इलाहाबाद कल आज और....'होली मा बुढ़ऊ देवर लागे' घर-घर और चौराहे की होली...

  • Hasnain
  • Monday | 26th February, 2018
  • local
संक्षेप:

  • अवध की होली का है अपना ही रंग
  • ब्रज की होली का नहीं कोई सानी
  • अजन्ता पार्क होता था `महालंठ सम्मेलन` के लिए मशहूर

--वीरेन्द्र मिश्र

होली है! बुरा न मानो होली है!!

होली खेलत रघुबीरा अवध मा, होली खेलत रघुबीरा... जी हां! अवध की होली का अपना ही रंग है, ठाठ है। मौज-मस्ती है। पकवानों, रंगों और अबीर-गुलाल की धूम का तो कहना ही क्या? चारों ओर रंग-भंग, ठंडाई और `गुझिया`  पेड़किया के साथ बेसन के पापड़, आलू का दमालू, घर के बने समोसे, मुगौरा और बड़ा का कोई जवाब नहीं। पूरा घर-परिवार एक साथ होली मनाने की धूम में शामिल होकर उल्लास-उत्सव मनाता ही नहीं मनुहार, दुलार, प्यार और मस्ती का इजहार भी करता है।

कहीं भी जाइये बसन्त पंचमी से लेकर होली तक फगुनाहट की जो बयार बहती है, उसका अनुभव अवधवासियों को, जो अपनी संस्कृति को भूले-बिसरे नहीं है, उनको तो अवश्य ही होता होगा।

गंगा-यमुना, त्रिवेणी, गोमती, ताप्ती, तमसा मन्दाकिनी का किनारा हों। इंदारा (कुंआ), पोखर, तालाब, झील सभी के किनारे, कहीं भी जाइये फागुन के गीत गूंजते है। ढोलक-मंजीरा, झांझ, करताल की थाप ताल पर झूम-झूमकर नाचने-गाने और थिरकने में पूरी तरुणाई छाई रहती है। गांव-गांव जवानी का जोश भी इस तरह फूटता है कि उसका तोड़ कही अन्य नहीं दिखता।

`होली मा बुढ़ऊ देवर लागे` यानी रंगों की होली और ठिठोली ऐसी कि जान पड़ता है कि `होली रे रसिया बरजोरी रे रसिया` क्या राजा, क्या रंक! मसलन अमीर-गरीब सभी का मिल-जुलकर सामूहिक उल्लास मनाने का अपना त्यौहार, होली ऐसा पावन पर्व बनकर आता है कि घर-आंगन चौपाल का भाव ही बदल जाता है। फगुनाहट का राग सर्वत्र गूंजता है, गुलाल घुमड़ता है और होली तापने का सुख भी मिलता है। धूं-धूंकर जलती होली में चने का हो रहा, गेहूं की बाली भूनने और कण्डा, लकड़ी डालकर आग की लौ बढ़ा का सुख तो उसी से पूछो, जो पूजा करता जल डालकर उसकी परिक्रमा करता है। यह सब इलाहाबाद में हर गली कूचे में दिखता है।

हालांकि ब्रज की होली का कोई सानी नहीं है, किन्तु वहां की लट्ठमार होली से अलग यहां `धोबिया पछाड़` होली या फिर कपड़ा फाड़ होली भी होती है। सबकी शान-बान-आन और मेहमानों पर मेहरबान मौसम सतरंगा बनकर आता ही नहीं फुहार की शक्ल में बरसता भी है।

अवध क्षेत्र लखनऊ, अयोध्या, बनारस, मिर्जापुर, इलाहाबाद (प्रयाग), कानपुर प्रतापगढ़ पूरा क्षेत्र ही अवध के रामल्ला की होली की रंगत में डूब जाता है। इलाहाबाद में दो दिन होली मनाई जाती है। दूसरा दिन तो कई बार नई कहानी भी लिख देता है। कहीं उठाकर पानी में मित्रता को भिगोया जाता है, तो कपड़ा फाड़ होली तो आज भी प्राय: ही दिखती है।

वैसे कुछ कहावतों पर भी गौर करें तो पता चलता है - सुबह-ए-बनारस, शाम-ए-अवध और इलाहाबाद की दोपहरी। मिर्जापुर की कजरी, तो कर्वी चित्रकूट बांदा की फगुनाहट की बयार में होली का रंग फूट-फूट कर बोलता है। टेसू (किन्शुक यानी `ढाक`) के फूल खिले, आमों के बौर के बौर से बहती खुशबू उस पर मधुमक्खी का भन-भनाकर नाचना लुभाता है और महुवा के फूलों की मादक गन्ध से पूरा क्षेत्र ही सुवासित हो जाता है।

आज हम बात करेंगे। इलाहाबाद के हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई के बीच खेले जाने वाली होली और होली मिलन समारोहों के बीच महालंठ सम्मेलनों की भी, जहां कवित्त, व्यंग्य, हास-परिहास की ऐसी बौछार कि जियरा चिहुंक-चिहुंक जाये। और तो और `होली मा बुढ़ऊ देवर लागे` जैसी कहावत भी बार-बार खुल-खुलकर बोलती है। मसलन क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या बच्चे सभी रंग के रंग में डूबे कुंआ, तालाब नदी किनारे रंगों को धोते-धोते थक जाते है, उनके चेहरे का रंग भी बदलता रहता है, परन्तु रंग है कि महीनों तक भी चढ़ा ही रहता है। यही नहीं ऐसे में मोबाइल बेचारा भी ठंड और गीलेपन से `हैंग` कर जाता है। आज का हाईटेक ज्ञान लोगों चिढ़ाता है, किन्तु होली पहले यहां वर्चुअल नहीं, ढोल मंजीरे के साथ तन-मन को भिगोने का पर्याय होती रही है।

`अनकही-अनसुनी` तो यहां के चारों छोर पर रंग-तरंग के साथ बोलती है। नेताओं की दुनिया, होली खेलने के लिए घर-घर, मुहल्ला-मुहल्ला, टोला-टोला सभी भ्रमण करते रहे हैं। सभी की चाहत होती थी, सबसे मिलने की गले लगने की। बस! होली मिलन यहां की पहचान बन गयी।

बात उन दिनों की है, जब हेमवती नन्दन बहुगुणा शहर दक्षिणी क्षेत्र के चहेते और राजेन्द्री कुमारी वाजपेई शहर उत्तरी क्षेत्र, चौधरी नौनिहाल सिंह चांदी से जड़ाऊ छड़ी के साथ मुंह में पान की गिलौरी दबाते चलते। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की पहचान होली के दिन बदल जाती, सभी अपने शहर इलाहाबाद ही नहीं पहुंचते, बल्कि अपने क्षेत्र की जनता के बीच पहुंंचकर रंगों की धूम में शामिल हो जाते। केशरी नाथ त्रिपाठी, मोहित्सम गंज की गलियों में घूम-घूम कर धूम मचाते, तो चौधरी साहब अहियापुर खुशहाल पर्वत चौक, कल्याणी देवी क्षेत्र में जब तक घर-घर न पहुंच जाते, कटघर तक पहुंचकर लोगों से गले न मिल जाते न उन्हें चैन मिलता और न ही जनता को। सभी एक-दूसरे के पूरक बन जाते। बताते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी भी होली के अवसर पर आम-जनमानस से खुलकर मिलते थे।

यही आलम राजेन्द्र कुमार वाजपेई (पूर्व गवर्नर - केन्द्रीय मंत्री) का भी रहा है। कटरा, बैरहना, मम्फोर्डगंज, रामबाग, साउथ मलाका सभी जगह होली-मिलन रंगों में शामिल रहतीं, वह महिला थी, तो क्या हंसती, बोलती, हंसाती होली मिलती थीं। घर-घर पहुंचना ही अपने क्षेत्र की जनता से मिलना ही नहीं कुटुम्ब समाज से मिलन हो जाता। कमोबेश यही आलम हेमवती नन्दन बहुगुणा जी का होता, जो गांव-गांव इमिलिया, गोबरा, लालापुर, प्रतापपुर, भट्ट पुरा तरहार क्षेत्र हो अथवा चिल्ला-गौहानी गंज, तातार गंज, परसरा सभी जगह पहुंचने की कोशिश करते, हर जनता के सेवक ही नहीं वह घर-घर के अपने होते। हर घर समाज, टोला, मुहल्ला उनका होता, यही थी उनकी पहचान की विरासत। यहां से अमिताभ बच्चन जब नेता बने थे, तो उन्होंने भी प्रयास किया था, किन्तु उनको वह कामयाबी नहीं मिल सकी थी। हालांकि उनका गाया गीत और नृत्य हर चौराहे की शोभा बना रहता रहा है।

इलाहाबाद आज हाईटेक हो रहा है। समय के बदलाव के साथ तमाम मनोरंजन और हास्य व्यंग्य के तौर-तरीके भी बदल रहे हैं, जबकि बीते काल में इलाहाबाद का कटरा चौराहा हो अथवा `मानसरोवर` चौराहा या फिर बैरहना का चौक अथवा रानी मण्डी, चौक का क्षेत्र, यहीं नहीं अजन्ता सिनेमा पार्क का इलाका सभी जगह मौसम गुलाबी-गुलाबी होकर बोलता, पूरा शहर दो दिनों तक जमकर होली खेलता, धोबिया पछाड़ जैसे उठा-पटक धमाचौकड़ी, चरही में डुबो-डुबो कर रंग खेलना या फिर घर-घर परिवार-परिवार की होली खेलने का तरीका ही एकदम भिन्न होता। दिन भर सड़कें यहां रंगो की बौछार से सराबोर रहती, जो शाम ढले के बाद सारी कहानी `होली मिलन` के साथ बदल देती थीं।

लोकनाथ में तब भी भांग के रसगुल्ले,लड्डू और ठंडाई बिकती या बनारस का मिश्रांबू ठंडई खूब चढ़कर बोलता। बावजूद इन सबके शाम ढलने के बाद होली मिलन समारोहों में यहां की पूरी दुनिया ही बदली-बदली नज़र आती। कहीं गुलाब बाई (कानपुर वाली) की नौंटकी में `नदी नारे न जायो श्याम पइयां पङू` नौंटकी की थाप गूंजती तो कहीं शंकर -शम्भू की कव्वाली के रंग और ठाठ बोलते। तालियों की धमक से पूरा जमावड़ा झूंम-झूंम उठता था। पर अजन्ता पार्क पूरी तरह से `महालंठ सम्मेलन` के लिए मशहूर होता, जहां उमाकान्त मालवीय जी के हंसगुल्ले फूटते, तो कैलाश गौतम के व्यंग्य की धूम मची रहती। `मेरा बेटा ऐन वक्त पे रोता है, मैंने पत्नी से पूछा आखिर ये क्यों रोता है? पत्नी बोलती बेटा बाप पर गया है`। और पूरी भीड़ ठहाकों की गूंज में हंस-हंसकर लोटपोट हो जाती। क्या जोड़ी थी इलाहाबाद के दोनों हास्य कवियों की। ठीक उसी प्रकार से जैसे निराला जी, सर्वेश्वर जी, भारती जी की यादें थी।

कितना मन भावन होली मिलन होते थे कि इसमें सभी धर्मों के लोग शामिल होते, मिल-जुलकर उत्सव को अपना बना लेते। नेताओं का भी क्या कहना। चाहे बहुगुणा हों, वाजपेई हों, चौधरी साहब हों अथवा केशरी हों या अन्य नेता प्राय: एक मंच पर इकट्ठा होते और अपने विचारों से पूरे होली मिलन समारोहों की दुनिया ही बदल देते। `महालंठ सम्मेलन` का रंग-भंग और तरंग ठहाकों से गूंजती रहती। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भी यहां सबके अपने होकर शामिल रहते थे। राजा थे, तो क्या अपने गांव-समाज के रंक से मिलकर वह खुद भी गौरवान्वित होते।

कविवर हरवंश राय बच्चन की `मधुशाला` के बोल यहां न गूंजे ऐसा कभी नहीं हुआ। वह चाहे मन्नाडे की आवाज में हो अथवा अमिताभ बच्चन की आवाज में या फिर स्वयं बाबूजी यानी बच्चन जी की आवाज में मधुशाला भी खूब गूंजती रही है। अद्भुत स्मृतियों का सैलाब है, जिसे हाईटेक पीढ़ी अपने मोबाइल, आई फोन, आई पैड पर देखती हैं वह बस हूबहू तब प्रायोगिक धरातल पर होता था। सब कुछ जीवन्त था। आज पुरातन हो चुका है, बिसराया जा रहा है। कल क्या होता है, पता नही?

आज वक्त बदल गया है। कही ऐसा समारोह नहीं होता है। अब तो उमाकान्त मालवीय जी के बेटे यश मालवीय अपनी कविताओं की पहचान को आगे बढ़ाते दिखते हैं, तो कैलाश भाई के सुपुत्र श्लेष गौतम अपने पिता की पहचान और व्यंग्य विधा को एकदम नई पहचान के साथ आगे बढ़ा रहे हैं। ठहाके आज भी है। शब्द मर्यादायें भी है, किन्तु न वातावरण वैसा रहा और न ही उस तरह के होली मिलन समारोहों के आयोजनकर्ता रहे। सबकुछ बदल गया है न जाने कैसी-कैसी `अनकही-अनसुनी` है। पर है नित नई संस्कृतियों के डोर में माला सी पिरोई हुई। देखिये आगे क्या होता है?

होली के गुलाल और पकवानों की थाली के साथ फिर भेंट होगी, नये कथानकों के साथ। आज की यात्रा यहीं तक, अगले अंक में फिर भेंट होगी। तब तक के लिए इंतजार कीजिए।

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