उसके मासूमों पर टूट पड़े। जेपी आंदोलन का तमगा लगाये विभस्त छात्र नेता यूनिवर्सिटी के होस्टलों पर काबिज हो गए और अपनी हतियारधारी राजनीति करने पर उतारू थे।

वैसे इमरजेंसी की वजह से राजनीतिक उग्रता शांत ज़रूर हुई थी पर राजनीतिक सोच खत्म नहीं हुई थी। हालात की समझ रखने वाले छात्र अपने-अपने तरीको से इंदिरा गांधी की दमनकारी नीतियों का विरोध करते रहे थे। इनमें एक छोटा सा गट था जो यूनिवर्सिटी में इमरजेंसी के खिलाफ पोस्टर चिपकता था। आनंद सिंह और शैवाल संजीत इस ग्रुप का नेतृत्व करते थे। आनंद सैनिक स्कूल, घोडा खाल, से थे और शैवाल मशहूर शेरवुड स्कूल, नैनीताल, से लखनऊ आये थे। कई सत्र विरोध प्रदर्शन करने के बाद, दोनों एक रात पोस्टर लगाते वक़्त पुलिस की गिरफ्त में आ गए। मीसा कानून के तहत दोनों ने इमरजेंसी ख़त्म होने तक जेल काटी।

1977-78 में युनिवेर्सिटी का माहौल 1975 सा फिर हो गया था। गुंडई को नेतागिरी फिर से कहा जाने लगा था। पर 18 महीने के अंतराल ने छात्रों को सामान्य कैंपस लाइफ की तरफ उत्साहित भी कर दिया था। जेल से छूटे, आनंद, शैवाल और उनके साथ अश्विनी, अबरार अहमद, राज कुमार अग्रवाल, नवीन जोशी, अलोक टंडन, तंज़ीम अंसारी, ज़ुल्फ़िकार हैदर, अलका पांडेय, मुक्ता, नीरा श्रीवास्तव, सरोज अग्निहोत्री, अशोक घिल्डियाल, विकास अग्रवाल, विजय पाल सिंह, मोहम्मद आरिफ, अब्दुल्लाह रिज़वी, विज्ञानं सेठ, सुधीर तिवारी जैसे आम छात्रों ने मिलके स्टूडेंट्स सोसाइटी बनायीं और गुंडा छात्र नेताओं से लोहा लेने का फैसला किया। इसी तरह का एक और मंच भी तैयार हुआ था राजीव मिश्रा और सोमनाथ सान्याल के नेतृत्व में, पर वो विचार मंच ज्यादा और एक्टिविस्ट कम था।

इसी दौर में स्टूडेंट फेडरेशन के अतुल कुमार सिंह अंजान और जन संघ के रविदास मल्होत्रा का भी उदय हो रहा था। अतुल के असरदार भाषणों की छाप आज भी बहुतों के दिलों पर है। रविदास मृदय भाषी थे और साथ में बहुत ही मेहनती भी थे। इन दोनों के आलावा वो छात्र नेता भी थे जो घनघोर नक्सली थे या फिर गांव-देहात से भागे हुए डकैत।

स्टूडेंट्स सोसाइटी ने इन्हीं गुंडा तत्वों से टक्कर लेने का फैसला लिया। तरीका नायाब था। सोसाइटी के मेंबर दो-चार के ग्रुप में गुंडे नेताओं को कैंपस में मिलते थे और उनसे यूनिवर्सिटी छोड़ने की अपील करते थे। शुरू-शुरू में तो इन `जुझारू` छात्र नेताओं ने इस मुहीम को हलके में लिया और उनको हँस कर टाल दिया पर जैसे-जैसे अपील की फ्रीक्वेंसी बढ़ती गयी, ज्यादा छात्र, विशेषकर छात्राये, उससे जुड़ने लगे, वो झुंझला गए। मारपीट और डराने धमकाने का सिलसिला फिर शुरू हो गया।

आम छात्र को ताकत दो के नारे के साथ स्टूडेंट्स सोसाइटी यूनिवर्सिटी में जमने लगी थी। उसका कहना था कि कैंपस में आम छात्रों की पादशाही होनी चाहिए, राजनीतिक गुर्गो या अपराधियों की नहीं। आम छात्र को ताकत दो का आंदोलन पूरे गाँधीवादी तरीके से चला और उसको आश्चर्य जनक सफलता मिली। लाठी, कट्टा, छुरी, सुतली बम से लैस झुझारू छात्र नेताओं के खिलाफ इस मुहीम में आम छात्रों ने खुल कर शिरकत की। शायद बरसों में पहली बार छात्राये सक्रिय हुई। उन्होंने जलूस निकाले और कैंपेनिंग की। लखनऊ और उत्तर प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित अख़बार ‘दि पायनियर’ ने अपने पहले पन्ने पर सबसे ऊपर छह कॉलम में इस अदभुत घटना की खबर का शीर्षक दिया था “राइज ऑफ़ द साइलेंट वन्स”।

स्टूडेंट्स सोसाइटी की मुहिम का व्यापक असर छात्र संघ के चुनाव पर हुआ था। छात्रों ने पदानुसार सबसे अच्छे प्रत्याशी को चुना था। वामपंथी अतुल अंजान अध्यक्ष बने थे और दक्षिण पंथी रविदास मल्होत्रा महामंत्री बने थे। दोनों ने मिल कर खूब छात्रहित में काम किया था।

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