अनकही-अनसुनीः लखनऊ की शान हज़रतगंज की दास्तान

  • Sonu
  • Saturday | 3rd March, 2018
  • local
संक्षेप:

  • हज़रतगंज 200 साल पुराना है
  • कैसे बना ‘हज़रतगंज’ से ‘गंजिंग’
  • मुनवर बक्श के नाम से जना जता था हज़रतगंज

By: अश्विनी भटनागर

लखनऊः शायद लखनऊ ही एक ऐसा शहर है जहा संज्ञा, यानी नाम, एक क्रिया में तब्दील हो गयी है। नाम है हज़रतगंज और क्रिया है गंजिंग। अमूमन गंजिंग हज़रतगंज चौराहे से शुरू होती थी और हलवासिया मार्केट तक जाती थी। गर्मियों की शाम हो या फिर सर्दियों के दोपहर गंजिंग हमारे आपकी ज़िन्दगी का वो हिस्सा था जिससे लखनवी मिजाज़ दुरुस्त रहता था। हल्की चहल कदमी, दोस्त यारों से मुलाकाते, कॉफ़ी हाउस में राजनीतिक–साहित्यिक चुस्किया या फिर मेफेयर सिनेमा हॉल में रविवार को अंग्रेजी फिल्म का मॉर्निंग शो और उसके बाद क्वालिटी रेस्टोरेंट में कॉफ़ी के साथ पेस्ट्री ही गजिंग लाइफस्टाइल का ज़रूरी हिस्सा था। 1960 में जब लखनऊ में ज़बरदस्त बाढ़ आई और गंज में कमर तक का पानी भर गया था तब भी गंजिंग रुकी नहीं। गंज के दीवाने कश्तियों पर सवार हो कर हज़रतगंज पहुंचते थे।

हज़रतगंज 200 साल पुराना है। लखनऊ के पहले नवाब सआदत अली खान ने 1810 में इस इलाके को चिन्हित किया और फिर फ्रांसीसी जोखमी क्लाउड मार्टिन की राय पर यूरोपियन स्टाइल का नया बाज़ार बनाने की ठानी। शुरू-शुरू में इस इलाके को मुनव्वर बख्श कहा जाता था। 1842 में इसको बदल कर नवाब अमज़द अली शाह के नाम पर रख दिया गया। अमज़द अली “हज़रत” के नाम से मशहूर थे और मुनव्वर बख्श हज़रतगंज हो गया।

वैसे हज़रतगंज कोठी हयात बख्श से शुरू होता है और कोठी नूर बख्श तक जाता है। इन दो कोठियों के बीच की खुली चौड़ी सड़क और उस के आस पास का इलाका हज़रतगंज कहलाता है। कोठी हयात बख्श आज़ादी से पहले ही राजभवन में तब्दील हो गयी थी। इसका निर्माण नवाब सआदत अली खान ने 1798 में शुरू करवाया था और इसको फ़्रांसिसी क्लौड मार्टिन ने डिजाईन किया था। कोठी हिन्दुस्तानी और यूरोपियन वास्तुकला का पहला अद्भुत मिलाप है। सआदत अली खान या उनके वंशज इस कोठी में कभी नहीं रहे और इसके पूरा होते ही पहले  मार्टिन साहिब और फिर बाद में अंग्रेज अफसर इस पर काबिज़ रहे। आज की राज भवन कॉलोनी और मॉल ऐवनु, कोठी के अस्तबल के चरवाहे थे।

असल में गंजिंग यहां से ही शुरू होती थी क्योंकि कोठी हय्यात बक्श से लगा हुआ कैंट एरिया था जहां से निकलकर अंग्रेज मेमें और अफसर बाज़ार की तरफ बढ़ते थे। राजभवन के ठीक बगल में लखनऊ का जनरल पोस्ट ऑफिस (जीपीओ) की शानदार ईमारत है। बेगम कोठी, जोकि आज का जनपथ है, 1930 से पहले जीपीओ हुआ करता था। इससे पहले इस भव्य इमारत को रिंग थिएटर के नाम से जाना जाता था, जहां पर अंग्रेज बॉलरूम आयोजित किया करते थे और साथ में नाटकों का भी मंचन होता था। हिन्दुस्तानियों का प्रवेश इस थिएटर में वर्जित था।

हज़रतगंज खास है और अपने शुरुआत से लेकर आज तक उसने अपनी अलग शख्शियत कायम रखी है। राजभवन से चौराहा आते ही कस्मंदा हाउस है और ठीक सामने जहांगीराबाद मेन्शन, इसी मेन्शन में पिछले 50 सालों से इंडिया कॉफ़ी हाउस है जिसकी गंजिंग में खास अहमियत है। शायद ही कोई ऐसा बड़ा राजनेता, विचारक,लेखक या पत्रकार होगा जिसने कॉफ़ी हाउस में बैठकी ना की हो। लखनऊ का मिजाज़ नापने के लिये लोग आज भी यहीं आते हैं। वैसे कॉफ़ी हाउस की शुरुआत 1938 आज के गांधी भवन से हुई थी, जो फिल्मस्थान सिनेमा (आज का साहू थिएटर) से लगा हुआ था। गांधी आश्रम में तब सिर्फ कॉफ़ी हाउस ही नहीं था बल्कि यहां पर डांस फ्लोर भी था और बार भी। 

शुरुआत में हजरतगंज की पहचान उसकी कोठियों से थी। नवाब सआदत अली खान ने कोठी हयात बख्श (राजभवन) के लगभग साथ ही हज़रतगंज के दुसरे सिरे पर कोठी नूर बख्श (आज का जिलाधिकारी निवास) बनवाई थी। कहते हैं उन्होंने अपने पोते की शिक्षा इसी कोठी में करवाने के लिये इसे बनाया था। 1827 में कोठी नूर बख्श से लगा हुआ उन्होंने एक बाज़ार भी बनवाया जिसमें चीन, जापान और बेल्जियम का समान बेचा जाता था। इसको चाइना बाज़ार कहा जाता था। आज वो बाज़ार तो नहीं है पर चाइना गेट ज़रूर सुरक्षित है। यूपी प्रेस क्लब इसी में है।

Related Articles