इलाहाबाद कल आज और... इस ऐतिहासिक पार्क में भारत के ज्यादातर पीएम ने की जनसभाएं?

  • Abhijit
  • Monday | 25th December, 2017
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संक्षेप:

  • इंदिरा से लेकर पीएम मोदी कर चुके हैं इलाहाबाद के इस ऐतिहासिक पार्क में जनसभाएं
  • प्रतिष्ठानपुर झूंसी की कहानी जहां का भण्डारा कभी खत्म नहीं होता
  • 1954 के महाकुंभ में इलाहाबाद की `बंदरी सेना` का लोहा आज भी मानते हैं लोग

- वीरेन्द्र मिश्र

इलाहाबाद। वैदिक शहर और ‘हाईटेक’ कुम्भ नगरी की आब-ओ-हवा कुछ ऐसी है कि यहां सेवा भावना स्वयं ही उपजती है और सामूहिक चेतना को जगाती है। किसी भी क्षेत्र में कोई भी व्यक्ति कब सेवा भावना की जागृति अभियान में जुट जायेगा, किसी को इसकी भनक ही नहीं लगती। कोई धर्म, संस्कृति, जात-पांत से कोसो दूर मज़हब पंथ को भुलाकर इंसानियत की राह चल पड़ता है, उसे स्वयं भी पता नहीं चलता। आम जनमानस के बीच-दाल-रोटी की जुगत के बीच अपनी राह स्वयं तलाश लेता है, फिर जो यात्रा आरम्भ होती है, तो पीछे मुडक़र उसे देखने का वक्त ही नहीं मिलता। हम कह सकते हैं यहां जीवन संघर्ष नहीं, बल्कि जीवन आनन्द है मस्ती के रस में लबालब भरा हुआ, अपने सुर-लय की तान स्वयं छेड़ देता है।

वैसे इलाहाबाद शहर बांध के ठीक उस पाट पौराणिक पावन स्थली प्रतिष्ठानपुर झूंसी है, जिसके कालखण्डों में ‘इला-पुरुरेवा’ का पावन प्रेम प्रसंग जुड़ा है। आज भी कथानक का इन्द्रधनुषी रंग यहां हिलोरे मारता रहा है। तो पाण्डवों का पुरातन किला के भग्नावशेष भी हैं, और तो और ।।अंधेर नगरी चौपट राजा टके से भाजी टका सेर खाजा।। की कहावत के अध्येता राजा का कथानक भी जुड़ा है और जुड़ा है इस धरती से यज्ञभूमि के ‘साकल’ और हवन सामग्री टीलों, बाग-बगीचों के अवशेष और इन्हीं के बीच ‘अन्नक्षेत्र’ का भी, जहां भण्डारा कभी खत्म नहीं होता था। भूखे पहुंचते, भूख मिटाते-गंगाजल से प्यास बुझाते, फिर अपनी राह आगे बढ़ जाते, ना जाने कितने ही युगों की दास्तान में ऐसे ही कथानक छिपे पड़े हैं। क्या इसमें कहीं कोई कमीं हुई है। नहीं!

एक बार नोबल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के कथानक को यहां चरितार्थ करने की मंशा के साथ नोबल पुरस्कार विजेता सत्यजीत रे ने फिल्म बनाने की सोची थी। परन्तु समय अनुकूल न होने से कथानक को सिद्ध नहीं किया जा सका था, यह वर्ष 1978 की बात है। फिर सौमित्र मित्रा। अपर्णा सेन, महुआ राय चौधरी जैसे कलाकारों को लेकर ‘अमृत कुम्भेर संघाने’ का निर्माण यहीं संगम किनारे और झूंसी प्रतिष्ठानपुर क्षेत्र में प्रोड्क्शन पूरा किया गया था। फिल्म प्रदर्शित भी हुई थी।

वक्त बदला। वैचारिक मंथन-चिन्तन बदला। आजादी की ‘वानर सेना’ (वीर-बहादुर बच्चों) की टुकडिय़ों को लेकर विश्वम्भर नाथ पाण्डेय जैसे स्वतंत्रता सेनानी भी यहां निरन्तर सेवा भावना में जुटे रहते थे। कहते हैं वर्ष 1954 के महाकुम्भ में वानर सेना की सेवा भावना का काम खुलकर बोला था। परन्तु नेहरु जी की जिद के चलते नागा साधुओं का क्रोध ऐसा भडक़ा कि सैकड़ों जाने भीड़ में दबकर शान्त हो गई थी। जिसकी प्रामाणिक फोटोग्राफर नीपू दादा-फोटोग्राफर-अमृत बाजार पत्रिका और नार्दन इण्डिया पत्रिका के पन्नों की सुर्खियों में था। ऐसी विषम स्थितियों और भूले-बिसरे यात्रियों का एक सेवा दल तभी स्थापित हुआ, तो दूसरा राह बताने वालों में वहां आजादी की लड़ाई में खासकर अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन यानी 1942 में बनाई गई ‘वानर सेना’ भी सक्रिय हो गई थी। यह बात गवर्नर (उड़ीसा) रह चुके और सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी गांधीवादी विचारधारा के अग्रिम सेनानी रहे बी.एन. पाण्डेय ने बताई थी। आज की युवा पीढ़ी के मन में यह सवाल भी उठ रहा होगा।

कि ‘अनकही अनसुनी’ के पन्नों में आजादी के दीवानों की चर्चा कहीं अधिक रहती है, तो यहां स्पष्ट कर दूं कि आधुनिक इलाहाबाद का विकास आजादी के बाद ही हो सका था। न जाने कितनी ही महान विभूतियां तब सक्रियता के साथ देश की आजादी के लिए अपनी कुर्बानी देने में फक्र महसूस करती थीं। उधर ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ की गोरी सरकार पूरे शहर को इसाइयत के ताने-बाने में बुनकर बसाने में सक्रिय थी। यही देखिये न सन् 1901 के बाद इविनिंग क्रिश्चयन कॉलेज की स्थापना के साथ पूरब में यमुना किनारे गिरजाघर बनाया गया, तो चौक लाल डिग्गी पर ऐतिहासिक नीम के पेड़ (आज भी है) के बगल में लाल गिरजाघर बना, तो सिविल लाइन्स क्षेत्र में रेलवे स्टेशन के पास पत्थर गिरजाघर बन चुका था, जिसकी चहार दीवार कुछ ऐसी कि वीरानगी के बावजूद वहां का पूरा वातावरण ही बदल रही थी, तो सेण्ट जोजफ स्कूल के अहाते में भी गिरजाघर बनाया गया।

यही नहीं पूर्वी-उत्तरी छोर पर चर्च लेन पर भी गिरजाघर बन चुका था। यानी शहर के चारों ओर गिरजाघर थे और सिविल लाइन्स क्षेत्र में के.पी. कॉलेज और सी.ए.पी. कॉलेज के बीच में भी गिरजाघर बन गया था। वास्तव में तब अंग्रेजों का जमाना था और पूरे सिविल लाइन्स क्षेत्र में आम नागरिक का जाना भी मुनासिब नहीं था। जहां आज हम गर्व से विचरण करते है और उसके सौन्दर्यबोध के साथ हाईटेक हो जाने का बखान करते अघाते नहीं वास्तव में उसी क्षेत्र के चलते जब वहां सिविल लाइन्स बस अड्डा बनाया गया, तो उसी काल में महान सन्त रामलोचन ब्रह्मचारी ने अपनी साइकिल उठाई और चल पड़े हर दिन भिक्षा मांगने के लिए, ताकि सिविल लाइन्स क्षेत्र में ही हनुमान जी का मन्दिर प्राण प्रतिष्ठित कराया जा सके।

समय ने करवट बदली और पुरुषोत्तम दास टण्डन पार्क तथा गिरजाघर के करीब ही विशाल हनुमान जी का मन्दिर बनाया गया। ब्रह्मचारी जी की परिकल्पना थी यहां इस परिसर में पहलवानों के साथ योगासन और ध्यान करने वाले युवाओं को विशेष मौका दिया जाये। मुफ्त इस हनुमान मन्दिर परिसर में ही यौगिक साधना की व्यवस्था को अन्जाम दिलाया। ब्रह्मचारी जी की सेवा संकल्प भावना का यह पुरातन मन्दिर 1980 में राष्ट्र को समर्पित हो गया। स्वयं राम लोचन ब्रह्मचारी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथों राष्ट्र को समर्पित भी कर दिया था। हम यह कह सकते है कि इंदिरा गांधी स्वयं यहां इस मन्दिर में आकर पूजा अर्चना की थी और उसके बाद उन्होंने मन्दिर के मुख्यद्वार पर ब्रह्मचारी जी के हाथों इस अधिकार को आम जनमानस के लिए स्वीकार कर लिया था।

वक्त बदला। आज राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन पार्क जो सिविल लाइन्स वाले हनुमान जी मन्दिर से लगा हुआ है - यह पार्क भारत की राष्ट्रीय परिधि से जुड़ा रहा। पहले कभी प्रधानमंत्री इलाहाबाद जब पहुंचते, तो यहीं आम सभा होती थी। चारों ओर तब आम जनता का सैलाब होता और दूर-दूर तक कान लगाये जनता अपने प्रधानमंत्री को सुनती। यह सिलसिला लम्बे अन्तराल तक चलता रहा। यहां तक कि देवगौड़ा जब प्रधानमंत्री बने थे, तो उन्होंने भी यहीं जनता को सम्बोधित किया था। परन्तु अतीत में ही यह टण्डन पार्क विपक्ष के नेताओं के लिए मनोनीत कर दिया गया और प्रधानमंत्री का सम्बोधन अथवा कोई रैली होने के लिए के.पी. कॉलेज का मैदान सुनिश्चित कर दिया गया, क्योंकि काफी भीड़ होती थी।

प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री का सम्बोधन तब वहीं आरम्भ हुआ था, फिर श्रीमती इंदिरा गांधी, मोरार जी देसाई, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेई यहां तक कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का इलाहाबाद वासियों के नाम सम्बोधन इस परिसर में सम्पन्न हुआ है। हम यह कह सकते है कि के.पी. कॉलेज परिसर अपने आपमें अनूठा ही नहीं बड़े ठाठ-बाट वाला मैदान बना रहा है। यह के.पी. ट्रस्ट की सेवा भावना मानी जायेगी। अब टण्डन पार्क का जहां सौन्दर्यीकरण हो चुका है, वहीं के.पी. कॉलेज में समारोह स्थली में खेल का मैदान, खेल सभागार बन चुका है, जगह सिमट गई है, परन्तु पूरे शहर के लिए इससे बेहतर जगह गंगा किनारे का रक्षा विभाग का मैदान ही आम जनों के समारोहों के लिए निर्धारित हो सका है। धीरे-धीरे स्थितियां बदल रही हैं।

सिविल लाइन्स हनुमान जी मन्दिर का परिसर आज भी श्रेष्ठतम् की सूची में शामिल है, किन्तु यहां पहुंच कर अगर ब्रह्मचारी राम लोचन को श्रद्धाभाव यदि नहीं समर्पित किया, तो कुछ भी नहीं किया पाया माना जाता है। ठीक उसी प्रकार जहां श्रीराम की पूजा आराधना के साथ भक्त हनुमान को इस युग में ऊर्जा का स्त्रोत माना जाता है, क्योंकि ‘हनु’ माने ‘प्राण’ और ‘मान’ माने ‘वायु’ यानी ‘प्राण-वायु’ की आराधना से पूरा मन प्रफुल्लित हो जाता है। यही नहीं यहां के भगवान दास की देशी घी के लड्डू-पेड़े के स्वाद का यहां कहना ही क्या? उनके वंशज आज भी उसे यथावत बनाये रखने का प्रयास करते हैं और सबसे सस्ते यहीं के लड्डू दूर-दूर तक पहुंचते हैं।

सेवा भावना के कालखण्डों की चर्चा के साथ इलाहाबाद आकाशवाणी निदेशक एस.सी. श्रीवास्तव के बीमार होकर मेडिकल कॉलेज में भर्ती होने का वाकया सचमुच आज भी याद किया जाता है, जिसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों-विद्यार्थियों ने किया था।

आनन्द मोहन और अनुग्रह नारायण सिंह की पहल पर केन्द्र निदेशक एस.सी. श्रीवास्तवा को तब 42 बोतल खून चढ़ाना पड़ा था। पहला ब्लड डोनेशन आनन्द मोहन ने स्वयं किया था। फिर तो विश्वविद्यालय के लडक़े-लड़कियों की रक्तदान की लाइन लग गई थी। यानी रक्तदान में युवा पीढ़ी आगे ही आगे रही बिना किसी लालच और लिप्सा के।

तब आकाशवाणी की जिम्मेदारी स्टेशन इंजीनियर डी. रस्तोगी ने सम्भाली थी। उनके साथ केके वाष्णेय भी थे, जो आज भी दूरदर्शन में वरिष्ठ अभियत्ता है। रत्नाकर सिंह, राजेन्द्र खरे और साकि या जैसे अनेक इंजीनियर्स ने पूरे केन्द्र की जिम्मेदारी संभाल कर एक पहचान के साथ कार्यक्रम विभाग का काम सम्पन्न कराया था, क्योंकि तब राजा जुत्थी, शशि पंजाबी, मरवाहा अरिन्दम शर्मा, निर्मला ठाकुर, विपिन शर्मा और कैलाश गौतम सभी दिन-रात एक करते हुए अपने केन्द्र निदेशक को बचाने में जुटे थे। परन्तु वक्त किसी के साथ कभी नहीं रहता। अपनी गति से चलता रहता है। सेवा भावना को मिसाल बनाता हुआ वक्त आगे बढ़ता चला गया, परन्तु केन्द्र निदेशक को बचाया नहीं जा सका था। यह अपने आपमें तब की बड़ी घटना बन गइ्र्र थी।

तो ये रही है इलाहाबाद वासियों में सेवा भावना जिसकी मिसाल हर कुम्भ के अवर पर देखने को मिलती है, तीर्थ यात्रियों की भीड़ बढऩे पर लोग उन्हें अपने घरों में पनाह देते रहे हैं। उन्हें भोजन कराना और चाय वितरण तो आम बात मानी जाती है। सच! इलाहाबाद में सेवा भावना, साक्षात गंगा मइया कृपा से सम्पन्न होता माना जाता है। कैसे हो जाता है, कोई नहीं जानता। हाईटेक युग की पीढ़ी को इसे आत्मसात कर आगे बढऩा होगा। देखिये क्या होता है। आज की यात्रा यहीं तक।

(अगले अंक में फिर भेंट होगी खास ‘अनकही-अनसुनी’ के साथ)

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