इलाहाबाद: कल आज और... परम्पराओं में जीने वाला `कीडगंज मुहल्ला`

संक्षेप:

"कीडगंज"  की पहचान में जुड़ी है, तीर्थराज प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों की पारम्परिक जीवन शैली। आज भी उसी शैली, शौक, शान से जीना ही नहीं चाहता बल्कि तमाम विसंगतियों से जूझता अपने `पण्डा` होने के गर्व को दुहराता यथावत आगे बढ़ रहा है। परिस्थितियों के चलते आज यहां के बाशिंदों को बहुत सम्पन्न नहीं माना जा सकता। दरअसल पीढ़ियों की आरामतलब जिंदगी ने सबकुछ गंगा मइया की कृपा पर सिमटा दिया है।

- वीरेन्द्र मिश्र

वैदिक शहर इलाहाबाद और इलाहाबाद का "कीडगंज"। पुरातन परम्परावादी, सामाजिकता, आत्म-सम्मान, कला-कौशल। पाक विद्या में निपुणता और मौज-मस्ती अलममस्त जीवन जीने की विहवलता वाला मुहल्ला है।

संगम किनारे इलाहाबाद में सम्राट अकबर के बनाये किले से पहले पश्चिम दिशा में यमुना नदी के किनारे बसा है, यह मुहल्ला कीडगंज। हालांकि यह वैदिक काल से तीर्थ पुरोहितों गंगा पुत्रों की बस्ती रही। अंग्रेजी हुकूमत ने इसे नया नाम देकर बसाया।

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`कीडगंज`  की पहचान में जुड़ी है, तीर्थराज प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों की पारम्परिक जीवन शैली। आज भी उसी शैली, शौक, शान से जीना ही नहीं चाहता बल्कि तमाम विसंगतियों से जूझता अपने `पण्डा` होने के गर्व को दुहराता यथावत आगे बढ़ रहा है। परिस्थितियों के चलते आज यहां के बाशिंदों को बहुत सम्पन्न नहीं माना जा सकता। दरअसल पीढ़ियों की आरामतलब जिंदगी ने सबकुछ गंगा मइया की कृपा पर सिमटा दिया है।

गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम तट पर लगने वाले महाकुम्भ मेलों की पहचान तो परम्परा के पहले से दान पुण्य लाभ कमाने की और राजा-महाराजाओं की इच्छाओं की शोहरत से जुड़ा रहा है। कई मायनों में राजसी समरसता ने इनके जीवन के मायने ही बदले हैं।

चीनी यात्री ह्वेन सांग सन् 644 में जब प्रयाग आया तो उसने संगम स्नान को उमड़ी भीड़। तीर्थ पुरोहितों की पहचान और राजा-महाराजा के सर्वस्व-दान करने की प्रक्रिया का वर्णन किया। तब कन्नौज के राजा हर्ष के साथ हाथी पर सवारी करके वह चीनी यात्री ह्वेन सांग यहां पहुंचा था और महाराजा हर्ष द्वारा सर्वस्व-दान करने की प्रक्रिया जो देखी, उसे वयक्त किया था।

समय गतिमान रहा।

सन् 748 में आदि शंकराचार्य जब यहां पधारे और कुमारिल भट्ट से उनका साक्षात्कार हुआ, तो उसके बाद ही शंकराचार्य जी ने `महाकुम्भ` के पावन अवसर को मेले का स्वरूप दिया। इसके साथ ही संगम तट वासियों की दुनिया भी बदल गयी। मान्यताएं बदलीं। सम्भावनाएं बढ़ीं। भावनात्मक जुड़ाव ने यजमानों की संख्या बढ़ाई और यहां इस बस्ती वासियों की कहानी भी बदलती गयी। पुरातन बस्तियां जो खपरैल की थीं। उनमें लखौड़ी ईंटों। कच्चे ईंटों की दीवारों से घर बनना आरम्भ हो गये।

16वीं शताब्दी में सम्राट अकबर ने यहां किला बनवाने का निर्णय लिया और इस शहर ने तभी गंगा-जमुनी तहजीब को जन्म दे दिया। आइने-ए-अकबरी में भी यह लिखा है।

यमुना किनारे विशाल प्रतिष्ठित मनकामेश्वर मंदिर पुरातन पीपल वृक्ष के नीचे स्थापित है। जहां से सूर्य की पहली किरण संगम (त्रिवेणी) से गुजरते हुए शिवलिंग पर आज भी अनुभूति में जोड़ी जा सकती है।

इसके करीब ही तीर्थ पुरोहितों, गोताखोरों, मल्लाहों और सांस्कृतिक जीवन वैभव का पान करने वालों की बस्ती जो पहले थी। आज `कीडगंज` के नाम से जानी जाती है।

यमुना का किनारा निंबहरा बांध और सरस्वती घाट-ककरहा घाट, गऊ घाट तक का विशाल क्षेत्र और उसकी गोद में बसी यह बस्ती ईस्ट इंडिया कम्पनी के हुक्मरानों को प्राय: चुभती थी। 1958 में महारानी विक्टोरिया जब लॉर्ड कैनिंग के साथ यहां के मिण्टो पार्क पहुंची, तो यहां के बाशिंदों की जिंदगी को उन्होंने भी देखा था।

लम्बे अन्तराल के बाद जब अकबर के किले के भी भीतर `जनरल कीड` ने अपनी सेना के जवानों से अलग इस बस्ती को सुव्यवस्थित तरीके से बसाकर उसे नाम भी दे दिया `कीड`।

इस की़डगंज की सभ्यता संस्कृति त्रेता युग से जुड़ी है। यहां के `तीर्थ पुरोहित` युगों-युगों पुरानी पहचान को आज भी संजोए हैं। हर पण्डा परिवार का अपना अलग झंडा और प्रतीक चिन्ह है और उनके नाम में `गुरु` की संहिता भी जुड़ी मिलेगी। समय ने उसमें बदलाव को कोसों दूर कर रखा है। जबकि परिस्थितियां अब नया आयाम दे रही हैं।

कहते हैं जब सूर्यवंशी राजा दशरथ का अवसान हुआ, तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने यहीं श्रीराम घाट पर अपने पिता का तर्पण, श्राद्ध किया था। यहीं नहीं राजा रावण के वध के बाद `ब्राह्मण हत्या` से मुक्ति का श्राद्ध भी उन्होंने यहीं किया था और इसे उनके कुल पुरोहित ने पूरा करवाया था।

उस महान सूर्यवंशी कुल पुरोहित। तीर्थ पुरोहित `मिश्र परिवार` आज भी यहां के निवासी हैं। उनकी परम्परा उनके वंशजों द्वारा पूरी की जाती रही है।

`पिपरा बट्टूपुर` वाले तीर्थ पुरोहित लक्ष्मण प्रसाद मिश्र की पहचान। झण्डा प्रतीक है `चांद का कटोरा, सोने का नारियल` वाला झण्डा।

यह परिवार वर्ष 1989 के कुम्भ तक अपने पास `सूर्यवंशी कुटुम्ब` दस्तावेज सहेज कर दिखाता रहा है। कीडगंज नई बस्ती में इस परिवार की रिहाइश है और `प्रयाग वाल सभा` के लक्ष्मण प्रसाद मिश्र अध्यक्ष भी रहे थे।

कीडगंज में तरह-तरह के पण्डे हैं, जिनके रंग-बिरंगे झण्डे हैं- आलीशान, मान सम्मान के पोषक इन झण्डों को संगम किनारे बड़े हनुमान मंदिर के करीब लहराते हुए देखा। पहचाना और जाना जा सकता है।

कीडगंज आरम्भ में पण्डों की बस्ती के नाम से जाना जाता था। समय के साथ अंग्रेज़ों ने जब इस मुहल्ले का नामकरण `जनरल कीड` के नाम पर `कीडगंज` कर दिया, तो यहीं इनकी विरासत में तब्दील हो गया।

इस मुहल्ले में जगह-जगह धर्मशालायें, यजमानों के ठहरने के लिए घर खान-पान की व्यवस्था ये स्वयं करते रहे हैं। बदले में दान लेना, पुण्य लाभ देना इनकी विरासत है, तभी `शान-शौकत` भी यहां खुब खुलकर बोलती रही है।

गुल्ली डंडा, चौपड़, ताश खेलना, कबूतरबाज़ी, बुलबुल, लाल मनिया चिड़िया पालना। तीतर बटेर पालना, पतंगबाजी इनका मुख्य शौक है। कमोबेश यही उनके जीवन से भी जुड़ा है। भांग-ठंडई पीना, रबड़ी-मलाई खाना जिसमें इनकी अपनी पहचान भी बोलती है। परन्तु शिक्षा का अभाव है। पुरातनपंथी बने रहना आखिर कब तक? समय के साथ चेतना होगा।

और तो और देश में शायद संगम तट का कीडगंज मोहल्ला ही ऐसा है जहां की परम्परा में इक्का, तांगा चलाना भी शौक से जुड़ा रहा। टट्टू हांकना भी इसकी रोचक पहचान में रहा, जो `निंबहरा रोड` अथवा त्रिवेणी बांध पर सावन के महीने में खुल कर देखा जा सकता है।

कीडगंज मुहल्ले में अपनी शान-शौकत की पहचान वाले एक थे महाबीर पण्डा। जिनका घोड़ा-घास चना के साथ रबड़ी-मलाई चाटता नहीं भरपेट खाता था। फिर `दर्जनों पान चबाता` था और उसके बाद घुड़ दौड़ का शौक वही घोड़ा पूरा करवाता था। लाल-लाल मुंह में पान का रंग दिखाता। हिनहिनाता दौड़ता तो लोग दातों तले उंगली दबाते।

कुछ पण्डा उनकी नकल करते हुए अपने घोड़ों को `ठंडाई` भी पिलाते थे।

महाबीर पाण्डा की आलीशान पहचान बताता परिवार आज भी है परम्परा में। घोड़ा भी है। वास्तव में इस परिवार में `अश्व सेवा` को श्रेष्ठ माना जाता रहा है। जो उनकी धन-सम्पदा को बढ़ाने वाला `शगुन` था। उनकी कल्पनायें फलीभूत होती रही हैं। इनकी अपनी बड़ी धर्मशाला भी रही है। हमने भी पान चबाते, मलाई खाते, घोड़े की शूटिंग कभी की थी। महाबीर पण्डा का अपना राधाकृष्ण झंडा निशान है।

ऐसे ही उनके ही कुटुम्बी माधोलाल पण्डा भी रहे हैं, जिन्हें आम जनमानस में सेवा, भावना, भोजन करवाने में संतुष्टि मिलती थी। उनके महल रूपी घर में सावन के महीने में `झूले सजते` थे। दर्शनार्थियों की भीड़ टूट पड़ती थी। इन बाशिंदों की पुरातन पहचान रही है। पर अब ऐसा समय ने विवशता में बदल दिया है। 

`बुढ़िया दाई` वाले पण्डा `लाल कटार` का उनका झंडा है उनकी पहचान में तीर्थ पुरोहितों में लगभग 300 साल पुराना उनका घर आज भी है। हालांकि जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच चुका है। पं. गायत्री प्रसाद शर्मा लाल कटार वाले झंडा की पहचान यहां के श्रेष्ठ पढ़े-लिखे सम्पन्न पण्डों में रही है। रीवा रियासत हो अथवा बघेल खण्डी राजाओं के पण्डा के रूप में उन्हें जाना जाता रहा।

राजस्थान से भी यहां पहुंचकर गंगा स्नान और दान कर पुण्य कमाते लोग आते रहते हैं। उनकी परम्परा में श्याम सुन्दर शर्मा तीर्थ पुरोहित में आज भी शुमार करते हैं। बण्टू गुरु अथवा बण्टू प्रयागी के नाम से पहचान जुड़ी है और वर्ष 1988 से अब तक निरन्तर कुम्भ की फिल्मों के निर्माण में जुड़े रहे हैं।

शंकर सुहेल ने जब फिल्म `अमृत कुम्भ` बनाई, तो बण्टू प्रयागी को ह्वेन सांग की भूमिका दी और उनके पिता लाल कटार वाले गायत्री प्रसाद को महाराजा हर्ष के तीर्थ पुरोहित की भूमिका अभिनीत कराई थी। अब उनकी पीढ़ी `हाईटेक` होकर गंगा स्नान करवाती है। असीम भारद्वाज अस्थि विसर्जन श्राद्ध कर्म सम्पन्न कराते हैं।

कीडगंज में आज भी लखौड़ी छोटे-छोटे और बड़े-बड़े ईटों वाले मकान हैं। बड़ी-बड़ी चौकियां पुराना पंखा, हाथ से झलने वाला और पांव से चलने वाला पंखा भी मिल सकता है। शादी ब्याह में `डोली` कहार भी यहां आम थे।

इस मुहल्ले में अजैन हाथी वाले निशान के झण्डा वाले पण्डा की भी पहचान है- कन्हैयालाल शर्मा की। श्रेष्ठता की सूची में हैं। और पं. टी.एन. शर्मा सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ इनके पुरखे थे। उन्हीं के शिष्यों में बनारस के तबला वादक गुदई महाराज भी हुए हैं। अब उनकी नई पीढ़ी गीत संगीत के क्षेत्र में गायक के रूप में बन्नू पण्डा उर्फ बनवारी लाल ने नई पहचान बनाई है।

सालिक राम-बालक राम पण्डा, गुजरात के पण्डा हैं। राष्ट्रपिता `महात्मा गांधी` के तीर्थ पुरोहित रहे हैं। उनके वंशजों से आज भी जुड़े रहे हैं। कश्मीरी जनों के पण्डा भी यहां हैं। माधोराज वैद जिनका भगवा झण्डा निशान है। आज अखिल भारतीय तीर्थ पुरोहित। पण्डों के अध्यक्ष नारायण प्रसाद शर्मा हैं, जिनका `श्री श्री दुर्गा` झण्डा निशान है और बिहार प्रान्त के पुरोहित के रूप में जाने जाते हैं। नई पहल में मातादीन के गजक और पेठा अब यहां भी मिलने लगे हैं। घण्टावाली मिठाई के दुकान भी है।

उड़ीसा प्रान्त और वहां के राजाओं के पण्डा के रूप में पहचान है `नैमिष बाबू` पण्डा जिनका झण्डा हाथी के निशान वाला संगम तट पर लहराता मिलता है। ऐसी ही तुमड़ी, झबिया, चटपटी, लाल कटार-तीन कटार की पहचान वाले झण्डे भी मिलते हैं।

छत्तीसगढ़ के निवासियों के पण्डा राधाकृष्ण के झण्डा वाले हैं। उनकी महाबीर धर्मशाला भी है। पंचायती अखाड़ा और निर्मल अखाड़ा मुख्य धाम यहीं है। 

क्रिकेट के खिलाड़ी के रूप में यहां चन्द्रनाथ काला, रघुबीर काला परिवार है। काला परिवार की नई पीढ़ी क्रिकेट खिलाड़ियों में युवा राष्ट्रीय क्रिकेटर के रूप में पहचान बना रही है।

कीडगंज मुहल्ले की अपनी पहचान और अपनी दास्तान है, यहीं बड़े दारा मियां जी की मजार है, जहां दुनिया भर के जायरीन (भक्तों का मेला) जुटते हैं।

शायद आपको यह नहीं मालूम होगा कि मुहम्मद कैफ, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी यहां इसी मुहल्ले में पले और बड़े हुए हैं। उनका बचपन यहां की गलियों में ही गुजरा है। बताते हैं जब राज कपूर ने `संगम` फिल्म बनाई, तो वैयजन्ती माला के साथ यहां इस मुहल्ले की धर्मशालायें देखी थीं। यहां की शान शौकत देखने गये थे। अधिकांश शूटिंग यहां तब हुई थी, संगम किनारे। सरस्वती घाट पर एक पुरानी कोठी थी उसमें फिल्म `महल` की शूटिंग की गयी थी। आज वह खत्म हो चुकी है।

गुरुदत्त के भाई देवीदत्त ने अटनब्रो की फिल्म `गांधी` का अन्तिम दृश्य का फिल्मांकन यहीं किया था। गोविंद निहलानी (तब कैमरामैन थे) ने हेलीकॉप्टर से संगम की शूटिंग सम्पन्न की थी और शिवरात्रि के दिन यहां के सरस्वती घाट के पास ही रुके और तीर्थ पुरोहितों के सहयोग से पूरी टीम ने निंबहरा रोड पर सामूहिक भोजन में भी पूरा क्रू शामिल हुआ था।

समय ने यहां बहुत कुछ बदला दिया है। अब तीर्थ पुरोहितों को भी अपनी जीवन पद्धति में बदलाव लाना होगा।

कभी कलकत्ता से `जलमेल` पानी का जहाज 14-15 दिनों में यहां पहुंचता था। उसके निशान बाकी हैं। बहुत जल्दी ही अब कलकत्ता तक स्टीमर से माला यात्रा सम्भव होने की तैयारी है। देखिए क्या होता है।

कीडगंज मुहल्ला की पहचान यहां के यमुना तट से जुड़ी है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल डॉ. केशरी नाथ त्रिपाठी ने सरस्वती घाट पर जीर्णोद्धार करवाया है और यहीं उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने भी पर्यटकों को नई पहचान से जोड़ा है। जब मोटर बोट और स्टीमर की सवारी की जा सकती है और संगम स्नान सुलभ हो गया है।

असली संगम देखिये `हाईटेक` होकर यमुना के गरम और गंगा के शीतल जल की अनुभूति लीजिए।

(अनकही-अनसुनी के अगले अंक में आप पढ़ेंगे- "मैग्नाकार्टा से महामना" तक की कहानी)

 

 

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