सुप्रीम कोर्ट के इन 5 बड़े फैसले से प्रभावित हुआ उत्तराखंड
- राष्ट्रपति शासन हटाकर फ्लोर टेस्ट का आदेश
- 2013 से राज्य में रिक्त चल रहे लोकायुक्त के पर सुनाया फैसला
- ट्रिपल तलाक को अंसवैधानिक करार दिया
देहरादूनः देश का हर नागरिक जब सामाज की संरचनाओं से उपेक्षित और प्रताड़ित महसूस करपता है तो उसके पास एक मात्र सहारा भारतीय न्यायिक व्यवस्था ही होती है। बड़ा हो छोटा विवाद जब आपसी समझौते से हल नहीं निकलता तो जनता न्याय का दरवाजा खटखटाती है। लोकतंत्र के चार मुख्य स्तंभों में से एक न्यायपालिका ने देश की प्रतिष्ठा को बरकरार रखते हुये आजतक खुद को सवालों और विवादों से दूर रखा है। ऐसे में बीते दिनों जब न्यायपालिका से जुड़ा जो मामला सामने आया उसने कई सवालों को जन्म दिया।
देश की उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों ने शुक्रवार को खुलकर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की प्रशासनिक कार्यशैली और विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। ये भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है जब कोई जज मीडिया से रूबरू हुए हों। सुप्रीम कोर्ट के सीटिंग जज प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपनी पीड़ा बता रहे थे।
जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा कि न्यायपालिका को बचाने की जरूरत है, यहां सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पिछले कुछ सालों से महत्वपूर्ण मामलों जिनमें निर्णय सामूहिक तौर पर लिए जाते रहे हैं, उस परंपरा को खत्म कर दिया गया है। केस के बंटवारे में नियमों का पालन नहीं हो रहा हैं। उनका कहना है कि जस्टिस दीपक मिश्रा की अपने पसंद की बेंच को केस सौंप देते हैं।
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सर्वोच्च न्यायालय में हमेशा से ही जनता की आस्था रही है। सभी ताकतों से हारने के बाद लोग कोर्ट का दरवाजा इस आस में खटखटाते है कि उन्हें यहां से निष्पक्ष फैसला मिलेगा, बिना किसी दवाब के नतीजे पर पहुंचते हुए न्यायालय सही को सही और गलत को गलत ठहराएगा। इसी वजह से पूरे देश को सुप्रीम कोर्ट में अटूट विश्वास है। सुप्रीम कोर्ट ने देशहित में कई फैसले दिये हैं। कुछ ऐसे फैसले रहे हैं जो देश के लिये एक नज़ीर बन गये हैं।
आइये आपको सुप्रीम कोर्ट के उत्तराखंड से जुड़े कुछ ऐसे ही फैसलों के बारे में जानकारी देते हैं जिनसे लोगों का न्यायालय पर भरोसा और बढ़ा है।
1- राष्ट्रपति शासन हटाकर फ्लोर टेस्ट का आदेश
साल 2016 को उत्तराखंड के इतिहास का सबसे उथल-पुथल वाला साल कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। उत्तराकंड ने क्या नहीं देखा इस साल? यही वो साल था जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया गया था, उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटाकर फ्लोर टेस्ट करवाने का आदेश दिया था। जिसमें कांग्रेस जीत गई थी और हरीश रावत एक बार फिर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन गए थे।
क्या था पूरा मामला?
18 मार्च 2016 को उत्तराखंड विधानसभा में विनियोग विधेयक पर मत विभाजन की विपक्ष भाजपा की मांग का सत्ताधारी कांग्रेस के नौ विधायकों ने समर्थन किया था, जिसके बाद प्रदेश में सियासी तूफान पैदा हो गया था। उत्तराखंड के चल रहे इस सियासी संकट के बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत का स्टिंग ऑपरेशन कर दिया गया। इस स्टिंग में कथित तौर पर उन्हें एक पत्रकार से बागी विधायकों का फिर से समर्थन हासिल करने के लिए डील करते हुए दिखाया गया था।
इस मुद्दे को बड़ा बनाते हुये केंद्र की मोदी सरकार ने उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी। तब कांग्रेस राष्ट्रपति शासन के खिलाफ नैनीताल हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्याय पाने के लिए भटकते रहे। 10 मई 2016 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उत्तराखंड की विधानसभा में रावत ने विश्वास मत पेश किया। इस दौरान मतदान को एक बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित पर्यवेक्षक उत्तराखंड के विधायी और संसदीय कार्य विभाग के सचिव जयदेव सिंह ने सुप्रीम कोर्ट को सुपुर्द किया। 11 मई 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने इस बंद लिफाफे को खोला और मतदान के परिणाम की घोषणा की, जिसमें हरीश रावत के पक्ष में 33 और विपक्ष में 28 वोट पड़े थे। और इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने राज्य से राष्ट्रपति शासन को हटाते हुये हरीश रावत सरकार फिर से बनाने का रास्ता साफ किया था।
2- लोकायुक्त
2013 से राज्य में रिक्त चल रहे लोकायुक्त के पद को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा फैसला सुनाया जिससे लंबे समय से इसके गठन का इंतजार कर रहे मुरझाये हुए चेहरों में थोड़ी रौनक देखने को मिली। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की त्रिवेंद्र सरकार को एक्ट बनने के 3 महीने में ही लोकायुक्त नियुक्त करने का आदेश दिया। जिसपर सीएम ने आदेश की कॉपी मिलने के बाद उसका अध्ययन करने की बात कही है।
इससे पहले सीएम त्रिवेंद्र ने 29 दिसंबर को टिहरी में एकाएक लोकायुक्त गठन से साफ इनकार करते हुए कहा था कि पूर्ववर्ती सरकार ने जब इसका गठन नहीं किया तो वो भी नहीं करेंगे। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से लोगों का विश्वास उच्चतम न्यायालय के लिए और बढ़ गया था।
बता दें कि राज्य में 700 से अधिक भ्रष्टाचार संबंधी शिकायतें लंबित हैं। उत्तराखंड के इस अधिनियम में लोकायुक्त के दायरे में मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्री और सरकारी कर्मचारी हैं। पूर्व मुख्यमंत्री, विधायक और सेवानिवृत्त कर्मचारी भी इसके दायरे में हैं। इसके तहत दोषियों को उम्रकैद की सजा और संपत्ति जब्त करने का प्रावधान है।
3- गंगा के जीवित मानव दर्जे को किया खत्म
उत्तराखंड हाई कोर्ट के नदी को मनुष्य के समान अधिकार देने वाले ऐतिहासिक फैसले पर सुनवाई करते हुए उच्चतम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी थी। गंगा, यमुना को जीवित व्यक्ति का दर्जा देने के खिलाफ सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला 7 जुलाई 2017 को सुनाया था।
गौर हो कि राज्य सरकार ने नैनीताल हाई कोर्ट के 20 मार्च के आदेश के संबंध में उत्तराखंड सरकार ने दलील दी थी कि गंगा-यमुना को जीवित व्यक्ति का दर्जा देने के फैसले में हाई कोर्ट ने गंभीर चूक की है। इस बारे में हाई कोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका में इसकी मांग तक नहीं की गई थी। ये याचिका अतिक्रमण और दो राज्यों में बंटवारे को लेकर दाखिल हुई थी। सरकार ने कहा है कि नैनीताल कोर्ट के फैसले से कई बड़े संवैधानिक सवाल खड़े हो गए हैं। गंगा और यमुना सिर्फ उत्तराखंड में नहीं बल्कि कई राज्यों में बहती हैं। ऐसे में दूसरे राज्यों में इन नदियों की जिम्मेदारी उत्तराखंड को नहीं दी जा सकती।
हाई कोर्ट ने नदियों की ओर से नमामी गंगे के डायरेक्टर, उत्तराखंड के चीफ सेक्रेट्री और राज्य के एडवोकेट जनरल को कानूनी संरक्षक घोषित किया था। इस पर राज्य सरकार ने दलील दी कि क्या दूसरे राज्यों में कोई भी दुरुपयोग होने पर उत्तराखंड का चीफ सेक्रेट्ररी किसी अन्य राज्य या केंद्र सरकार को आदेश जारी कर सकता है?
याचिका में कहा गया था कि बाढ़ जैसी आपदा में किसी की मृत्यु होने या जानमाल का नुकसान होने पर मुआवजे और नुकसान की भरपाई का मुकदमा दाखिल किया जा सकता है। ऐसे में राज्य के चीफ सेक्रेट्ररी पर ही मुकदमा होगा। क्या राज्य सरकार इस वित्तीय भार को सहन करेगी? यदि किसी दूसरे राज्य में आपदा आती है,अतिक्रमण का कोई केस होता है तो क्या इसके लिए उत्तराखंड का ही चीफ सेकेट्री जवाब देगा?
हरिद्वार निवासी मोहम्मद सलीम ने जनहित याचिका दायर कर यमुना से निकलने वाली शक्ति नहर ढकरानी को अतिक्रमण मुक्त करने तथा उत्तराखंड-उत्तर प्रदेश के बीच नदियों व परिसंपत्तियों का बंटवारा करने की अपील की थी। जिसमें फैसला करते हुए हाई कोर्ट ने गंगा को जीवित का दर्जा दिया था।
4- वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के वेतन में कटौती के मामले पर रोक
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाई कोर्ट के उस आदेश पर रोक लगाई जिसमें स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं मुहैया न कराने पर वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के वेतन में कटौती करने की बात कही गई थी। हाई कोर्ट के फैसले को राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने 29 नवंबर 2017 को उत्तराखंड सरकार की याचिका पर उच्च न्यायालय के 30 जून के आदेश पर रोक लगा दी साथ ही मामले में हाई कोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले दीपक राणा को भी नोटिस जारी किया।ट
बता दें कि 30 जून 2017 को हाई कोर्ट ने राज्य के शिक्षा विभाग के अधिकारियों को 6 महीने के भीतर सभी सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं मुहैया करने का आदेश दिया था। हाई कोर्ट ने कहा था कि ऐसा न होने पर अधिकारियों के जनवरी महीने के वेतन में कटौती होगी।
हाई कोर्ट ने यह भी कहा था कि स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराना राज्य का संवैधानिक कर्तव्य है। साथ ही कोर्ट ने राज्य सरकार को चेतावनी भी दी थी कि अगर सरकार के पास पैसे नहीं है तो वह राज्य में वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद-360) लगाने की सिफारिश कर सकती है।
5- ट्रिपल तलाक को अंसवैधानिक करार दिया
साल 2017 के अगस्त महीने में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के काशीपुर निवासी सायरा बानो की याचिका पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए ट्रिपल तलाक को अंसवैधानिक करार दिया था। 5 जजों वाली संवैधानिक पीठ ने 3-2 के बहुमत से सैकड़ों साल से चली आ रही इस कुरीति पर रोक लगाई। पीठ के मुताबिक ट्रिपल तलाक संविधान के आर्टिकल 14 में समानता के अधिकार का हनन करता है। ये फैसला सायरा बानो की याचिका पर लिया गया था। सायरा बानो को उनके शौहर ने डाक के जरिए तलाक भेजा था।
इस फैसले से न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि पूरे देश का सर्वोच्च न्यायालय के प्रति अटूट भरोसा बुलंदियों पर जा पहुंचा था। उच्चतम न्यायालय के इस ऑर्डर से पूरे देश की मुस्लिम महिलाओं को इस कुरीति से छुटकारा मिला। बता दें कि सायरा बानो उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली हैं। 2002 में उन्होंने इलाहाबाद के रिजवान अहमद से शादी की। उनके दो बच्चे भी हैं।
सायरा के मुताबिक उनके ससुराल में उन्हें बहुत प्रताड़ित किया जाता था। उनसे दहेज की मांग की जाती, मारा-पीटा जाता। इन सबके चलते वो बीमार भी रहने लगीं। इसके बाद रिजवान ने सायरा को जबरदस्ती काशीपुर वापस अपने पिता के घर भेज दिया। साल 2015 में उनके पति ने उन्हें डाक के जरिए तलाक भेज कर रिश्ता खत्म कर लिया था। तलाक को चुनौती देते हुए वे सुप्रीम कोर्ट पहुंची थीं। ये फैसला मुस्लिम महिलाओं के हक का अबतक का सबसे बड़ा फैसला है।
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