करवट लेता अलसाया शहर इलाहाबाद कल, आज और...

संक्षेप:

अलसाया शहर इलाहाबाद बदल गया है। आज करवट ले रहा है। सदियां बीत गयीं, परन्तु इसकी पहचान जो प्राचीन थी अब अर्वाचीन हो रही है। करवट लेता अलसाया शहर इलाहाबाद में तो शिक्षा के मायने ही बदल गये है। मोह भंग की खेपों ने पलायन को पर लगा दिये हैं।

By- वीरेन्द्र मिश्र

अलसाया शहर इलाहाबाद बदल गया है। आज करवट ले रहा है।

सदियां बीत गयीं परन्तु इसकी पहचान जो प्राचीन थी, अब अर्वाचीन हो रही है। करवट लेते अलसाए शहर इलाहाबाद में तो शिक्षा के मायने ही बदल गये हैं। मोह भंग की खेपों ने पलायन को पर लगा दिये हैं।

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सिविल लाइन्स में विशाल पत्थर गिरजाघर फ्रान्स के वास्तुशिल्प का बखान करता अभी भी खड़ा है। सिविल लाइन्स बस अड्डा ज़रुर सुधर गया है। अगल-बगल सजी दुकानों ने उसका श्रृंगार कर दिया है।

अपने युग के मशहूर शायर जनाब रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने आठवे दशक में इसी इलाहाबाद की सिविल लाइन्स क्षेत्र के `गवर्नमेण्ट प्रेस’ के विशाल मैदान में आयोजित `विश्व-मुशायरा’ में वर्ष 1978 में कहा था, `आने वाली नस्लें फक्र करेंगी, हम असरो। उनको जब ध्यान आयेगा तुमने फिराक को देखा है।’

सच, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक रहे उस दमदार शायर की घूरती निगाहें और सिगरेट के धुएं के छल्लों के बीच जब वह शेर पढ़ते, तो आवाज गूंजती ही नहीं बेजान रुहों में भी जान भर देती थीं।

उस मुशायरे में साहिर लुधियानवी और अली सरदार जाफरी भी शिरकत कर रहे थे। कैफी आजमी ने अपने गांव की पगडंडी की याद दोहराई थी, तो युसुफ खान यानी फिल्मों के ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार ने भी कुछ नज़्में पढ़ी थीं।

तब इलाहाबाद शहर जाना जाता था, डॉ. महादेवी वर्मा के शहर के रुप में। फिराक का शहर, बच्चन का शहर। सुमित्रा नन्दन पन्त और सूर्यकान्त त्रिपाठी `निराला’ के शहर के नाम से। साहित्य और सृजनशीलता ही उसकी पहचान से जुड़ी थी।

उस काल में धर्मवीर भारती, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. हरिवंश राय बच्चन, इलाचन्द जोशी, उपेन्द्र नाथ अश्क, बी.डी.एन. साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भैरव प्रसाद गुप्त, शमशेर बहादुर सिंह, कमलेश्वर, नरेश मेहता जैसी महान साहित्यिक विभूतियों की पहचान से भी ये शहर जुड़ा था। हमदर्द वाले बड़े मियाँ जी की भूली बिसरी यादें हैं। सिविल लाइन्स के कॉफी हाउस में बैठकी का कहना ही क्या?

`धूप-छांव’ में पहुँचिये तो अमृत राय का गौरवर्ण और मुस्कुराता चेहरा कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की याद को भी तरोताज़ा कर देते थे। अब पौत्र डॉ. आलोक राय हैं। तो `साकेत’ में एकांकी सम्राट डॉ. राम कुमार वर्मा की `पृथ्वी राज की आँखे’ अभिनीत करा देती थी। राजलक्ष्मी वर्मा का संस्कृत ज्ञान भी तब वहां गूँजता था।

पूरा शहर नाट्य समारोह के संवादो में `प्याज के छिलकों की तरह अलग-थलग होकर भी रसमय था। पर अब कुछ नहीं है।

साहित्य की गोष्ठियों की तो यहां शाम हो चली है। प्रयाग संगीत समिति के संगीत सम्मेलनों का उत्सव उत्तर मध्य सांस्कृतिक केन्द्र में सिमट गये हैं।

ए.जी. ऑफिस में उमाकान्त मालवीय के ठहाकों की गूंज भी जाने कहां खो गयी हैं। हां! राम औतार शर्मा ने `वैद्यनाथ-आयुर्वेद शाला’ की जो पौध रोपी थी, वह आज पतन्जलि को मात दे रही है। उनकी पीढ़ी `हाईटेक’ होकर नयी पायदान पर चढ़ चुकी है। हालांकि `जीप टार्च’ की रोशनी जुदा हो चुकी है।

एक अद्भुत वाकया याद आ रहा है उन दिनों मैं इलाहाबाद आकाशवाणी से जुड़ा था। तब केशव चन्द्र वर्मा जैसे प्रोड्यूसर और राजा जुत्शी जैसे यायावरी जुझारु प्रस्तोता और कैलाश गौतम जैसे कवि की नई पहल और सक्रियता पूरे शहर में पहचान बनाये थी। उसी काल में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का शताब्दी समारोह अपनी भव्यता से मनाया जा रहा था।

उस समारोह में तब बेरुत से चलकर भारत वापस पहुंचे जनाब फैज़ अहमद फैज़ भी आये थे। उन्होंने तब बातचीत में आजादी की लड़ाई की अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहा था, `कि खूने जिगर में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने।’ और परिदृश्य देखिये।

विराट वट वृक्ष, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पहचान सीनेट हाल के सामने सीना ताने था। वह आज भी खड़ा है। तमाम अनुभवों को समेटे आजादी के पहले की दास्तान को आज भी सुनाता जान पड़ रहा है। और युवा शक्ति का तो परचम लहरा रहा है।

उसी काल में तब वहां मंच पर बिराजमान हुए थे जनाब रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, डॉ. महादेवी वर्मा, फैज़ अहमद फैज़ और उपेन्द्र नाथ अश्क।

चार महानविभूतियों का युग उस मंच को चार धाम की सी पहचान बता रहा था।

डॉ. महादेवी की कविता के अद्भुत बोल फूटे थे, तो `फिराक’ साहब की `शेर’ के साथ घूरती निगाहों की चमक के बीच विश्वविद्यालय का युवा, इतिहास के पन्ने सहेज रहा था। तब वहीं फैज़ अहमद फैज़ ने कहा था, ये धरती कितनी पवित्र है कि मेरी गाड़ी जब गंगा पुल से गुज़र रही थी, मेरा हाथ मेरी जेब में चला गया और जो पैसे हाथ लगे, मैंने गंगा में प्रवाहित कर दिये।

त्रिवेणी की ये धरती आज कितनी खुश है कि स्मृतियों के कोटर से न जाने किन-किन बाशिन्दों को फिर से गले मिला रही थी। कैसा अद्भुत परिदृश्य था।

आज वही गंगा, बेदम बेबस हजार आंसू बहा रही है। सिविल लाइन्स हनुमान मन्दिर से बेनी बांध तक की पिपरहिया रोड से पीपल के पत्तों की सरसराहट भी गुम सी हो रही हैं।

समय गतिमान रहता है।

परन्तु समय काल अपना मौन निमंत्रण दे रहा है।

लौट के आ। लौट के आ!!

ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...

अतीत में झांकिये। जनाब फिराक साहब, जब भी बाहर से आकर अपने शहर की आबो हवा में पहुंचते तो यही आवाज निकलती सब कुछ बदल गया। ससुरा इलाहाबाद नही बदला।

वक्त कभी ठहरता नहीं।

आज कई दशक बीत चुके हैं न साहित्यकारों की शैलियां है अब वहां। और न ठिठोलियां हैं। और न ही हसरतें। वास्तव में पीढिय़ां ही बदल गईं हैं। अतीत के पन्नों में सब कुछ दर्ज हो चुका है। समय और काल के गाल में सब कुछ बिसर चुका है।

`कॉफी हाउस’ की चहलकदमी तो जाने कहां खो गई है। बी.डी.एन. साही के ठहाकों के गूंज की यादें भी अब गुम हो चुकी हैं।

सडक़ों के किनारे के ठेलों पर सजी दूकानें भी बदल गई हैं, अंकुरित अनाज चाट-पकौड़ी अभी भी मिल रहा है। जान पड़ता है यहां की सडक़ों का बंटवारा हो गया है। दुकानों की सजधज अब छोटे-छोटे `मॉल’ में बदल गई है।

न शांति की वो कुल्फी रही, न पैलेस सिनेमा रहा। न प्लाजा का पता है। भवन गवाही दे रहे हैं। चुन्नी लाल के छोले-भटूरे तो गुम ही हो गये है। और तो और मरकरी वाले लल्लू जी का गेलार्ड (थ्री कार्ड) भी अब नहीं रहा, तन्दूर हो चुका है। जहां से रीना राय जैसी अभिनेत्री ने कभी अपनी उड़ान भरी थी और फिल्म जगत में पैठ बनाई थी। `किंग कम्पनी’ का कोना तो ज़रुर ठिठका खड़ा है। गेलार्ड खतम हो गया। बार्नेट ने `हर्ष’ नामक नई पहचान बना ली है। सच अब अड्डे भी तो यहां खतम हो गये हैं।

अब वो सिविल लाइन्स न तो फिरोज गांधी के पुरखों का रहा और न ही उनके वंशजों का और तो और उत्तरी ध्रुव तक पहुँच बनाने वाले वैज्ञानिक कासिम अली की तो अब यहां यादें ही शेष बची है।

लगभग 40 बरस बाद तो आज इलाहाबाद किस तरह से हाईटेक होकर सजधज गया है। आप पहुँचकर देखिये तो सही। यहाँ का सिविल लाइन्स कुछ ऐसा हो गया है कि `लकदक’ जगमग-जगमग हो रहा है। क्या नहीं बदला है आज यहाँ। अब तो ये शहर जगर-मगर करता `हाईटेक’ नया इलाहाबाद हो गया है, नई पीढ़ियों का।

21वीं सदी का इलाहाबाद है। यहां इलाहाबादियों का मिजाज भले ही अभी नहीं बदला हो किन्तु नई पहल से अब ससुरा इलाहाबाद जरुर बदल गया है।

(अगले सप्ताह हम पढ़ेगें वैदिक सिटी-हाईटेक सिटी इलाहाबाद कुम्भ नगरी। क्या नहीं रहा है इलाहाबाद की सोंधी मिट्टी में जहां अध्यात्म और विज्ञान के बीच सल्तनत ने कैसे पांव पसारे? सल्तनतों की कहानी और और आज की जुबानी)

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