अनकही-अनसुनीः लखनऊ का ऐसे वकील जिसके आगे अंग्रेज जज भी मांगते थे पानी

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  • Saturday | 17th March, 2018
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संक्षेप:

  • वकालत में अपना नाम रोशन किया
  • 1932 में उन्हें सर के ख़िताब से नवाज़ा गया
  • वो आपने जीवन में कभी कोई केस नहीं हारे

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः अशोक मार्ग से निशातगंज पुल की तरफ आते ही गोमती नदी के किनारे से शुरू होती है वजीर हसन रोड जो लखनऊ का खास रिहायशी इलाका है। उच्च वर्ग के लोग इस सड़क पर रहते है और यहां की कोठियां और नव निर्मित फ्लैट्स देखने लायक है। ये सड़क शहर में उतनी ही मशहूर है जितनी की वो शख्सियत थी जिसके ऊपर इसका नाम रखा गया था, `सर सइद वजीर हसन`।

वजीर हसन लखनऊ के रहने वाले नहीं थे। पुश्तैनी तौर से वो जौनपुर के थे जहां पर उनका जन्म 1873 में हुआ था। उनके वालिद के पास काफी ज़मीन–जयदाद थी और वो चाहते थे कि वजीर हसन बड़े हो कर अपना समय उसकी देखभाल में लगाये। उनके चार और भाई भी थे, जफ़र हसन, शब्बीर हसन, असग़र हसन और काजिम हसन। शब्बीर हसन अपने ज़माने के जाने-माने शायर थे जिनका तखलूस क़तील लखनवी था।

बड़े से संपन घर में पले–बढे, वजीर हसन ने जल्द ही फैसला किया की उनको अपनी तामील अंग्रेजी में हासिल करनी है। वालिद से उन्होंने लड़ कर मुइर सेंट्रल कॉलेज, इलाहबाद, और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ कर कानून की डिग्री हासिल की और फिर लखनऊ आ कर जल्द ही वकालत में अपना नाम रोशन किया।

1921 में अवध बार एसोसिएशन के वो पहले हिन्दुस्तानी मेम्बर थे जिन्हें एडिशनल जुडिशल कमिश्नर नियुक्त किया गया था और जब 1925 में अवध चीफ कोर्ट बना तो उनको जस्टिस ऑफ़ द कोर्ट बना दिया गया था। 1930 में वो चीफ जज ऑफ़ द चीफ कोर्ट बन गये थे और 1932 में उन्हें सर के ख़िताब से नवाज़ा गया था।

उनके बारे में कहा जाता था कि उन्होंने कभी कोई केस नहीं हारा था और बाद में जज की हैसियत से उन्होंने जो भी निर्णय दिये उनकी ब्रिटेन की अदालतों ने काट नहीं थी। सही मनाये में वो आलीशान कानूनविद थे जिनकी मोती लाल नेहरु से गहरी दोस्ती थी और उनके बेटे सज्जाद ज़हीर कम्युनिस्ट पार्टी के अग्रिम पंगती के नेता ही नहीं बल्कि जाने माने साहित्यकार भी थे जिन्होंने प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन की स्थापना की थी। मुंशी प्रेम चंद इस एसोसिएशन के नायक थे।

किद्वंती है कि वजीर हसन की फ़ीस उस ज़माने में एक लाख रुपये हुआ करती थी और वो उसको सिर्फ सिक्खों में लिया करते थे। अक्सर उनकी कोठी, वजीर मंजिल, में बैलगाड़िया आती थी जिन पर बोरियों में भरे सिक्के लदे होते थे। उन बोरियों को उतारते समय सिक्कों की जो आवाज होती थी वो इस सड़क की आबोहवा में देर तक गूंजती रहती थी।

वजीर हसन अवध चीफ कोर्ट के पहले हिन्दुस्तानी चीफ जस्टिस थे। उन्होंने 1930 से 1934 तक इस पद की गरिमा बढाई थी। रिटायर होने के बाद वो राजनीति की तरफ आकर्षित हो गये थे और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के सेक्रेटरी और बाद में प्रेसिडेंट बने थे। लीग के चौबीसवे अधिवेशन में, जो अप्रैल 11-12, 1936, में बॉम्बे में हुआ था, उन्होंने अपने भाषण में हिंदु–मुस्लिम एकता पर जोर दिया था। जिन्नाह से उनके गहरे तालुकात थे पर वो उनकी तरह मुसलमानों के लिये अलग देश बनाने के पक्षधर नहीं थे।

वजीर हसन मौलाना आजाद के भी करीब थे और उनके प्रभाव के चलते उन्होंने लीग की अलगाववादी विचारधारा को बदलने की पूर कोशिश की थी। उनकी वजह से ही लीग ने 1913 में लखनऊ में हुये अपने सेशन में सेल्फ गवर्नमेंट की मांग उठायी थी। यह एक बड़ा बदलाव था क्योंकि लीग अब तक अपने को ब्रिटिश हुकूमत से संबंध कर के सिर्फ मुसलमानों के हक की ही बात करती थी।

वजीर हसन का सबसे यादगार मुकदमा 1941 का हिंदुस्तान टाइम्स अवमानना केस है जिसमें उन्होंने प्रेस की आज़ादी को ले कर कई अहम सवालों पर बहस की थी और उनको ले कर कई मौलिक सिद्धांतों को स्थापित किया था। उनकी मृत्यु 1947 में लखनऊ में हुयी थी।

वजीर हसन प्रगति वादी थे। उनकी पत्नी सकिनातुल फ़ातिमा ने पर्दा 1930 के असहयोग आंदोलन के दौरान त्याग दिया था। उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली बीच हजरतगंज में जलायी थी और उसके बाद चरखा काटना और खादी पहनना शुरू कर दिया था। क्योंकि वो सर वजीर हसन की बीवी थी तो वो लेडी वजीर हसन के ख़िताब से जानी जातीं थीं। एक सरकारी आयोजन में जब उनको वायसराय की पत्नी लेडी वेलिंगटन से मिलवाया गया तो उन्होंने कहां था, "लेडी वजीर हसन आप को अंग्रेजी सीख लेनी चाहिये जिससे हम लोग अंगेजी में बात कर सके।” इस पर वो भड़क उठी थी और उन्होंने ठेठ पुरबिया में फ़रमाया था “हम काहे सीखें तोहरी भाषा, तुम्हो सीखों हमरी भाषा जो यहां राज करन आये हो।” 

इसी तरह एक बार वो लखनऊ से उन्नाव जा रही थीं जब एक अंग्रेज अधिकारी ने उनकी गाड़ी रोक ली और उसपर लगे कांग्रेस के झंडे को उतारने के लिये कहा। लेडी वजीर हसन का सीधा-सा जवाब था, “नहीं, कभी नहीं।” अफसर ने कहा कि अगर वो झंडे को नहीं हटाएंगी तो वो उन्हें आगे नहीं जाने देगा। वो वहीं बैठ गयी पर झंडा निकालने पर राज़ी नहीं हुयी। अंत में जिला अधिकारी ने आकर उनकी बात मानी और उन्हें आगे जाने दिया था।

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