इलाहाबाद कल आज और...जीरो रोड! यादगार दस्तावेजों का इलाहाबाद

  • Hasnain
  • Monday | 28th August, 2017
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संक्षेप:

  • जीरो रोड भौगोलिक गाथा के पहचान की दास्तान है।
  • जीरो रोड के नाम को लाख कोशिशों के बावजूद भी बिसराया नहीं जा सका।
  • कभी मुन्नी बाई का कोठा यहां बदनाम रहता था।

--वीरेन्द्र मिश्र

`जीरो रोड`! न कोई इतिहास और न ही किसी कालखण्ड की स्मृतियों का सैलाब! बल्कि जीरो रोड भौगोलिक गाथा के पहचान की दास्तान है। जिसके गर्भ में छिपी है आज भी न जाने कितने ही बाशिन्दगियों की गाथायें। संस्कृतियों का संगम और संस्कारों की संस्कारधानी का मर्म।

पूरबी छोर मानसरोवर-मोतीमहल सड़क और पश्चिमी छोर जान्सटनगंज रोड को सेतु बना देता है। यह जीरो रोड। जिसके नाम को लाख कोशिशों के बावजूद भी आज तक बिसराया नहीं जा सका है। और न ही जीरो रोड नाम लोगों की जुबान से फिसलकर कुछ और नाम स्थापित करा सका है। बल्कि इस जीरो रोड में जो भी आया बस! उसमें समाता चला गया। महाजनी टोला, पान दरीबां, मीरगंज, घण्टा घर और एस सी बंसु रोड कभी अरब वासियों का चक सबी इसी रोड से जुड़कर अपनी पहचान में इतराते आये हैं। कोई किसी से कम नहीं, किन्तु जीरो रोड तो बस जीरो रोड ही है।

आइये झांकते है पुराना दबंग मुहल्ला चक, वासियों से महाजनी टोला के सेठों तक। सुरसंगम से उपान्यासकार डॉ. नासिरा शर्मा के जीरो रोड तक। पान दरीबां और हठकेश्वरनाथ महादेव की पावनता तक।

यही नहीं मीरगंज की मुन्नीबाई के कोठे तक की कहानी भी इसमें छिपी हैं और भगवान दास की मिठाइयां इमरती की चासनी तथा खस्ता समोसा का स्वाद ऐसा कि जीभ चाटती रह जाये। बार-बार खाने का मन करता रहे।

बहुत कुछ बदल गया है, किन्तु अब पांच दशक बीत जाने के बाद डॉ. नासिरा शर्मा ने उसकी पहचान को आधार मानकर उपन्यास का शक्ल क्या दे दिया है। इस तरह जीरो रोड को राष्ट्रीय सम्मान भी मिल गया है।

शायद जीरो रोड वासियों को इस बात का इल्म भी न हो कि वो जहां की पहचान से जुड़े है। वहां कि मिट्टी-दिल्ली-मुम्बई दोनों जगह आज सुवासित हो रही है और नई पीढ़ी की प्रेरणा बन रही है।

परन्तु दु:ख है कि महाजनी टोला के कितने स्वर्णकार लोगों का गला काट-काट कर महाजन बने बैठे है। गलाई ऊंचा मंडी में करते है तो ठुकाई मीरगंज में और बाशिंदगी महाजनी टोला और पान दरीबां में। कोठे पर गायकी की हुनरमंद वेश्याओं से भी कई गुणा गये गुजरे है ये। तभी तो उनकी जिंदगी में `जीना यहां मरना यहां। इसके सिवा जाना कहां`। ही सबब बना दिखता है। जो छिपता नहीं सिर चढ़ कर बोलता है। यह बात दीगर है कि यहां मीरगंज के कोठे अब खत्म हो गये है। बेश्यागृह समाप्त हो गये है। उन घरों में कामगर लोगों की नई जिंदगी बसर करन लगी है, किंतु दृष्टिकोण में फर्क नहीं आया। ग्राहक पटाओ, फायदा उठाओ। खुलकर दिखता है। कोई किसी से कम नहीं कोई ऐसा नहीं, जिसमें दम नहीं। जहां भी है बस काटे जा रहा है।

डॉ नासिरा दीदी से जब बात होती है, तो बात-बात में कहती है कि बूढ़ी हो गई हूं, फिर भी अपना बचपन आज जीरो रोड पर गुजरे वक्त के साथ तरोताजा है। पुराना घर। वहां की सड़कें। सबकुछ यथावत है न चाहकर भी यादों में जीरो रोड पहुंच जाती हूं। तभी तो जीरो रोड उपन्यास लिख सकी हूं। मेरी कुइयांजान से कम प्यारा नहीं है। हमारा जीरो रोड। जिंदगी सुबह से शाम होती जा रही है। तेल-घी-गुड़-कपड़ा सब थोक भव होकर भी रिटेल में बिकता जा रहा है। क्या? क्या कितना बोले खरीदोगे मिल जायेगा।

जीरो रोड की मजार पर आज भी जियारत की आवांजे गूंजती हैं। पसंदगी और नापंसदगी की चढ़ाई-उतराई तो बस हांफते रिक्शे वाले से ही पूछी जा सकती है। जो पुलिस की डंडों की मार के बावजूद पैंडल पर पांव मारते रहते है। यहां की गल्लियों में झांकिये तो तिनका-तिनका सुख की बाट जोहतते जीवन को इस छोर से उस छोर तक देखा जा सकता है। तो बस ये जीरो रोडजीरो रोड एक ऐतिहासिक सड़क। सिर्फ नाम की। काम की और महंगे दाम की।

इसी जीरो रोड से सटे ब्रह्म कुल परिवार की युवा बेटी आज शहर की मेयर है। दकियानुसी जिंदगी को भूलकर अब नई पीढ़ी यहां कई आयाम जोड़ रही है। अजन्ता, रुपबानी और नाज़ तीनों सिनेमा हॉल खत्म हो चुके हैं, किन्तु उनके नाम के पहचान में आंच नहीं आई है। सबकुछ यथावत बरकरार है।

जीरो रोड यह कोई न तो ऐतिहासिक कथानक की कहानी कहती जगह है और न ही ऐतिहासिक कालचक्रों की बुनियाद की कोई आधार रचना रखती है। जो वास्तव में इलाहाबाद में मानसरोवर से घण्टाघर चौक को जोड़ने वाली ऐसी सड़क नाम है। और पूरी चौक घण्टाघर इलाके की जान है ये जीरो रोड।

यह जीरो रोड मानसरोवर सिनेमा की उंचाई पर चढ़ते ही अजन्ता फिर रुपबानी से जुड़ता हुआ घण्टाघर चौक तक पहुंच जाता है। जहां आज कल्याण चंद मोहिले उर्फ छुन्नन गुरु के नाम की मूर्ति स्थापित हो चुकी  है। किन्तु छुटभइये दुकानदारों ने पूरे घण्टाघर पर कब्जा जमा रखा है।

जीरो रोड वास्तव में भुगोल इसलिए है क्योंकि जो मानसरोवर से जान्सटनगंज की सड़क को जोड़ती है। वह सेतुबंद सरीखे एसी सड़क है जिसे कलेक्टर जान्सटन ने वर्ष 1929 में यूं ही जीरो रोड रोड नाम दे दिया था। बस चल पड़ा जीरो रोड, जो आज तक थमा नहीं। जमा है,तो जमा है।

कैलाश मानसरोवर की परिक्ल्पना अनुसार ऊंचाई चढ़ते जाइये। टीले पर पुराना रोडवेज बस अड्डा बना जो आज भी है रींवा-बांदा की ओर की अधिकांश बसें आज भी यहीं से जाती है। सराय अकिल की ओर जाने वाली बसें अब यहां से बंद हो गई है। मुख्य चौराहा अजन्ता के ठीक पहले श्रीसचंद बसु रोड आज भी है। ऐतिहासिक चौराहा जो 1942 के आंदोलनों की ताकत का बखान करता है। यही इसी रोड पर नासिरा शर्मा का बचपन बीता है। तभी कुइंयाजान उपन्यास ने धूम मचाई। यही वो चौराहा है, जहां की दूकानों में चाट-पकौड़ी की गहमा-गहमी बनी रही है। वास्तव में यही रौनक भी यहां की है।

वर्ष 1929 में जीरो रोड जब आ धमका है वर्ष 1931 में जब म्यूनिसिपल बोर्ड बना और उसके अध्यक्ष कामता प्रसाद कक्कड़ यानि केपी कक्कड़ बनाये गये। तो उन्होंने इस रोड का नाम अपने नाम पर केपी कक्कड़ रख दिया था। जीरो रोड तब से एक नाम के साथ जुड़ गया किन्तु आजतक उस जीरो रोड की अहमियत घटी नहीं बल्कि नाम के साथ निरंतर आगे बढ़ती ही रही है। आज भी `जीरो रोड` जीरो रोड ही है। इसकी पहचान को आंच नहीं हालांकि हजारों कोशिशें इसे मिटाने के लिए की गई।

कैसा अद्भुत संयोग माना जाएगा कि जीरो रोड पर प्रहलाद दास भगवान की मशहूर खस्ता कचौड़ी के दुकान मिठाई देशी घी यहीं पर है। रात में आपको कहीं चाय की तलब लगे तो सारी रात कड़क चाय गरमाहट पैदा कर देती है। यहां जरुर मिल जाएगी। इसका मजा तो चिल्ली जाड़े की रातों नें खुलकर बोलता है।

अब न यहां पर कोठे है न तवायफों के वेश्या घर, बल्कि घी-तेल के सोना-चांदी के व्यापारियों ने अपनी पहचान यहां दर्ज करा डाली है। कभी मुन्नी बाई का कोठा यहां बदनाम रहता था। तब भी मजाल है कोई पढ़ने-लिखने वाला विद्यार्थी वहां पहुंचा बना पाता। उसे डांट-डपट ही मारकर भगा दिया जाता था।

मुन्नी बाई दिल्ली पहुंच गई भोला शंकर के साथ और फिल्मों में उसके नाम की चर्चा मुन्नी बदनाम हुई तक पहुंच गई। अब न मुन्नी बाई है न ही उसका जहां हो आबाद है। हां...सामने रुपपानी सिनेमा है। और नाज़ सिनेमा दोनों का नाम बिसराया जा चुका है। परंतु चून्ना वाले की दुकान और शीशे की छत वाली दुकान की चर्चा आज भी होती है। पर यहां के बाजार कि रौनक अब फीकी हो गई है। यहां केसरबानी विद्यालय, मीरगंज में खोला गया था। विद्यार्थी की पढ़ाई अड़चने जरुर रही, तवायफों के मुहल्ले से किन्तु इन्हीं विद्यार्थी युवाओं के चलते अब वह बदनाम स्थान लगभग वर्षों बाद एक दम बदल गया है।

जीरो रोड जैसा नाम वैसा गुण नहीं, बल्कि यह रोड शून्य की ताकत सरीखे संस्कृतियों का सेतु बंधन बनकर स्थापित हो चुका है। डॉ. अरुण अग्रवाल का आई हॉस्पिटल यहां आज पहचान बन चुका है। तो डॉ. अशोक अग्रवाल के नर्सिंग होम की लोकप्रियता ने नई पहचान को जन्म दिया है।

कैसी अजीब विडंबना मानी जायेगी कि जीरो रोड है नाम का किंतु कोई माई का लाल उसके नाम के मिटा नहीं सका। जान्सटन की सूझ-बूझ का इसी से पता चलता है कि दो वर्षों बाद ही उसका नाम भले ही के पी कक्कड़ कर दिया गया। किन्तु न तो चक्र की ताकत कोई धुमिल कर सका और न ही कोई पानदरीबां की मनमोजी की बयार को बदल सका। हर गली की अपनी बादशाहत, जो जीरो रोड के साथ रंगबाजी में ढलान पर ही पहुंच जाती है।

नाम छोटा दर्शन विराट है। इस जीरो रोड का। गुंडागर्दी की पराकाष्ठा से समाज शाला की पहचान माला बनाता।  डॉ. नासिरा शर्मा की परिकल्पनाओं को साकार करता है। अतीत में झांक कर अपनी पहचान को खोजने को मजबूर भी करता है यह जीरो रोड

( ये कहानी यहीं तक, अगले अकं में आप पढ़ेंगे विशेष कहानी। इंतजार कीजिए...)

 

 

 

 

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