अनकही-अनसुनीः लखनऊ के इस्लामिक स्मारकों पर उतरे शब्दों की दास्तान

  • Hasnain
  • Saturday | 30th September, 2017
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संक्षेप:

  • लखनऊ में परवान चढ़ी थी हस्तशिल्प विद्या
  • तुघ्रा नवीसी लखनऊ की इस्लामिक तहज़ीब का है बेहद ख़ूबसूरत हिस्सा
  • किसी पाण्डुलिपि से केवल नक़ल करने को कहते है किताबत

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊ की तहज़ीब पर बात करते समय हम पहनावे, खाने, तलफ्फुज़ और अदब की बात तो करते हैं पर यह भूल जाते है कि लिखाई के मामले में भी इस शहर ने दुनिया को बहुत ही नायाब तोहफा दिया है। वास्तव में खुश-नवीसी या खुश-खती जिसको अंग्रेजी में कैलिग्राफी और हिंदी में हस्तशिल्प विद्या कहते हैं लखनऊ में ही परवान चढ़ी थी। इसका सबसे अच्छा नमूना छोटा इमामबाडा है जिसमें खुश-खती को बेहतरीन तरीके से इस्तमाल किया गया है। आगरा का ताज महल इस हस्तशिल्प कला के लिये विश्व प्रसिद्ध तो है पर छोटे इमामबाड़े में जो देखा जा सकता है उसका जोड़ शायद ताज में भी नहीं है।

पर पहले खुश-खती किसको कहते है जान लें। अरबी, फारसी और उर्दू के अक्षरों और शब्दों को  ख़ूबसूरत और नायब तरीकों से लिखने को ख़तताती कहते हैं और जो इस सुलेख कला में प्रवीण होते है उन्हें ख़ततत कहते हैं। जब किसी पाण्डुलिपि से केवल नक़ल ही करनी होती है तो इसे  किताबत कहते हैं। पुराने समय में प्रतिलिपि हाथों से की जाती थी और जिन लोगों की अच्छी हैण्ड राइटिंग होती थी वो इस काम को जीविकार्जन करने के लिये करते थे। उन्हें कातिब कहा जाता था और उनके काम को खुश–नवीसी ( खुश माने अच्छा और नवीसी माने लिखना) कहा जाता था।

लिखने के कई स्टाइल होते थे और अमूमन ख़ततात सात तरह के स्टाइल्स में माहिर होते थे। यह स्टाइल्स थे कूफी, नस्ख, सुलुस, तालिख, शिकस्ता (जो दीवानी के नाम से भी जाना जाता था) और नस्तालिक़। बहुत कम लोग इन सभी विधाओं में काबिल हो पाते थे पर जो माहिर जो जाते थे उन्हें हफ्त-कलम (हफ्त माने सात और कलम माने पेन) के नाम से नवाज़ा जाता था।

उस्तादों के हाथों से लिखी गयी पांडुलिपिया को शागिर्द बड़ी मेहनत से कॉपी करते थे जिससे की उनकी प्रतिलिपि भी मूललिपि की हुबहू हो। यह परमपरागत तरीका तहसीली कहा जाता था और इसमें शागिर्द मूल से कोई भी छेड़छाड़ नहीं कर सकता था। पर वक़्त के साथ ग़ैर तहसीली तरीके का विकास हुआ जिसमें कैलीग्राफर अपनी समझ और कौशल के हिसाब से अक्षरों और शब्दों को चित्रित कर सकता था। इस तरीके से तुघ्रा शैली की पैदाइश हुई जिसमे मूल लिपि के साथ उसका आकर्षक प्रतिबिम्ब भी होता था।

शुरू-शुरू में, तुघ्राकारी या तुघ्रा-नवीसी सिर्फ जियोमेट्रिकल शेपस में ही की जाती थी पर फिर अल्लाह के नामों और अन्य इस्लामिक प्रतीकों में भी काम आने लगी थी। इसका प्रयोग मस्जिदों , मदरसों, खानखाह और मकबरों को सजाने में होने लगा था। साथ ही तुघ्रा को कागज़ और कपडे पर भी उतारा जाने लगा जिसमें सुरह- ए- हमद, आयात- ए- कुर्सी और नाद- ए- अली जैसी छोटी प्राथनाएं हुआ करती थी।

1775 में चौथे नवाब असफ- उद- दौलाह ने फैजाबाद से कूच किया था और लखनऊ को अवध की राजधानी बनाया था। नवाबी दौर में लखनऊ शायद अकेली ही ऐसी जगह थी जिसमे तुघ्रा -नवीसी खूब विकसित हुई थी। तुघ्रा ईरान और इराक में जन्मा था और अवध के नवाब शिया थे  इसलिये उन्होंने इस कला को जमकर प्रोत्साहित किया था।

ईरान और इराक की तरह लखनऊ में भी तहसीली तरीके के जरिये धार्मिक स्थलों पर कुरान की आयते उतारी गयी थी। पर तुघ्रा का पहला इस्तेमाल तब हुआ जब मीर जैनउल अबिदीन खान ने नवाब असफ- उद- दौलाह के वक़्त में एक इमामबाडा बनवाया था। ये ग़ैर तहसीली स्टाइल में था।

नवाब मोहम्मद अली शाह (1837-1842) के शासन काल में तुघ्रा डिजाईन का इस्तेमाल उनके इमामबाड़े को सजाने में खूब किया गया था। उनकी बेगम मलका जहाँ खुद बेहतरीन कैलीग्राफी कर लेती थी और हुस्सैनाबाद में जो नमूने हम देखते है वो उन्होंने ही बनवाये थे।

तुघ्रा नवीसी लखनऊ की इस्लामिक तहज़ीब का बेहद ख़ूबसूरत हिस्सा है। कला की इस विशिस्ट विधा को अगर निहारना है तो छोटे इमामबाड़े में इस कारीगरी को गौर से देख आईये। खुश -नवीसी का और तुघ्रा- नवीसी की नुमाइश मुंशी देवी प्रसाद सहर की किताब अजरंग-ए-चिन में भी है जो की 1875 में छपी थी। जर्नल ऑफ़ इंडियन आर्ट जो की 1914 में लंदन से प्रकाशित हुआ था में लखनवी तुघ्रे का खूब ज़िक्र है।

अभी कुछ साल पहले तक धातु में तराशा हुआ बिस्मिल्लाह का तुघ्रा लखनऊ में आसानी से मिल जाता था। साथ ही लाल, हरे और नीले रंग के मलमल या सिल्क पर काढ़ा हुआ तुघ्रा भी काफी लोकप्रिय था जिसमे पशु –पक्षियों या फूलो के डिजाईन होते थे।   

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