अनकही-अनसुनीः लखनऊ के बारादरी की दिलचस्प दास्तान

  • Sonu
  • Saturday | 14th October, 2017
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संक्षेप:

  • क्या है `बारादरी` और इनकी कहानी
  • कैसे पड़ा बनारसी बाग नाम
  • यही हुई थी फिल्म उमराव जान के मुजरे की शूट

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः लखनऊ में रहने वालों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसके बचपन की यादे बनारसी बाग से न जुड़ी हुई हो। बहुत सारे लोग ऐसे भी होंगे जिन्होंने अपना पहला रोमांस हुक्कू बंदर के पिंजरे के पीछे लड़ाया होगा। साथ ही असंख्य परिवार ऐसे है जिनके लिये पिकनिक का मतलब है बनारसी बाग और उसमें बनी भव्य सफ़ेद बारादरी। बारादरी और बैंड स्टैंड फोटो खिचवाने के लिये पसंदीदा लोकेशन थी और आज भी है। मशहूर फिल्म उमराव जान अदा का चर्चित मुजरा इन आखों की मस्ती के दीवाने हज़ारों है बारादरी में ही शूट हुआ था। कहते है कि बारादरी की शान की दीवानी अदाकार रेखा इतनी हो गयी थी कि वो इसको लौट कर तसल्ली से देखने आई थी।

आजकल बनारसी बाग को नवाब वाजिद अली शाह प्राणी उद्यान कहा जाता है। इससे पहले यानी 1921 से इसका औपचारिक नाम द प्रिंस ऑफ़ वेल्स एडवर्ड जूलॉजिकल गार्डन था। पर तब और अब भी बनारसी बाग नाम ही सब की जुबान पर चढ़ा हुआ है। कारण सिर्फ इतना है कि यह प्राणी उद्यान लखनऊ के दूसरे नवाब नासिर उद दीन की बनाईं हुई बारादरी के चारों ओर बना हुआ है जिसे बनारसी बाग कहा जाता था।

लखनऊ में प्राणी उद्यान का विचार यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश का पुराना नाम) के तत्कालीन गवर्नर सर हारकोर्ट बटलर का था। 1921 में ब्रिटिश हुकूमत के राजकुमार हिज रॉयल हाइनेस प्रिंस ऑफ़ वेल्स भारत के दौरे पर थे। उनके लखनऊ आगमन को यादगार बनाने के लिये गवर्नर साहब ने उनकी उपाधि के नाम पर प्रिंस ऑफ़ वेल्स जूलॉजिकल गार्डन बनाने का फैसला लिया था।

गवर्नर साहब की पेशकश को ज़मीदारों, राजाओं और रसूक वाले लखनऊ वासियों का पूरा सहयोग मिला था। इन लोगों ने प्राणी उद्यान बनाने के लिये मन खोलकर धन दिया था। कुछ ने उद्यान में रखने के लिये अपने पक्षी और जानवर भी दान कर दिये थे। उद्यान के प्रबंधन के लिये एक समिति बनायीं गयी थी जिसके पहले अध्यक्ष लखनऊ के कमिश्नर कर्नल फंथोर्प थे और सचिव शेख मकबूल हुसैन थे। बाद में लखनऊ जूलॉजिकल गार्डन को सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत अगस्त 17, 1926, में रजिस्टर भी कराया गया था।

प्रिंस ऑफ़ वेल्स जूलॉजिकल गार्डन्स का डिजाईन और लेआउट लखनऊ इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के चीफ इंजिनियर लिंत्ल बोग्ला ने किया था। इसके निर्माण में दो लाख आठ हज़ार आठ सौ रुपए का खर्च आया था। निर्माण 1921 में शुरू हुआ था और 1926 में ख़त्म हुआ था। इसका मुख्य द्वार जो की नरही मोहल्ले की तरफ है 1936 में बना था और इसे सर लुडोविक पोर्टर गेट के नाम से जाना जाता था।      

बनारसी बाग का लुफ्त उठाने हर साल लगभग बारह लाख लोग टिकट खरीद कर आते है। यह लगभग 72 एकड़ में फैला हुआ है और भारत में यह चौथे नंबर का सबसे बड़ा प्राणी उद्यान है। इसमें 463 किस्म के जानवर है, 298 तरह की चिड़िया है और 72 तरह के सांप है। परन्तु यहां का हुक्कू बंदर (हूलोक्क गिबन) दशकों में सबसे प्रिय है। बच्चों के लिये यहां एक डेढ़ किलोमीटर लंबी टॉय ट्रेन भी थी जो नवंबर 14, 1969 को शुरू की गयी थी। यह रेलवे बोर्ड का उपहार था। चवालिस साल तक यह ट्रेन चली और अंतत नवंबर 21, 2013, को रिटायर हो गयी थी। राज्य संग्राहलय के सामने अब यह स्थाही रूप से खड़ी है। जिसकी जगह एक नई शताब्दी नुमा ट्रेन फरवरी 28, 2014 से चलनी शुरू हो गयी है। एक ब्रिटिश काल की हेरिटेज ट्रेन भी बनारसी बाग में उतारी गयी है जो 1924 में महाराजगंज में चलती थी।        

बनारसी बाग का एक और आकर्षण राज्य संग्रहालय है। यहां आने से पहले संग्रहालय छत्तर मंजिल और उसी के पास लाल बारादरी में होता था। 1963 में उसे यहां शिफ्ट किया गया था। शुरू में अवध की धरोहर को ही इसमें संग्रहित किया गया था पर धीरे-धीरे कलेक्शन में बहुत सारी ऐतिहासिक वस्तुए आ गयी जैसे की एक हज़ार साल पुरानी ममी, एक सुराही जिसपर औरंगज़ेब का नाम खुदा हुआ है, जहांगीर के नाम से जड़ी चमकली आदि।

बनारसी बाग में एक बैंड स्टैंड भी होता था जहां पर रोज़ शाम चार बजे पुलिस–आर्मी बैंड कार्यक्रम प्रस्तुत करता था। अब वो नहीं है पर बनारसी बाग में हुक्कू बंदर के नगमे आज भी बरक़रार है।

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